रवींद्रनाथ टैगोर के बारे में आमतौर पर हिंदुस्तान में दो चर्चाएं सुनने को मिलती हैं. गीतांजली के लिए साहित्य का नोबेल जीतने वाले रवींद्र की सबसे पुख्ता पहचान भारत के राष्ट्रगान के रचयिता की है. हालांकि ये बात और है कि एक खास विचारधारा के तहत प्रोपगैंडा फैलाने वाले लोग कई अंतरों के जन गण मन के शुरुआती बंध को कोट करते हुए उसे जॉर्ज पंचम का स्तुति गान बताते फिरते हैं.
टैगोर ने कला, साहित्य और स्वतंत्रता आंदोलन में कई तरह से हिस्सेदारी की. गुरुदेव और उनके परिवार का बड़ा प्रभाव भारतीयों (खास तौर पर महिलाओं) के कपड़े पहनने के ढंग और फैशन के पर है, इसके साथ ही 7 मई को पैदा हुए रविंद्रनाथ टैगोर का बड़ा काम भारतीय विज्ञापनों पर भी है.
साबुन क्रीम और बॉर्नविटा
अगर आपको लगता है कि सचिन तेंदुलकर पहले ऐसे भारत रत्न हैं जो साबुन, कोल्ड्रिंक और ऐनर्जी ड्रिंक का विज्ञापन कर रहे हैं तो आप गलत हैं. टैगोर ने अपने जीवन में 500 से ज्यादा विज्ञापन किए. उस दौर के कई उत्पादों के प्रिंट विज्ञापनों में टैगोर की बातें कोट रहती थीं. गोदरेज साबुन और रेडियम स्नो (क्रीम) की अच्छी क्वालिटी और विदेशी प्रोडक्ट्स से इनके बेहतर होने जैसी बातें कोट होती थीं.
ये बात नही पता है कि गुरुदेव इनके लिए कुछ पैसा भी लेते थे या नहीं मगर विदेशी प्रोडक्ट बॉर्नविटा के विज्ञापन में भी उन्होंने काम किया. विज्ञापन के कई विशेषज्ञ मानते हैं कि टैगोर अगर आज के समय में होते तो कई सुपर स्टार्स को टक्कर दे रहे होते.
जब भले घर की लड़कियां ब्लाउज नहीं पहना करती थीं
आज जो तर्क लड़कियों के जींस पहनने से रोकने के लिए दिए जाते हैं, लगभग वही सब बातें आज से सौ-सवा सौ साल पहले बंगाल में महिलाओं के ब्लाउज पहनने को दिए जाते थे. ऐसे संस्मरणों की कमी नहीं है जिनमें पति की फैंटेसी को पूरा करने के लिए पत्नी बेडरूम में छिपकर ब्लाउज पहनती है. और राज खुल जाने पर सास बहू के झगड़े होते हैं. टैगोर के चर्चित उपन्यास ‘चोखेर बाली’ (आंख की किरकिरी) में भी ऐसा किस्सा है.
टैगोर परिवार की बहू ज्ञाननंदनी देवी (सत्येंद्रनाथ टैगोर की पत्नी) ने अपनी इंग्लैंड और बॉम्बे की यात्राओं के अनुभवों और पारसी गारा पहनने के तरीकों को मिलाकर साड़ी पहनने का वो तरीका निकाला जो आज प्रचलन में है.
ब्रह्मसमाज की औरतों ने इसे सबसे पहले अपनाया इसलिए इसे ब्रह्मिका साड़ी कहा गया. खुद गुरुदेव ने भी भारतीय महिलाओं के सलीकेदार तरीके से तैयार होने की भरपूर वकालत की, यहां तक की साड़ी पहनना सीखने के लिए विज्ञापन भी छपे.
साड़ी पहनने के इस तरीके में में न सिर्फ एक सुगढ़ता थी बल्कि ब्लाउज, शमीज, पेटीकोट, ब्रोच, और लॉन्ग जैकेट का साड़ी के साथ इस्तेमाल इसी समय में शुरू हुआ. अगर आपने गौर फरमाया हो तो भारतीय महिलाओं की राष्ट्रीय पोशाक के साथ इस्तेमाल होने वाली सारी एसेसरीज के नाम (पेटोकोट भी) अंग्रेजी हैं. वैसे टैगोर परिवार के बाद साड़ी पहनने के सलीके में सबसे ज़्यादा काम केशवचंद्र सेन की पुत्री महारानी सुनीती देवी (जयपुर की प्रसिद्ध महारानी गायत्री देवी की दादी) ने किया.
इसके अलावा जब भारतीय पुरुषों के लिए एक राष्ट्रीय पोशाक की बात आई तो रविंद्रनाथ टैगोर का ही विचार था कि भारतीय और पश्चिमी पोशाकों को न मिलाकर हिंदु और मुस्लिम पोशाकों को मिलाना चाहिए. इसी से लंबे बटन वाले कोट ‘चपकन’ की शुरुआत हुई. आज के समय में ज़्यादातर एथनिक परिधान हिंदू और मुस्लिम पोशाकों के मिक्स वाली धारणा से ही आते हैं.
चरखा समय की बर्बादी है
गांधी ने टैगोर को गुरुदेव की उपाधि दी और टैगोर ने गांधी को महात्मा का दर्जा. इसके बाद भी दोनों में कई मुद्दों पर असहमति रही और गाहे-बगाहे दोनों सार्वजनिक रूप से एक दूसरे की आलोचना भी करते रहे. बिहार में आए भूकंप को गांधी ने मनुष्य के पापों का फल बताया था. गुरुदेव ने बापू के इस बयान की खुलकर आलोचना की थी. वहीं खादी और चरखे के कॉन्सेप्ट से टैगोर कभी सहमत नहीं हो सके. विदेशी वस्त्रों की होली जलाने को उन्होंने ‘अविवेकपूर्ण बर्बादी’ कहा.
चरखे और खादी को लेकर टैगोर का कहना था कि ये कभी भी व्यवसाय का एक सफल मॉडल नहीं बन पाएगा. वहीं गांधी कहते थे कि सिर्फ बौद्धिक श्रम सब कुछ नहीं होता, अगर हर आदमी दिन में आधा घंटा चरखा चलाए तो खादी सफल बनी रहेगी. इसपर गुरुदेव के विचार थे कि वो उस समय का उपयोंग कुछ बेहतर लिखने और बनाने में कर सकते हैं तो चरखा चलाने जैसा अर्थहीन श्रम क्यों करें.
एक जगह उन्होंने लिखा कि कवि भविष्य के लिए जीता है और चरखे की बुरी तरह से आलोचना की, इसके बाद गांधी ने जवाब दिया, 'जब मुझे जीवनयापन के लिए श्रम करने की ज़रूरत नहीं है तो मैं भी चरखा क्यों चलाऊं? हो सकता है कि सवाल उठाया जाए कि मैं दूसरों के पैसों पर पल रहा हूं. कहा जाए कि मैं जो खा रहा हूं वो मेरी कमाई नहीं है. मेरी जेब में पड़े हर सिक्के की जांच कर लीजिए पता चल जाएगा ये सब कहां से आया है. हर कोई चरखा चलाता है तो गुरुदेव भी अपने विदेशी वस्त्र जलाएं और चरखा चलाएं.'
टैगोर और गांधी के बीच के ये मतभेद सिर्फ यहीं तक नहीं रुके. गुरुदेव ने महात्मा के वैवाहिक जीवन से जुड़े विचारों पर भी आड़े हाथों ले लिया. उनकी शादी 1883 में मृणालिनी देवी से हुई थी. 1902 में पत्नी की मृत्यु के बाद वो ज़िंदगी भर अकेले रहे.
महात्मा आदमी के नैतिक उत्थान के साथ-साथ शारीरिक संबंधों को गलत मानते हुए छोड़ देने की बात करते थे. जब गांधी ने बा से अलग सोने की सार्वजनिक घोषणा की तो टैगोर ने इस मुद्दे पर अलग ही विचार रखे.
'गांधी जी व्यक्ति की नैतिक तरक्की के साथ उसके सेक्स करने की निंदा करते हैं. महान लेखक क्र्युज़र सोनाटा की तरह उन्हें भी शारीरिक संबंधों से डर लगता है. लेकिन टॉल्सटॉय की तरह वो सेक्स के लिए घृणा को संपूर्ण रूप से खत्म करने को नहीं छोड़ पाते. मगर वास्तविकता में उनके व्यवहार में महिलाओं के लिए जो दयालुता है वो चरित्र की सबसे महान वस्तुओं में से एक है. जिस तरह से गांधी अपने साथ महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन में बराबरी से जोड़ रहे हैं, वो उन्हें महानायक बनाता है.'
गांधी और टैगोर दोनों की अपनी-अपनी महानता है और दोनों ही जिस तरह असहमत होते हुए भी एक दूसरे का सम्मान करते रहे वो हर किसी के लिए सीखने लायक बात है.
(यह लेख पूर्व में प्रकाशित हो चुका है)