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जन्मदिन विशेष: क्यों हम सभी को ऋत्विक घटक की फिल्में जरूर देखनी चाहिए?

ऋत्विक घटक कहते थे 'सिनेमा मेरे लिए कोई कलात्मक विधा नहीं है. ये मेरे लोगों की सेवा करने का एक जरिया मात्र है. मैं कोई समाजशास्त्री नहीं हूं और इसलिए ऐसे भ्रम नहीं पालता कि मेरा सिनेमा लोगों को बदल सकता है

Avinash Dwivedi

हम यहां भारत के सबसे दिग्गज फिल्मकारों (दुखद, बहुत से लोग उनके जीवनकाल में ऐसा नहीं मानते थे) में से एक ऋत्विक घटक की बात करने जा रहे हैं. शायद आपने उनकी दो-एक फिल्में देखी हों. या नहीं देखीं हो तो उनके नाम सुने हों.

ऐसा भी हो सकता है कि नाम भी न सुना हो बल्कि आपने ऋत्विक घटक का भी नाम न सुना हो पर ये लेख इसलिए लिखा जा रहा है ताकि आप जाकर उनकी फिल्में देखें. मैं ऐसा इसलिए चाहता हूं क्योंकि वह (ऋत्विक घटक) भी ऐसा ही चाहते थे.


वो फिल्मों से कमाई नहीं करना चाहते थे. बस अपनी फिल्में दिखाना चाहते थे. अधिकतर फिल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं. इस लेख को पढ़ें और जानें क्यों आपको ऋत्विक घटक का सिनेमा देखना चाहिए. एफटीआईआई में डायरेक्शन के लिए चल रहे इंटरव्यू के दौरान मुझसे पूछा गया तुम पत्रकार हो, फिल्में क्यों बनाना चाहते हो?

मैंने जवाब दिया, क्योंकि ये सबसे तेज मास मीडियम हैं. मैं खबरें और साहित्य लिखता हूं. पर मुझे लगता है कि ऑडियंस के लिए फिल्में साहित्य से ज्यादा सघनता से भावों को अभिव्यक्त कर सकती हैं और ज्यादा लोगों तक भी पहुंच सकती हैं. इस पर इंटरव्यूअर मुझसे कुछ देर हल्की-फुल्की बहस में जुटे रहे. मैं जानता था कि वह मेरी बात से इत्तेफाक रखते हैं और कहीं न कहीं जवाब से खुश भी हैं.

हाल ही में मैं ऋत्विक घटक की किताब 'सिनेमा एंड आई' (सिनेमा और मैं) पढ़ते हुए एक जगह अटक गया, जहां उन्होंने लिखा था, 'फिर मैंने महसूस किया कि भले ही साहित्य एक बेहतरीन माध्यम है लेकिन ये लोगों के दिमाग पर धीरे-धीरे असर करता है. कहीं न कहीं मैंने महसूस किया, इसमें एक तरह की कमी है.

यह किसी भी तरह से एक बहुत छोटे पाठकवर्ग तक सीमित और एक ही समय में कम लोगों तक पहुंचाया जा सकता है. गंभीर साहित्य वैसा ही रहेगा, जैसा कि वह है.' एफटीआईआई में सेलेक्शन भले ही नहीं हुआ पर एफटीआईआई को समृद्ध विरासत देने वाले फिल्मकार से अपने विचार का समर्थन पाकर बहुत खुशी हुई.

ऋत्विक घटक आज यूट्यूब चैनल चला रहे होते या वेब सीरीज बना रहे होते

वैसे उस इंटरव्यू में 40 लोगों को बुलाया गया था, जिनमें से 10 का सेलेक्शन होना था. 40 में से 12-13 स्टूडेंट पं. बंगाल, उसमें भी ज्यादातर कोलकाता से थे. उनके साथ बातचीत करते हुए मुझे पता चला कि दूरदर्शन बांग्ला पर सत्यजीत रे की फिल्मों की अच्छी-खासी फ्रीक्वेंसी है जबकि ऋत्विक घटक की फिल्में कभी-कभार दिखाई जाती हैं.

एक छात्र ने इसके पीछे पॉलिटिकल सोच को भी एक कारण बताया. पर एक दूसरे छात्र (जिसका बाद में सलेक्शन भी हो गया) ने घटक के सिनेमा पर एक गजब बात कही. वो बात बताते हैं पर उससे पहले ऋत्विक घटक की वो बात जानिए जिसे आधार बना उस छात्र ने अपनी बात कही थी-

'मैं लोगों के लिए फिल्में बनाता हूं. सर्गेइ आजेंसटाइन और सेवलड पुदोवकिन (दोनों रूसी फिल्मकार हैं) भी ऐसा ही करते थे. हमें सिनेमा को आम लोगों के दिलों तक पहुंचाना है. अगर हम गांवों में वैन लेकर जाएं और सिनेमा दिखाएं तो ये मुमकिन हो जाएगा. बंगाल में औरतें 'जात्रा' (एक तरह की संगीत नाटिका) देखा करती थीं.

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एक वक्त था जब इन नाटकों के जरिए धार्मिक शिक्षा दी जाती थीं. हमें इन नाटकों की कला में महारथ हासिल करने की जरूरत है. अगर हम परिवार नियोजन या सरकारी प्रोपेगेंडा के बारे में फिल्में दिखाएंगे तो कभी भी कलात्मक सिनेमा विकसित नहीं हो सकेगा.

मुझे बताइये, क्या आप स्कूल में कविताएं लिखना सिखा सकते हैं? इस चलती-फिरती वैन के जरिए, सिनेमा केवल लोकप्रिय ही नहीं होगा बल्कि दूर-दूर तक फैलेगा भी. मैंने अपनी फिल्मों में रोजमर्रा के जीवन की आम बातों को दिखाने का प्रयास किया है.'

हां तो एफटीआईआई में मेरे उस मित्र ने कहा था, 'ऋत्विक घटक जिस जुनून के साथ लोगों तक अपनी कला पहुंचाना चाहते थे, अगर वह आज के दौर में होते तो टीवी सीरियल या वेब सीरीज बना रहे होते.

साथ ही उनका मन मुफ्त में अपनी कला को लोगों तक पहुंचाने का करता तो वह यूट्यूब चैनल पर भी जरूर एक्टिव होते.' गौर करें, ये बात घटक के उद्देश्य को समझने के लिए बेहद खास है.

बड़ी सफलता नहीं, उनको सिनेमा के जरिए कुछ कहना था 

ऋत्विक घटक को फिल्मों में सबसे बड़ी कॉमर्शियल कामयाबी फिल्म मधुमती (1958) से मिली थी. वे इस फिल्म के लेखक थे. मधुमती को बिमल रॉय ने निर्देशित किया था. इसमें दिलीप कुमार, वैजयंतीमाला, प्राण और जॉनी वॉकर ने अभिनय किया था.

कहा जाता है मधुमती भारत में पुनर्जन्म पर बनी फिल्मों में एक अलग ही स्थान रखती है और पुनर्जन्म पर बनी दूसरी फिल्में जैसे, कर्ज़ (1980) और ओम शांति ओम(2007) इससे ही प्रभावित थीं.

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पर ऐसी कॉमर्शियल सफलता के बावजूद चूंकि घटक सिनेमा को 'सामाजिक बदलाव का एक उपकरण' मानते थे इसलिए उनका मुंबई में दिल नहीं लगा और वह अपने मन की फिल्में बनाने कलकत्ता चले गए.

वह शायद पहले थे जो मुंबई में बदलाव वाले सिनेमा की खोज में आए और असंतुष्ट होकर सार्थक सिनेमा खोजने निकल गए पर ऐसा ही बदलाव बाद के कई दूसरे कलाकारों में भी देखा गया है.

'क्योंकि सास की कभी बहू थी' और 'कहानी घर-घर की' जैसे नाटक लिखने वाले आनंद गांधी ने भी बाद में 'शिप ऑफ थीसियस' जैसी फिल्म बनाई और हाल ही में बहुत संघर्ष के बाद उनकी फिल्म 'एन इनसिग्निफिकेंट मैन' रिलीज हो रही है. फिल्मों के बारे में दीवानगी की हद तक सोचने वाले ऋत्विक घटक ने कहा है- 'फिल्म देखने जाना भी एक तरह का संस्कार है. जब बत्तियां बुझ जाती है, परदे जिंदा हो जाते हैं. तो सब दर्शक एक हो जाते हैं. ये एक समुदाय वाली भावना हो जाती है. हम इसकी तुलना चर्च, मस्जिद या मंदिर जाने से कर सकते हैं.'

बेहतरीन फिल्मों के साथ ही देश को बेहतरीन फिल्मकार दे गए 

देश के सबसे काबिल डायरेक्टर्स जिनकी बहुत सराहना होती है, घटक के स्टूडेंट्स रहे हैं बल्कि कहना चाहिए कि एफटीआईआई के डायरेक्टर रहने के दौरान ऋत्विक घटक ने जिस विरासत का निर्माण किया वो उनके बाद से आज तक चली आती है.

भारत के कई प्रमुख फिल्मकार जैसे सईद अख्तर मिर्जा, अदूर गोपालाकृष्णन, गिरीश कसारावल्ली, जॉन अब्राहम (मलयाली फिल्ममेकर), जानू बरुआ, कुमार साहनी, मणि कौल, केतन मेहता, मीरा नायर जैसे कला फिल्म निर्माताओं से लेकर सुभाष घई, अनुराग बसु और संजय लीला भंसाली जैसे मेनस्ट्रीम डायरेक्टर्स को भी घटक ने प्रभावित किया है.

इंटरनेट ने घटक की फिल्मों को नया आकाश दिया है 

घटक को गुजरे चार दशक हो चुके हैं. अब घटक की फिल्मों को अद्वितीय माना जाता है. जबकि उनके जीवनकाल में उनकी ज्यादातर फिल्मों को दर्शकों ने नकार दिया था. उनकी सारी फिल्मों में बस 'मेघे ढाका तारा' को लोगों ने हाथों-हाथ लिया. पर इंटरनेट से कला के विस्तार के दौर में जब दुनिया के सामने घटक का सिनेमा आया तो भारत में ही नहीं, दुनिया भर में घटक की तुलना 'सत्यजित रे' से होने लगी.

वैसे एक तथ्य ये भी है कि सत्यजित रे के 'पाथेर पांचाली' (1955) बनाने से तीन साल पहले ही ऋत्विक घटक, नागरिक (1952) बना चुके थे. जो भारत में 1977 में रिलीज हो सकी. सत्यजित रे भी घटक की तारीफ करते नहीं थकते थे. घटक की किताब 'सिनेमा और मैं' की भूमिका भी सत्यजित रे ने ही लिखी है. घटक भी सत्यजित रे के सिनेमा की तारीफ करते थे. खुद अपने सिनेमा के बारे में घटक कहते हैं-

'मेरी पहली फिल्म (अजांत्रिक,1958, वैसे दूसरी) को अठारहवीं शताब्दी के स्पेनिश नॉवेल Gil Blas de Santillane की तर्ज पर बनी पिकारेस्क (कथा-विधा, जिनमें नायकों का किरदार बदमाश पर लुभावना हुआ करता था) फिल्म कहा गया. दूसरी (बारी ठेक पाले,1958) के बारे में कहा गया कि इसकी अप्रोच डॉक्यूमेंट्री फिल्म जैसी है.

अगली फिल्म (मेघे ढाका तारा,1960) को मेलोड्रामा कहा गया. चौथी (कोमल गांधार,1961) को लेकर कहा गया कि ये तो कुछ भी नहीं थी, फिल्म तो बिल्कुल भी नहीं. मेरे दिमाग में ये है कि मैं अभी तलाश ही रहा हूं. तलाश रहा हूं कि किसी थीम के लिए सबसे ठीक अभिव्यक्ति कौन सी मौजूद है, जिसे पा लूं. कभी शायद मैंने ऐसा कर दिया है और कभी शायद दिशा छूट गई होगी.'

फिल्ममेकिंग के व्याकरण को नई कलात्मकता दी 

7 फरवरी, 1976 को कलकत्ता में ऋत्विक घटक की मौत हो गई. करीब तीन महीने पहले ही उन्होंने अपना 50वां जन्मदिन मनाया था. उनकी अंतिम यात्रा में हजारों की संख्या में कलकत्ता वाले और कई कलाकार शामिल हुए. ये लोग घटक का पसंदीदा गीत गा रहे थे. थियेटर कलाकार सफदर हाशमी ने इसे एक अनोखे इंसान की अनोखी अंतिम यात्रा कहा था.

ऋत्विक घटक की फिल्में सामाजिक और सांस्कृतिक बंटवारे को दर्शाने की अद्भुत क्षमता रखती हैं. कुछ साल पहले उनके जीवन और संघर्ष पर बनी फिल्म भी रिलीज हुई थी. हालांकि दर्शकों और फिल्म आलोचकों दोनों ने ही उसे नकार दिया.

साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरष्कृत बंगाली लेखक नबारुन भट्टाचार्या के शब्दों में, 'घटक एक अराजकतावादी थे. फिर भी वो भारतीय सिनेमा की सबसे विश्वसनीय आवाज हैं. उनकी फिल्मों में फिल्ममेकिंग के औपचारिक व्याकरण की कमी होने के बावजूद भी वे आज बहुत ही प्रासंगिक बनी हुई हैं."

नबारुन भट्टाचार्या घटक के करीबी रहे थियेटर एक्टिविस्ट बिजोन भट्टाचार्या और लेखिका महाश्वेता देवी के बेटे हैं. महाश्वेता देवी, ऋत्विक घटक की भतीजी थीं.

बंगाल में तो ये भी कहा जाता है कि ऋत्विक घटक सिनेमा में न आए होते तो दूसरे बिजोन भट्टाचार्या बनते. घटक केवल एक फिल्मकार नहीं थे. वो लेखक, कवि और नाटककार भी थे. साथ ही ऋटक ने प्रगतिशीलता के अंधेपन में परंपरा का हाथ कभी नहीं छोड़ा.

'एक कवि सब कलाकारों का आदिस्वरूप होता है. कविता सब कलाओं की कला है.' कहने वाले घटक की कलाओं के प्रति कितनी गहरी समझ थी इसका अंदाजा उनकी इस बात से लगाइए, साथ ही घटक का सिनेमा देखने का निश्चय कीजिए-

'सिनेमा मेरे लिए कोई कलात्मक विधा नहीं है. ये मेरे लोगों की सेवा करने का एक जरिया मात्र है. मैं कोई समाजशास्त्री नहीं हूं और इसलिए ऐसे भ्रम नहीं पालता कि मेरा सिनेमा लोगों को बदल सकता है.

कोई एक फिल्ममेकर लोगों को नहीं बदल सकता है. लोग बहुत विशाल हैं और वे अपने आप को खुद बदल रहे हैं. मैं चीजें नहीं बदल रहा हूं, जो भी बड़े बदलाव हो रहे हैं, मैं सिर्फ उन्हें दर्ज कर रहा हूं.'

चलते-चलते

घटक हमेशा अपने में डूबे रहते थे. सोचते रहते थे. नहाना, खाना छूट जाता था. बीड़ी, शराब की बुरी लत थी. घर का सामान तक बिक गया था. इन सबके चलते पत्नी ने तलाक दे दिया था. तीन बच्चे थे, अलग रहने लगे थे. कुछ दिन घटक ने एक मानसिक अस्पताल में भी गुजारे थे.

पर उनकी कला साधना के सामने इन कमियों का उतना ही महत्व है, जितना महात्मा गांधी के सत्य, अहिंसा और सत्यागह के लिए प्रयास के सामने उनके ब्रह्मचर्य के अटपटे प्रयोगों का.