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चंद्रशेखर आजाद: 14 साल के लड़के के गांधीवादी से क्रांतिकारी बनने की कहानी

ब्रितानी पुलिस में इतना भी साहस न था कि वह आजाद के मृत शरीर के पास भी जा सकें. वह दूर से ही आजाद के मृत शरीर पर गोली बरसा रहे थे

Nitesh Ojha

मध्य प्रदेश के झाबुआ तहसील के भावरा गांव में पं.सीताराम तिवारी के घर पैदा हुआ चंद्रशेखर ज्यादा दिन तक यहां टिका नहीं. बहुत छोटी सी उम्र में क्रांतिकारियों के गढ़ काशी में संस्कृत पढ़ने गए इस बालक का पढ़ाई में कहां मन लगता था. उसका मन तो गांधी के चलाए जा रहे असहयोग आंदोलन में था.

बेंत की वार पर आजाद के मुंह से निकला 'गांधी जी की जय'


असहयोग आंदोलन के दौरान पकड़े गए इस बालक को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया तो उसने नाम पूछा. जवाब आया 'आजाद'. 14 साल के लड़के के इस बेरुखे व्यवहार से चिढ़ कर सजा का प्रावधान न होने पर भी मजिस्ट्रेट ने आजाद को 15 बेंत मारने की सजा सुना दी. मुस्कुराहट के साथ बेंत की हर मार पर खाल खींच लेने वाले प्रहार के बावजूद उनके मुंह से निकल रहा था, 'गांधी जी की जय' और 'वंदे मातरम' का नारा.

बस यहीं से शुरू हुआ आजाद का गांधीवादी से क्रांतिकारी बनने का सफर. इस सफर में आजाद ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के एक सिपाही के रूप में काकोरी में ट्रेन लूटी तो इसी आर्मी का कमांडर बन लाहौर में सांडर्स की हत्या भी की. लेकिन मजाल के किसी अंग्रेज में इतनी ताकत के उन्हें पकड़ कर जेल में डाल सके.

क्रांति के दीवाने आजाद बोले मां-बाप की सेवा एक-एक गोली कर देगी

आजादी के इस दीवाने का क्रांति और भारत माता के प्रति प्रेम एक घटना किताबों में मिलती है. एक बार आजाद के माता पिता के लिए किसी ने कुछ सौ रुपए दिए थे. पार्टी को पैसों की जरूरत पड़ने पर आजाद ने वह पैसे दे दिए. जब किसी ने उनसे कहा कि हम यह पैसे नहीं ले सकते ये तो आपके माता पिता के लिए हैं. तो इस पर आजाद बोले 'बेकार भावकुता की बातें न करो, बुड्ढे-बुढ़िया के लिए दो-दो आने की एक-एक गोली काफी होगी, पार्टी को रुपए की सख्त जरूरत है.'

आजाद के साथी जयदेव ने लगाया वीरभद्र पर मुखबरी का आरोप

अंतिम दिन 27 मार्च 1931 को एल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों के साथ लड़ते वक्त आजाद के साथ सुखदेव राज मौजूद थे. उन्हीं से मिलने आजाद एल्फ्रेड पार्क गए थे. इस बात की पुष्टि आजाद के साथ पार्क के गेट तक आने वाले यशपाल और सुरेंद्र पांडे ने की. सुखदेव राज के मुताबिक आजाद अक्सर मिलने के लिए उन्हें एल्फ्रेड पार्क में बुलाते थे. उन्होंने आजाद की मुखबरी का आरोप वीरभद्र पर लगाया. वीरभद्र सेंट्रल कमेटी के सदस्य थे, जिन पर अंग्रेजों के साथ मिलने के आरोप लगे थे. सुखदेव राज ने बताया था कि आखिरी मुलाकात के दौरान भी आजाद ने एल्फ्रेड पार्क के पास वीरभद्र को देखा था.

दो गोली लगने के बाद भी आजाद का निशाना अचूक था

सुखदेव राज ने अपनी किताब में बताया है कि जब वह दोनों पार्क में घूम रहे थे तब अचानक से अंग्रेज अफसर नॉट बावर और दो सिपाही सामने आ धमके. उन्होंने पूछताछ की तो गोलीबारी शुरू हो गई. नॉट बावर की एक गोली आजाद की जांघ में लगी और एक गोली उनके कंधे में लग गई. उसके बाद आजाद की बंदूक गरजी और उससे निकली गोली का निशाना इतना सटीक था कि बावर के हाथ से बंदूक गिर गई और उसकी कलाई टूट गई. जिसके बाद वह एक पेड़ के पीछे छिप गया. आजाद और सुखदेव राज भी नजदीक के एक जामुन के पेड़ के पीछे छिप गए.

नॉट बावर द्वारा एक पत्रकार वार्ता में उसने खुद कहा था कि उसकी कलाई में गोली लगने के बाद सभी पुलिस कर्मी पास के एक नाले में कूद गए और वहां से गोलीबारी करने लगे. पेड़ की आड़ में छिपे आजाद ने सुखदेव राज को चले जाने को कहा.

एल्फ्रेड पार्क में मौजूद खुफिया पुलिस के डिप्टी सुपरिंटेंडेंट ठाकुर विश्वेश्वर सिंह भी पार्क में मौजूद थे. आजाद इतने संतुलित थे कि उन्होंने झाड़ियों में से झांक रहे विश्वेश्वर के जबड़े पर निशाना साधा. और लहुलहान विश्वेश्वर कुछ बोलने लायक भी न बचा. काल को इतना करीब देख कर भी आजाद संतुलित थे. जबकि पुलिस वाले अपना मानसिक संतुलन खो कर अंधाधुंध गोलीबारी कर रहे थे.

इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस पेड़ के पीछे ब्रितानी अफसर नॉट बाबर छिपा था उस पर महज 6 फीट तक ही गोलियों के निशान थे. जबकि जिस जामुन के पेड़ के पीछे से आजाद गोली बरसा रहे थे उस पर अंग्रेजों की गोलियों के निशान 10-12 फीट तक पाए गए थे.

हालांकि आजाद को लगी गोलियां अपना असर दिखाने लगीं थी. ऐसे में आजाद ने अंग्रेजों की गिरफ्त में आने से बेहतर वीर गति को प्राप्त हो जाना समझा. आजाद ने गोलियां कम पड़ जाने पर अपनी जेब से आखिरी गोली निकाल खुद को मार ली. और इस तरह 27 फरवरी 1931 को क्रांति का दीवाना भारत माता का दुलारा चंद्रशेखर आजाद वीरगति को प्राप्त हो गया.

ब्रितानी पुलिस में इतना भी साहस न था कि वह आजाद के मृत शरीर के पास भी जा सकें. वह दूर से ही आजाद के मृत शरीर पर गोली बरसा रहे थे. आजाद की इस जाबांजी से नॉट बावर इतना प्रेरित हो गया था कि उनकी पिस्तौल को जिसे आजाद 'बमतुल बुखारा' कहते थे को अपने साथ ले गया था. जिसे आजादी के बाद बापस भारत लाया गया. इलाहाबाद के एल्फ्रेड पार्क में घटना के वक्त मौजूद लोगों ने कई किताबों के जरिए बताया है कि खुद नॉट बावर ने अपनी टोपी उतार कर आजाद के शव को सलामी दी थी.