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जन्मदिन विशेष: प्रणब दा को समझना जिंदगी की डॉक्टरेट से कम नहीं

प्रणब दा के सामने ऐसे कई मौके आए थे जब वे मौजूदा सरकार को परेशानी में डाल कर खुद लाइमलाइट में आ सकते थे

Vijai Trivedi

अपने बचपन में राष्ट्रपति भवन के घोड़ों को देखकर आकर्षित होने वाले पोल्टू यानी देश के 13वें राष्ट्रपति रहे प्रणब मुखर्जी का काफिला जब संसद भवन से विदाई के बाद लौट रहा था तब उन घोड़ों की पदचाप के बीच विचारमग्न प्रणब दा ने बीते चालीस साल के अपने राजनीतिक जीवन के कई गहरे फुटप्रिंट आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ दिए थे.

कोई समझना चाहे तो उसमें लोकतंत्र में भरोसा, हार से आगे निकलने का विश्वास,सबको साथ लेकर चलने की ताकत, विरोधियों के साथ भी मिठास और जब आगे बढ़ने के लिए जरूरी हो तो यू-टर्न लेने में भी झिझक नहीं होना शामिल है.


22 जुलाई 1969 से 24 जुलाई 2017 राजनीति के खुरदरे पिच पर सबसे लंबा टैस्ट मैच खेलना और उसमें जीत हासिल करना,हार कर भी डटे रहना और फिर अगली जीत की तैयारी करना, इतने चैप्टर हैं प्रणब दा की जिंदगी के, कि उन्हें पढ़ना और समझना, जिंदगी की डॉक्टरेट से कम नहीं है.

यह भी तो एक खूबी है 

कुछ लोग कह सकते हैं कि प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति के तौर पर कुछ ऐसा ऐतिहासिक नहीं किया कि जिसे आने वाली पीढ़ियां याद रख सकें,लेकिन दो विरोधी विचारधाराओं की सरकारों और प्रधानमंत्रियों के साथ बिना हिचकोले के काम करना भी देश को आगे बढ़ाने में मदद करता है.

डा मनमोहन सिंह के बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उन्होंने तीन साल काम किया और कई मौके आए थे जब वे मौजूदा सरकार को परेशानी में डाल कर खुद लाइमलाईट में आ सकते थे, लेकिन उन्होंनें हमेशा बीच का रास्ता निकाल कर काम चला लिया.

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जाते-जाते जब प्रणब मुखर्जी ने सरकार को हिदायत दी कि उसे अध्यादेश लाने से बचना चाहिए और संसद की बहस से निकल कर आगे बढ़ना चाहिए तो वे भूमि सुधार अध्यादेश या शत्रु संपत्ति के अध्यादेश पर सरकार के रास्ते को रोक सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.

राजनीतिक तौर पर कांग्रेस के साथ रहे प्रणब मुखर्जी से शायद कांग्रेस को उम्मीद रही होगी कि वे हिंदुत्ववादी माने जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए आसान साबित नहीं होंगें,लेकिन इससे उलट मोदी ने कहा कि प्रणब मुखर्जी ने मेरे साथ पिता जैसा व्यवहार किया.

पीएम न बनने की कसक 

सात बार देश का बजट पेश करने वाले और उदारीकरण से पहले और बाद में भी वित्त मंत्री रहे प्रणब मुखर्जी से देश के आम अवाम को उम्मीद थी कि वे नोटबंदी जैसे मसले पर अपनी कुछ राय रखेंगें या फिर सरकार के ब्लैकमनी को विदेश से लाने के वादे पर कुछ दिशा देंगें, लेकिन शायद वे रायसीना हिल पर उन पाइप्स से धुआं उड़ाते रहे जो विदाई के वक्त उन्होंनें देश को वापस कर दिए.

इंदिरा गांधी के सबसे विश्वस्त रहे प्रणब मुखर्जी पर भरोसा जताते हुए एक बार श्रीमति गांधी ने कहा था कि प्रणब से आप धुंआ के सिवाय कुछ नहीं जान सकते. .

वित्त मंत्री, विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री और वाणिज्य मंत्री रहे प्रणब दा के मन में ये कसक तो जरूर रह गई होगी कि वे दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री नहीं बन पाए, कहा जाता है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उन्होंनें कोशिश की थी प्रधानमंत्री बनने की, शायद उसकी नाराजगी उन्हें बाद में राजीव गांधी से झेलनी पड़ी और कांग्रेस तक को छोड़ना पड़ा. लेकिन राजनीतिक सफर के अनुभवी प्रणब दा ने आगे बढ़ने के लिए यू टर्न लेने में गुरेज नहीं किया और फिर से उसी कांग्रेस में शामिल हो गए .

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पी वी नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्री रहते हुए उन्हें बहुत मौके मिले और वित्त मंत्री रहते हुए डा मनमोहन सिंह को रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाने के दस्तखत भी उन्होंने किए, लेकिन जब 2004 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह के नाम पर मंजूरी दी तो प्रणब मुखर्जी ने फिर से कोई नाराजगी दिखाने की गुस्ताखी नहीं की और वे डा मनमोहन सिंह की सरकार में एक अनुशासित सिपाही की तरह शामिल हो गए.

हालांकि राजीव गांधी की हत्या के बाद से वे सोनिया गांधी के काफी करीबी माने जाते थे और हर मसले पर कांग्रेस अध्यक्ष प्रणब दा से ही सलाह लेती थीं. उनके इस अनुशासन का ही इनाम मिला 2012 में जब सरकार में प्रोटोकॉल बदल गया और प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं के वक्त इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर गुलदस्ता लेकर मनमोहन सिंह को विदाई देते प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति भवन पहुंच गए.

रहमदिली में कंजूस रहे पोल्टू दा

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी इस बात के लिए जरूर याद किए जाएंगे कि उन्होंनें तीन बड़े आतंकी संसद भवन पर हमले के दोषी अफजल गुरु, मुंबई में 26/11 हमले के दोषी अजमल कसाब और1993 मुंबई बम धमाके के दोषी याकूब मेनन की फांसी की सजा पर मंज़ूरी दी थी. कसाब को 2012, अफजल गुरु को 2013 और याकूब मेनन को 2015 में फांसी हुई थी.

इसके अलावा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल में करीब 37 क्षमायाचिका के मामले आए, जिसमें उन्होंने ज़्यादातर में अदालत के फैसले को बरकरार रखा.राष्ट्रपति ने 28 अपराधियों की फांसी को बनाए रखा. इसी साल मई में भी राष्ट्रपति ने बलात्कार के दो मामलों में दोषियों को माफी देने से इंकार कर दिया. अपने कार्यकाल में राष्ट्रपति मुखर्जी ने सिर्फ चार दया याचिकाओं पर फांसी को उम्रकैद में बदला.

राष्ट्रपति के तौर पर प्रणब मुखर्जी ने ना तो के आर नारायणन की तरह दलितों को न्यायपालिका में आरक्षण देने का कोई सुझाव दिया और ना ही 2002 के दंगों की तरह कोई खतो खिताबत की, लेकिन मॉब लिंचिंग पर ये जरूर कहा कि 'जब भीड़ का पागलपन इस हद तक बढ़ जाए कि उसे रोका ही नहीं जा सके तो हमें रुक कर सोचना होगा कि क्या हम अपने देश के मूल्यों के प्रति जागरूक हैं.'

किस खांचे में फिट होंगे प्रणब दा 

प्रणब मुखर्जी को इस बात का संतोष रह सकता है कि उनके जीएसटी कानून को मोदी सरकार ने पास करवा दिया, लेकिन उनके नेता रहे राजीव गांधी के महिला आरक्षण बिल को आगे बढ़ाने या फिर चुनाव सुधारों पर कुछ ठोस करने का जोर प्रणब मुखर्जी ने नहीं दिया.

कुछ लोगों का यह सोचना गलत ही होगा कि कि प्रणब दा ने दोबारा राष्ट्रपति बनने के लिए मोदी सरकार से बेहतर संबंध बनाए रखे. इतनी पक्की राजनीतिक समझ वाले प्रणव मुखर्जी को समझ आ गया होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी भी हाल में अपनी विचारधारा वाले व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाने का ये मौका नहीं चूकेंगे जो बीजेपी को 70 साल बाद मिला है.

राष्ट्रपति के तौर पर प्रणब मुखर्जी भले ही डॉ. राजेंद्र प्रसाद, एस राधाकृष्णन या के आर नारायणन नहीं बन पाएं हों और ना ही एपीजे कलाम की तरह आम आदमी के राष्ट्र्पति जैसे लोकप्रिय हो पाएं हो, लेकिन फिर भी उनका नाम आधी रात को इमरजेंसी के अध्यादेश पर दस्तखत करने वाले फखरुद्दीन अली अहमद या इंदिरा गांधी के कहने पर झाड़ू लगाने की बात करने वाले जैल सिंह या फिर गूंगी गुड़िया की तरह पांच साल गुजारने वाली प्रतिभा पाटिल की लिस्ट में शामिल नहीं किया जा सकता .

सवाल जरूरी नहीं है फिर भी ये मुल्क उम्मीद करता है कि नए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद रायसीना हिल पर बने राष्ट्रपति भवन के सम्मान की ऊंचाई को और बढ़ाएंगें. अभी उन्हें किसी लिस्ट में शामिल करने का वक्त नहीं आया है.

(हमने ये आर्टिकल पहली बार 24 जुलाई, 2017 को प्रकाशित किया था. हम इसे दोबारा पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के जन्मदिन पर प्रकाशित कर रहे हैं)