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गालियों की कांट-छांट को लेकर अपना नजरिया बदलेगा सेंसर बोर्ड!

हिंदी सिनेमा में जिस तरह से कहानियां छोटे शहरों की तरफ मुड़ रही हैं भाषा को लेकर अप्रोच में बदलाव आना ही चाहिए

Animesh Mukharjee

पिछले कुछ समय में हिंदी सिनेमा में कई बदलाव देखने को मिले. एक तरफ छोटे शहर और उनकी कहानियां सिनेमा में प्रमुखता से आए. दूसरी तरफ सेंसर बोर्ड अपने कई फैसलों के चलते चर्चा में रहा. पहलाज निलहानी के जाने के बाद प्रसून जोशी सीबीएफसी के नए चेयरमैन बने. जिसके बाद लोगों को उम्मीद है कि सेंसर बोर्ड के रवैये में सुधार आएगा.

हिंदी अखबार दैनिक जागरण के लखनऊ में 3 से 5 नवंबर तक हो रहे कार्यक्रम जागरण संवादी में इन दोनों विषयों पर चर्चा हुई. सीबीएफसी की सदस्य वाणी त्रिपाठी, गैंग्स ऑफ वासेपुर के अभिनेता विनीत कुमार और पंकज त्रिपाठी, जागरण के पूर्वपत्रकार अजय ब्रह्मात्मज और कहानी फिल्म की लेखिका अद्वैता काला की बातचीत में फ़र्स्टपोस्ट ने भी कुछ सवाल पूछें.


वाणी त्रिपाठी सीबीएफसी में लगातार दूसरी बार सदस्य बनी हैं. सिनेमा में बढ़ती सेंसरशिप और कई शब्दों पर प्रतिबंध लगाने को वो निजी तौर पर सही नहीं मानती हैं. वाणी का कहना था कि वो यहां सीबीएफसी के सदस्य के तौर पर नहीं, एक आम रंग कर्मी के तौर पर कह रही हैं कि कई बार हिंसा, खराब भाषा या ऐसी ही किसी चीज़ को दिखाना नैसर्गिक होता है. ऐसे में इस पर रोक या प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है.

हां, ऐसे कंटेंट को उम्र के हिसाब से अलग किया जाना ही चाहिए. उदाहरण के लिए किसी छोटे शहर के गैंगस्टर के मुंह से निकलने वाली गालियां नैसर्गिक हैं. जबतक वो नहीं निकलेगी तब तक पूरा परिवेश बनावटी लगता रहेगा. वाणी का कहना था कि नए अध्यक्ष प्रसून जोशी और सीबीएफसी में विद्या बालन के जुड़ने के बाद निश्चित ही सामाजिक सरोकारों के संदर्भ को ध्यान में रखकर सर्टिफिकेशन किया जाएगा.

सेंसर बोर्ड के नए चेयरमैन प्रसून जोशी

हालांकि हमारी फिल्मों में अचानक आए इस बदलाव के पीछे एक मुख्य कारण है कि हमारे सिनेमा की कहानियों का परिवेश बदल रहा है. एक समय में हिंदी सिनेमा में शहर या गांव हमारी कहानियों का हिस्सा नहीं होते थे. अगर होते भी थे वो निरा बनावटी होता था. गांव में नायिका का रहना मतलब घाघरा चोली पहनकर पनघट पर जाना था. जबकि हिंदुस्तान के अधिकतर गांवों में ऐसा नहीं होता है.

छोटे शहरों से ज्यादा मध्यवर्ग की कहानियां

समय के साथ ये परिवेश बदला है. गैंग्स ऑफ वासेपुर, पान सिंह तोमर, कहानी, विकी डोनर जैसी फिल्में न सिर्फ सिनेमा के तय खांचे के बाहर जाती हैं बल्कि इन सारी कहानियों में शहर एक किरदार के तौर पर मौजूद रहता है. अगर हम थोड़ा और ध्यान से देखें तो पाएंगे कि सिनेमा की ये कहानियां दरअसल छोटे शहरों से ज्यादा मध्यवर्ग की कहानियां हैं. इन फिल्मों की लिखावट ऐसी है कि शहर की परतें अपने आप कहानी का एक हिस्सा बन जाती हैं.

कहानी फिल्म के अपने अनुभवों को साझा करते हुआ हुए अद्वैता कहती हैं कि कलकत्ता एक बड़ा शहर है. मगर रवींद्रनाथ की विरासत, कम्युनिस्ट पार्टी के यूनियन के इतिहास और ऐसी तमाम बातों के चलते उसमें कई परतें जुड़ जाती हैं. ये सबकुछ किसी और शहर में होना संभव नहीं था.

अद्वैता की ही बात को आगे बढ़ाएं तो देख सकते हैं कि फिल्म विकी डोनर में दिल्ली के दो बिलकुल अलग हिस्सों के जरिए फिल्म की कहानी को एक अलग रूप में दिखाया गया है. पंजाबी रिफ्यूजियों की कॉलोनी लाजपतनगर और करोलबाग के नायक, बंगाली परिवेश के चितरंजन पार्क की नायिका कहानी में बहुत कुछ जोड़ देती है. इसी तरह रांझणा और तनु वेड्स मनु जैसी फिल्मों में बनारस और कानपुर का होना फिल्म की लोकप्रियका का बड़ा कारण है. या कहें कि न्यूटन की कहानी दंडकारण्य में न होकर कानपुर में होती तो फिल्म का मिजाज बिलकुल अलग होता.

ऐसा भी नहीं है कि छोटे शहर के नाम पर बन रही हर फिल्म में शहर का होना जरूरी हो. उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्य अपने यहां शूटिंग करने पर छूट देते हैं. छोटे शहरों में शूटिंग करना सस्ता भी पड़ता है. तो कई बार किसी भी कहानी को किसी छोटे शहर में शिफ्ट कर दिया जाता है. हाल में आई आमिर खान, जायरा वसीम की फिल्म सीक्रेट सुपरस्टार कहने को वडोदरा में सेट है. अगर ये कहानी वृंदावन में होती तो भी सिनेमा पर कोई फर्क नहीं पड़ता. बहन होगी तेरी जैसी फिल्म में कहानी लखनऊ में है मगर नायिका का पड़ोसी हरयाणवी बोलने वाला जाट है. जाहिर है कि दिल्ली के परिवेश को ध्यान में रखकर बुने गए किरदारों को लखनऊ में शिफ्ट किया गया है.

क्या कर रहे हैं दूसरे सितारे

रामगोपाल वर्मा और अनुराग कश्यप के सिनेमा के साथ फिल्मों में लोकप्रिय हुए सितारों ने अपनी अदाकारी के जरिए लोकप्रियता हासिल की है. मगर बड़े-बड़े फिल्मी खानदानों में पैदा हुए स्टार किड्स इस बदलते दौर में क्या कर सकते हैं. इसका जवाब है 90 के दशक को भुनाना या रीमेक पर भरोसा रखना. 90 का सिनेमा शहर और कहानी के बोझ से मुक्त था.

आज वरुण धवन, सोनम कपूर जैसे अभिनेताओं का जुड़वां और खूबसूरत जैसी फिल्मों में काम करना हिट होने का सरल उपाय है. इसीलिए आप देखेंगे कि ये अभिनेता ऐसी ही फ्रेंचाइज़ी या रीमेक वाली फिल्मों में दिखते हैं. जो सिनेमा में याद रखने लायक कुछ भी न देती हों मगर 100 करोड़ के मानक को छू लेने के चलते बाज़ार में अपनी जगह बनाए रखती हैं.

हिंदी सिनेमा में हर नई चीज़ के सफल होते ही उसे घिस जाने तक दोहराने की प्रवत्ति रही है. डाकू, स्विटज़रलैंड, भगत सिंह तक को अझेल हो जाने तक दोहराया गया. उम्मीद है कि ये सकरात्मक चलन इस प्रक्रिया से बचा रहेगा.