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हिंदी लेखक सत्य व्यास की नई किताब '84', बोकारो की कहानी, बोकारो की जुबानी

हिंदी लेखक सत्य व्यास की नई किताब 84 का एक अंश पढ़िए यहां

FP Staff

किताब का नामः चौरासी

लेखकः सत्य व्यास


प्रकाशकः हिंद युग्म

उपन्यास, पेपरबैक, पृष्ठः 160, मूल्यः रु. 125

अमेजॉन से 11 अक्टूबर 2018 तक या उससे पहले प्रीबुक करने वाले 500 भाग्यशाली पाठकों को स्टोरीटेल की तरफ से रु. 299 का गिफ़्ट कार्ड फ्री. किंडल पर किताब का प्रीव्यू एडिशन बिलकुल फ्री.

किताब के अंशः

कहानियों को गंभीर और अलग बनाने के बहुत सारे तरीक़े हो सकते हैं. एक तरीक़ा तो यह है कि कहानी कहीं बीच के अध्याय से शुरू कर दी जाए. आप आठवें-नवें पन्ने पर जाएं तो आपको कहानी का सूत्र मिले. आप विशद पाठक हुए तो आगे बढ़े वर्ना चौथे-पांचवें पन्ने पर ही कहानी दूर और किताब दराज़ में चली जाए.

मैं ऐसा नहीं करूंगा. इसके चार कारण हैं. पहला तो यह कि मैं चाहता हूँ कि आप यह कहानी पढ़ें, दराज़ में न सजाएं.

दूसरा यह कि मैं क़िस्सागो नहीं हूं. सो, वैसी लफ्फ़ाज़ियां मुझे नहीं आतीं. मैं एक शहर हूं जो उसी ज़बान और उसी शैली में कहानी सुना पाएगा जो ज़बान उसके लोगों ने उसे सिखाई है.

तीसरा यह कि प्रेम स्वयं ही पेचीदा विषय है. तिस पर प्रेम कहानी डेढ़ पेचीदा. प्रेम की गूढ़ और कूट बातें ऐसी कि यदि एक भी सिरा छूट जाए या समझ न आए तो मानी ही बदल जाए.

और आख़िरी कारण यह कि इस कहानी के किरदार ख़ुद ही ऐसा चाहते हैं कि उन्हें सादा दिली से पढ़ा जाए. इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि इसे सादा ज़बान लिखा भी जाए.

किरदार के नाम पर भी कहानी में कुल जमा चार लोग ही हैं. यहां यह बताना भी ज़रूरी समझता हूं कि कहानी जितनी ही सरल है, किरदार उतने ही जटिल. अब मुख्य किरदार ऋषि को ही लें. ऋषि जो कि पहला किरदार है. 23 साल का लड़का है. बचपन में ही मां सांप काटने से मर गई और दो साल पहले पिता बोकारो स्टील प्लांट में तार काटने में ज़ाया हो गए. अपने पीछे ऋषि के लिए एक मोटरसाइकिल और एलआईसी के कुछ काग़ज़ छोड़ गए. ऋषि ने काग़ज़ फेंक दिया और मोटरसाइकिल रख ली.

पिछले दो सालों से बिला नागा बोकारो स्टील प्लांट के प्रशासनिक भवन के बाहर पिता की जगह अनुकंपा पर नौकरी के लिए धरने पर बैठता है. मेधावी है तो बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर ख़र्च निकाल लेता है. मुहल्ले के सारे काम में अग्रणी है. आप कोशिश करके भी किसी काम से थक गए हैं तो ऋषि ही उसका इलाज है. मोटर, बिजली बिल, चालान, जलावन की लकड़ी, कोयला, मिट्टी-तेल, बिजली-मिस्त्री, राजमिस्त्री इत्यादि सबका पता सबका समाधान ऋषि के पास है.

आप सोच रहे होंगे कि इतना अच्छा तो लड़का है. सरल, सीधा, मेधावी और कामकाजी. फिर मैंने इसे पेचीदा क्यों कहा? क्योंकि उसका यह चेहरा बस मोहल्ले के मोड़ तक ही है. मोड़ से निकलते ही ऋषि उच्छृंखल है. उन्मुक्त है. निर्बाध है. उद्दंड है. प्रशासनिक भवन पर धरने के वक़्त बाहर निकलते अधिकारियों को जब घेर लेता है तब रोबीली आवाज़ का यह मालिक उन्हें मिमियाने पर मजबूर कर देता है. धरने-प्रदर्शन के कारण ही स्थानीय नेता से निकटता भी हासिल है जिसका ज़ोम न चाहते हुए भी अब उसके चरित्र का हिस्सा है. वह पल में तोला और पल में माशा है. मगर इन सबके उलट बाहर महज़ आंखें तरेरकर बात समझा देने वाले ऋषि को अपने मोहल्ले में, अपनी गलियों में भूगर्भ विज्ञानी का नाम दिया गया है; क्योंकि अपने मोहल्ले में वह ज़मीन से नज़रें ही नहीं उठाता. व्यवहार का यही अंतर्विरोध ऋषि को पेचीदा बनाता है.

दूसरे किरदार छाबड़ा साहब हैं. छाबड़ा साहब सिख हैं. पिता की ओर से अमृतधारी सिख और माता की ओर से पंजाबी हिंदू. अपने घर में सबसे पढ़े-लिखे भी. मसालों का ख़ानदानी व्यवसाय था मोगा में. अगर भाइयों से खटपट नहीं हुई होती तो कौन आना चाहता है इन पठारों में अपना हरियाला पिंड छोड़कर! अपने गांव, अपने लोग छोड़कर! ब्याह औरतों से आंगन छीनता है और व्यापार मर्दों से गांव. बहरहाल, कर्मठ इंसान को क्या देश क्या परदेस! वह हर जगह ज़मीन बना लेता है.

बोकारो शहर के बसते-बसते ही छाबड़ा साहब ने अवसर भांप लिया था और यहां चले आए. थोड़ी बहुत जान-पहचान से कैंटीन का काम मिल गया. पहले काम जमाया फिर भरोसा. काम अच्छा चल पड़ा तो एक बना-बनाया घर ही ख़रीद लिया. ऋषि ने इनके कुछ अटके हुए पैसे निकलवा दिए थे; इसलिए ऋषि को जब कमरे की ज़रूरत पड़ी तो छाबड़ा साहब ने अपना नीचे का स्टोरनुमा कमरा उसे रहने को दे दिया. बस शर्त यह रखी कि किराए में देर-सबेर भले हो जाए; घर सराय न होने पाए. अर्थात् बैठकबाजी और शराबनोशी बर्दाश्त नहीं की जाएगी. उन्होंने अपने घर के एक कमरे में गुरुग्रंथ साहब जी का ‘परकाश’ भी कराया. बाद में गांव से पत्नी को भी ले आए. उनकी बेटी मनु हालांकि तब गांव में ही थी. वह एक साल बाद आई.

एक साल बाद आई ‘मनु’ ही इस कहानी की धुरी है. मनजीत छाबड़ा. मनु जो मुहल्ले में रूप-रंग का पैमाना है. मुहल्ले में रंग दो ही तरह का होता है- मनु से कम या मनु से ज़्यादा. आंखें भी दो तरह की- मनु से बड़ी या मनु से छोटी. मुस्कुराहट मगर एक तरह की ही होती है- मनु जैसी प्यारी. ‘आए बड़े’ उसका तकिया-कलाम है जिसके ज़रिए वह स्वतः ही सामने वाले को अपने स्तर पर ले आती है. भोली इतनी कि रास्ते में मरे जानवर की दुर्गंध पर छाबड़ा साहब अगर सांस बंद करने को कहें तो तबतक नहीं खोलती जबतक वह सांस छोड़ने को न कह दें. बी.ए. प्रथम वर्ष की छात्रा है और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी सिर्फ़ इस भरोसे से करती है कि एक दिन ऋषि उसे भी पढ़ाएगा. ऋषि एक-दो बार इसके लिए यह कहकर मना कर चुका है कि वह स्कूल के बच्चों को पढ़ाता है, कॉलेज के बच्चों को नहीं.

चौथा और सबसे महत्वपूर्ण किरदार यह साल है, 1984. साल जो कि दस्तावेज़ है. साल जो मेरी छाती पर किसी शिलालेख की भांति खुदा है. मैं न भी चाहूं तो भी तारीख़ मुझे इसी साल की बदौलत ही याद करेगी; यह मैं जानता हूं.

बाक़ी, इसके अलावा जो भी नाम इस किताब में आएं वे महज़ नाम हैं जो कहानी के किसी चरण में ही खो जाने हैं.

अब मेरा परिचय? मैं शहर हूं- बोकारो. मेरे इतिहास में न जाएं तो वक़्त बचेगा. वैसे भी इतिहास तो मैदानी इलाकों का होता है जहां हिंदुकुश की दरारों के बरास्ते परदेशी आते गए और कभी इबारतें तो कभी इमारतें बनाते गए. उनके मुकाबिल हम पठारी, लल-मटियाई ज़मीनों को कौन पूछता है? हमारी कहानियां किसी दोहरे, किसी माहिये या तवारीख़ में भी नहीं आतीं. इसीलिए हम अपनी कहानी ख़ुद ही सुनाने को अभिशप्त हैं.

अभिशप्त यूं कि आज़ादी के 25 साल बाद भी 3 अक्टूबर 1972 को पहला फावड़ा चलने से पहले तक मुझे कौन जानता था! उद्योगों में विकास खोजते इस देश को मेरी सुध आई. देश की प्रधानमंत्री ने मेरी छाती पर पहला फावड़ा चलाया और मैं जंगल से औद्योगिक नगर हो गया. नाम दिया गया- ‘बोकारो इस्पात नगर.’ पहली दफ़ा देश ने मेरा नाम तभी सुना.

मगर दूसरी दफ़ा जब देश ने मेरा नाम सुना तो प्रधानमंत्री की हत्या हो चुकी थी और मैं शर्मसार हो चुका था. मैं आपको अपनी कहानी सुना तो रहा हूं; लेकिन मैंने जानबूझकर कहानी से ख़ुद को अलग कर लिया है. इसके लिए मेरी कोई मजबूरी नहीं है. पूरे होशो-हवास में किया गया फ़ैसला है. बस मैं चाहता हूं कि मुझे और मेरे दुःख को आप ख़ुद ढूंढ़ें और यदि ढूंढ़ पाएं तो समझें कि आप के किए की सज़ा शहर को भुगतनी पड़ती है. तारीख़ किसी शहर को दूसरा मौक़ा नहीं देती.

अब ख़ुद को बीच से हटाता हूं. आप किरदारों के हवाले हुए. बिस्मिल्लाह कहिए!