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कृपलानी के इस्तीफे ने ही तय कर दी थी प्रधानमंत्री पद की सर्वोच्चता

कृपलानी जी जब निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लोकसभा का उप चुनाव लड़ रहे थे तो नेहरू जी ने उनके खिलाफ कांग्रेस का उम्मीदवार नहीं देने दिया

Surendra Kishore

जे.बी कृपलानी को जब लगा कि प्रधानमंत्री देश के महत्वपूर्ण मुद्दों पर कांग्रेस अध्यक्ष से राय नहीं लेते तो उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ दिया था. वे 1946 में बने और 1947 में हट गए.

महात्मा गांधी के निधन के बाद तो कृपलानी ने कांग्रेस को ही छोड़ दिया. क्योंकि गांधी के बाद ऐसे कोई नेता नहीं थे जो कृपलानी को पार्टी में रोक सकते थे. कृपलानी अत्यंत स्वाभिमानी व स्पष्ट वक्ता थे. बाद में उन्होंने अपनी पार्टी बनाई. फिर जेपी के नेतृत्व वाली पार्टी से जुड़े.


बाद में निर्दलीय सांसद थे. उन्हें पद को मोह नहीं था.आजादी के बाद उन्हें पद ऑफर किया गया था. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 1946 में अंतरिम सरकार बनने के बाद जे.बी कृपलानी कांग्रेस अध्यक्ष बने थे. पर, प्रधानमंत्री से मतभेद के कारण उन्होंने नवंबर,1947 में अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया.

याद रहे कि जवाहर लाल नेहरू के कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद कार्य समिति ने जे.बी कृपलानी को अध्यक्ष बनाया था. दरअसल कृपलानी यह भूल रहे थे कि आजादी के बाद कांग्रेस अध्यक्ष पद का महत्व पहले जैसा नहीं रहेगा.

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बाद के सालों में तो कांग्रेस अध्यक्ष का पद सामान्यतः प्रधानमंत्री के मातहत एक प्रतिष्ठित कर्मचारी जैसा हो गया. इसलिए आजादी के बाद अनेक वर्षों तक प्रधानमंत्री ही कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे.

जब यह महसूस किया गया कि कांग्रेस अध्यक्ष का अलग से कोई महत्व या उसके पास कोई महत्वपूर्ण काम ही नहीं है तो क्यों नहीं दोनों पद एक ही व्यक्ति संभाले.

यह सवाल इस देश में राष्ट्रपति बनाम प्रधानमंत्री पद को लेकर भी एक बार उठा था. उस पर एक व्यक्ति ने विनोदपूर्वक कहा था कि ‘यदि जवाहर लाल नेहरू को राष्ट्रपति बना दिया गया होता तो व्यावहारिक तौर पर यह पता चल जाता था कि कौन सा पद भारी है. चाहे संविधान जो भी कहता हो.’

इस बात से जवाहर लाल नेहरू के प्रभावशाली व्यक्तित्व का पता चलता है. एक प्रकरण ने कृपलानी जी को उनके पद की हैसियत बता दी. प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और गृह मंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल सिखों के प्रतिनिधि बलदेव सिंह के साथ वायसराय से बातचीत करते रहे और कांग्रेस अध्यक्ष को उससे अलग रखा गया.

कांग्रेस अध्यक्ष कृपलानी ने इसे बुरा माना

इसका पता चलने पर जवाहर लाल नेहरू ने अलग से कांग्रेस के प्रतिनिधि से मिलने के लिए वायसराय को राजी किया. हालांकि कृपलानी जी को संदेश को मिल ही गया था. कृपलानी जी को लग गया कि इस पद पर मेरे बने रहने का कोई मतलब नहीं है. आगे के कांग्रेस अध्यक्षों के लिए भी एक नसीहत साबित हुई थी.

याद रहे कि आजादी से पहले कांग्रेस अध्यक्ष का इतना अधिक महत्व था कि उस पद का नाम ‘राष्ट्रपति’ रखा गया था. गांधी के बाद कांग्रेस में पार्टी अध्यक्ष पद का सर्वाधिक महत्व था. इसीलिए जब महात्मा गांधी की इच्छा के खिलाफ सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष चुन लिए गए तो बड़े नेताओं ने बोस को इस्तीफा दे देने के लिए बाध्य कर दिया था.

दरअसल कृपलानी को इस्तीफा देने की परिस्थिति पैदा करके जवाहर लाल नेहरू यह बताना चाहते थे कि देश में सबसे महत्वपूर्ण पद प्रधानमंत्री का ही है न कि कांग्रेस अध्यक्ष का. वे बताने में सफल भी हुए.

उससे अनेक लोगों की गलतफहमी दूर हुई. जे.बी कृपलानी और जवाहर लाल नेहरू के विचार तनिक भी नहीं मिलते थे. पर इस वैचारिक संघर्ष में विचारधारा की जगह पद की ताकत की बात अधिक महत्वपूर्ण थी. साथ ही, संवैधानिक प्रावधानों की रक्षा का भी सवाल था. व्यक्तिगत संबंधों को लेकर नेहरू जी संवेदनशील थे.

कृपलानी जी जब निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लोकसभा का उप चुनाव लड़ रहे थे तो नेहरू जी ने उनके खिलाफ कांग्रेस का उम्मीदवार नहीं देने दिया. एक बार लोकसभा में बिहार के एक मुंहफट कांग्रेसी सांसद ने कृपलानी जी को सी.आई.ए. का एजेंट कह दिया. इस कारण कृपलानी जी को भारी सदमा लगा. वे बीमार हो गए. उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. प्रधानमंत्री अस्पताल उन्हें देखने गए. अस्पताल से लौट कर प्रधानमंत्री ने उस सांसद को बुलाया.

सांसद ने समझा कि पंडित जी खुश होकर उन्हें मंत्री बनाने के लिए बुला रहे हैं. सुबह-सुबह सज-धज कर सांसद महोदय तीन मूर्ति भवन पहुंचे. नेहरू जी एक बड़े आईने के सामने खड़ होकर दाढ़ी बना रहे थे.

आईने में सांसद को देखते ही नेहरू जी तेजी से पलटे और लगे डांटने. उसके बाद काफी दिनों तक सांसद महोदय प्रधानमंत्री के सामने आने से बचते रहे.