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सुचेता कृपलानी: देश की पहली महिला मुख्यमंत्री जिनकी शादी के खिलाफ अड़ गए थे गांधी

ज्यादातर लोग सुचेता को इस वजह से याद रखते हैं कि उन्होंने संविधान सभा में वंदे मातरम गाया था

Kumari Prerna

पहली दफा उनका नाम जनरल नॉलेज की किताब में पढ़ा था. वही किताब जिसका हर चैप्टर हम रट जाते थे. पहले प्रधानमंत्री, पहला राष्ट्रपति, पहली महिला प्रधानमंत्री, जय जवान जय किसान का नारा किसने दिया, गरीबी हटाओ का नारा किसने दिया, इसका आविष्कार किसने किया, उसका आविष्कार किसने किया? मतलब तमाम तरह की जानकारियां घोल कर पी जानी होती थी. क्या पता गांव जाने पर नाते-रिश्तेदार के कोई बुजुर्ग कब पूरे समाज के सामने कौन सा सवाल दाग दें.

शहर में पढ़ रहे बच्चे की असल परीक्षा तो वहीं होती थी. अगर वहां पास हो गए तो समझो पूरे गांव में काबिलियत की चर्चा होनी तय थी. खैर, तब इन शख्सियतों का नाम मेरे लिए परीक्षा और गांव-समाज में बुद्धिमता को प्रदर्शित करने वाले महत्वपूर्ण सवाल से ज्यादा कुछ नहीं था. बाद में नेहरू, गांधी, भगत सिंह, राजेंद्र प्रसाद जैसे लोगों के विषय में निरंतर पढ़ती गई. कभी एनसीईआरटी की आधुनिक भारत के इतिहास की किताब में तो कभी राजनीतिक शास्त्रों की किताब में. जो नाम उन किताब के पन्नों में बस नाम तक सीमित रह गए, वो मेरे ज्ञान भंडार में भी केवल नाम तक ही सीमित रहे.


मन में गुस्सा और देश के लिए कुछ कर जाने वाला जुनून

फोटो कर्टसी: फेसबुक

सुचेता कृपलानी उन्हीं नामों में से एक थीं. आंखों पर बड़े फ्रेम वाला चश्मा लगाए सादी उजली साड़ी में, किताब पढ़ रही सुचेता कृपलानी. मेरी आंखों के कैमरे ने जो इंटरनेट की पेज से उनकी पहली तस्वीर कैद की थी, वह यही थी. देश की पहली महिला मुख्यमंत्री, जिन्होंने जे.बी.कृपलानी से शादी तो की थी लेकिन उनका पहला प्यार, उनकी पहली प्राथमिकता और पहली और आखिरी संतान उनका देश ही रहा.

वो साम्यवादी से गांधीवादी बनी, राष्ट्रवादी और महिलावादी तो पहले से ही थी. कृपलानी के पिता पेशे से डॉक्टर थे. राष्ट्रवाद उनके रग रग में दौड़ता था. यही कारण था कि बचपन से ही अंग्रेजों की क्रूरता के खिलाफ सुचेता के मन में गुस्सा था और देश के लिए कुछ कर गुजरने का जुनूनी जज्बा. अपनी किताब ‘एन एनफिनिश्ड ऑटोबायोग्राफी‘ में उन्होंने बचपन के एक ऐसे ही किस्से क जिक्र किया है.

हम खुद को हारा हुआ, बुजदिल और डरपोक समझ रहे थे

सुचेता और उनकी बड़ी बहन सुलेखा एक ही स्कूल में थे. सुलेखा उनसे करीब एक डेढ़ साल बड़ी होंगी. एक दिन उनके स्कूल की कुछ लड़कियों को कुदसिया गार्डन ले जाया गया. प्रिंस वेल्स (महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के सबसे बड़े बेटे) दिल्ली आने वाले थे, तो उनके स्वागत के लिए कुछ लड़कियों की जरूरत थी.

यह सबकुछ जलियांवाला बाग हत्याकांड के कुछ दिनों बाद ही हो रहा था. हर तरफ गुस्से और लाचारी का माहौल था. ऐसे समय में सुचेता और उनकी बहन सुलेखा को जब कुदसिया गार्डन के पास प्रिंस की स्वागत में खड़ी लड़कियों की पंक्ति में खड़े हो जाने का निर्देश मिला, वो गुस्से से लाल हो गईं पर तब विरोध करने की हिम्मत नहीं थी. लाचारी और गुस्से में दोनों पीछे छिप गए पर प्रिंस का स्वागत नहीं किया. हालांकि इसके खिलाफ आवाज ना उठा सकने के अफसोस में सुचेता सालों बाद तक इस घटना को याद कर के शर्मिंदगी महसूस करती रहीं. वो अपने किताब में लिखती हैं, ‘हम खुद को हारा हुआ, बुजदिल और डरपोक समझ रहे थे.’

बहन और पिता की अचानक हुई मृत्यु ने एक बड़ा झटका दे दिया

जहां तक सुचेता की शिक्षा की बात है, वो पढ़ने-लिखने में अच्छी थीं. उन्हें किताबों का बहुत शौक था. उन्होंने इंद्रप्रस्थ और सेंट स्टीफेंस जैसे कॉलेजों से अपनी पढ़ाई पूरी की. जब वह 21 साल की उम्र में नए उत्साह और जोश के साथ कॉलेज से निकलीं, तो उन्होंने ठान लिया की वो स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेंगी लेकिन इसी बीच उनकी बड़ी बहन सुलेखा की अचानक तबीयत बिगड़ने से मृत्यु हो गई. बाद में उनके पिता भी चल बसे.

यह 1929 का दौर था जब परिवार को चलाने का पूरा बोझ सुचेता के कंधों पर अचानक ही आ गया. ऐसे वक्त में वो बतौर प्रोफेसर बीएचयू चली गईं. जे.बी कृपलानी भी तब बीएचयू में इतिहास के प्रोफेसर थे लेकिन उन्होंने गांधी के असहयोग आंदोलन के लिए एक साल के भीतर ही नौकरी छोड़ दी थी .

सुचेता और जे.बी का बीएचयू कनेक्शन

वर्तमान में बीएचयू के सोशल साइंस डिपार्टमेंट की प्रोफेसर अरुणा सिन्हा बताती हैं, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने अनेकों महापुरुषों और स्त्रियों को जन्म दिया है. खासकर देश के आंदोलन के इतिहास में इस विश्वविद्यालय का बहुत योगदान रहा है. बात अगर विशेषत: सुचेता की करें तो वह एक ऐसी स्त्री हैं, जिन्होंने देश के लिए अपने परिवार, करियर और मां बनने के सपने का त्याग कर दिया. मैं तो कहती हूं उनके दिमाग में ये बाते आती ही नहीं थी. आजादी का जुनून इतना था कि अपनी नौकरी छोड़कर गांधी के पास चली गईं. जब वह यहां बच्चों को पढ़ाती थी तो उनका मकसद युवाओं को देश के स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करना था. वो देश के भविष्य की बातें करती, अंग्रेजों की जलालतों के किस्से सुनाती, गांधी का जिक्र करतीं और छात्रों को आजादी संबंधित आंदोलनों में हिस्सा लेने के लिए उत्साहित करती रहतीं.

डिपार्टमेंट में सुचेता को अक्सर आचार्य कृपलानी के बारे में बातें सुनने को मिलती थीं . खासकर उनके बेहतरीन टीचर होने की और फिर उनके गांधी के खास सहयोगी बन जाने की. उन्हीं दिनों कृपलानी जब कभी बनारस आते तो बीएचयू के इतिहास विभाग जरूर जाते. इसी दौरान उनकी मुलाकात सुचेता से हुई थी , क्योंकि सुचेता प्रखर बुद्धि वाली और आजादी के आंदोलन से जुड़ने को तीव्र थीं, कहा जा सकता है कि जे.बी को सुचेता की यही बात प्रभावित कर गई और फिर दोनों में काफी बातें होने लगीं.

साल 1934 के दौरान बिहार में भयंकर भूकंप आया था. इस प्राकृतिक दुर्घटना में बतौर राहत कार्यकर्ता दोनों बिहार पहुंचे. माना जाता है कि यहीं से दोनों के बीच नजदिकियां बढ़ने लगी.

एक राष्ट्रवादी के इतर सुचिता महिलावादी भी थीं. उन्होंने जब अपनी नौकरी छोड़ी तो गांधी के साथ ही साथ एक महिला संगठन से भी जुड़ गईं. तब तक जे.बी कृपलानी भी गांधी के बहुत अजीज बन चुके थे और सभी आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे. यही वो दौर था जब जे.बी और सुचेता का प्यार परवान चढ़ने लगा लेकिन इस पनप रहे नए प्यार से कइयों को आपत्ति हुई. उसमें महात्मा गांधी भी शामिल थे.

आखिर गांधी ने क्यों कृपलानी की शादी का विरोध किया था?

जेबी कृपलानी यानी जीवतराम भगवानदास कृपलानी उम्र में सुचेता से 20 साल बड़े थे. जेबी जहां सिंधी परिवार से ताल्लुक रखते थे, वहीं सुचेता बंगाली परिवार से थीं. दोनों के उम्र और जन्मस्थल में भले ही अंतर था लेकिन असल में दोनों एक जैसे ही थे. जुनूनी . देश के लिए मर मिट जाने वाले. दोनों इतने गंभीर और आत्मविश्वासी थे कि उन्हें उनके अटल निश्चय से हिला पाना मुश्किल था. दोनों ने शादी करने का मन बना लिया.

जब गांधी को इस बात की भनक लगी वो हैरान रह गए कि उन्हीं के आश्रम में उन दोनों का प्यार फला-फूला और उन्हें इस बात की बिल्कुल भी भनक नहीं लगी. यहां तक की गांधी ने इस शादी पर यह कहते हुए आपत्ति जताई  कि मैं अपने इतने गंभीर और दृढ़ साथी को नहीं खोना चाहता. यह आजादी के आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण समय है. गांधी यह जे.बी कृपलानी के लिए कह रहे थे लेकिन फिर सुचेता के जुनून को देखते हुए उन्होंने इस शादी को अपनी सहमति दे दी.

शादी के बाद कुछ नहीं बदला. सुचेता और जे.बी दोनों ने ही गांधी के दो हाथ बनकर सत्याग्रह से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन में उनका साथ दिया. सुचेता इन दिनों महिला मोर्चा को इकट्ठा करने में जुटी थीं. उन्होंने महिलाओं को आत्मबल से लड़ना और सशक्त बनना सिखाया.

महिला संगठनों का नेतृत्व करते-करते सुचेता को राजनीति में दिलचस्पी हुई. हालांकि जे.बी नहीं चाहते थे कि वो राजनीति में शामिल हों. इसके बावजूद उन्होंने सुचेता की बहुत मदद की. साल 1940 में सुचेता ने ऑल इंडिया महिला कांग्रेस का गठन किया. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी उन्होंने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया. वो अंडरग्राउंड होकर सारी रणनीतियां तैयार करतीं, क्योंकि इस वक्त तक बड़े से बड़े स्वतंत्रता सेनानी गिरफ्तार हो चुके थे, सुचेता नहीं चाहती थीं कि वो खुलकर कुछ ऐसा करें जिससे उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया जाए. हालांकि अंत अंत तक उन्होंने भी जेल का मुंह देख ही लिया. वो एक साल तक जेल में रहीं.

आजादी ने जन्म लिया पर जमीन में गड़ी कई लाशों के ऊपर

साल 1947. भारत को आजादी मिल चुकी थी लेकिन यह रक्तरंजित आजादी थी. हिन्दू और मुसलमानों के बीच धर्म और मजहब की एक लंबी खाई बन गई थी. जिसमें लोग मासूमों की बलि चढ़ा रहे थे. खून-खराबा और दंगों के बीच विस्थापितों की बाढ़ हमारे देश की ओर बढ़ रही थी. जिनकी मदद में गांधी और सुचिता लगे हुए थे. ऐसे ही एक दंगे का शिकार बना था पूर्वी बंगाल का नोआखाली जिला.

मुस्लिम बहुल इस जिले में हिंदुओं का व्यापक कत्लेआम हुआ. हिंदू-मुस्लिम एकता के गांधी के प्रयासों को यह एक बहुत बड़ा धक्का था. बापू के लिए परीक्षा की असली घड़ी आ गई थी. उन्होंने तुरंत दिल्ली से नोआखाली जाने का निर्णय लिया. उनके साथ गईं सुचेता. दोनों ने साथ मिलकर पीड़ितों को हर मुमकिन मदद मुहैया कराई.

अब तक कांग्रेस पार्टी बिल्कुल बदल चुकी थी. पद को लोभ ऐसा था कि गांधी ने एक वक्त पर यह तक कह दिया था कि अंग्रेजों के बाद अब मेरी दूसरी लड़ाई कांग्रेस के खिलाफ होगी. आजादी के पहले वाली कांग्रेस और अब वाली कांग्रेस में जमीन आसमान का अंतर आ चुका था.

ऐसी स्थिति को देखते हुए सुचेता जे.बी की नई पार्टी किसान मजदूर पार्टी में चली गईं. यह 1950 की घटना थी. 1952 के चुनाव में वह नई दिल्ली के संसदीय क्षेत्र से जीत गईं लेकिन फिर कुछ ही समय के बाद उन्होंने कांग्रेस में घर वापसी कर ली और 1957 में दिल्ली के उसी संसदीय क्षेत्र से दोबारा जीत गईं. दोनों पति पत्नी अब अलग-अलग पार्टियों में थें. इसके बावजूद दोनों में से किसी ने एक दूसरे पर सवाल नहीं खड़े किए.

जब देश को पहली महिला मुख्यमंत्री मिली

फोटो कर्टसी : फेसबुक

देश को आजादी मिले 15 साल हो गए थे लेकिन देश में अभी तक कोई महिला मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री नहीं बनी थी. ऐसे में सुचेता साल 1962 में कानपुर से उत्तरप्रदेश विधानसभा की सदस्य चुनीं गईं. सन 1963 में उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया. और करीब 3 साल 162 दिनों तक वह सीएम पद पर बनी रहीं. उनके कार्यकाल के दौरान सबसे ज्‍यादा चर्चा में जो मामला था, वो कर्मचारियों की हड़ताल थी. लगभग 62 दिनों तक चली इस हड़ताल का सुचेता ने बखूबी सामना किया. सुचेता में एक बेहद ही मंझे हुए नेता की खूबी थी. वो मजदूरों की मांग के सामने झुकी नहीं. अंत में सुचेता ने कर्मचारियों की मांगो को पूरा किए बिना हड़ताल को तुड़वा दिया.

ज्यादातर लोग सुचेता को इस वजह से याद रखते हैं कि उन्होंने संविधान सभा में वंदे मातरम गाया था. उनके हिसाब से सुचेता के लिए यह अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि थी. यहां मेरी राय थोड़ी अलग है. मेरी नजर में सुचेता का एक ऐसे समय में यूपी जैसे राज्य का मुख्यमंत्री बनना ज्यादा गौरवपूर्ण है जब राजनीति में विरले ही किसी महिला को इतना ऊंचा पद दिया जाता था.

सुचेता का जन्म 25 जून,1908 को अंबाला में हुआ था. वो लाहौर में पली बढ़ी. उनकी पढ़ाई दिल्ली में हुई. वो जन्म से बंगाली थी और वो मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश की बनीं. वाकई! ये किस्सा दिलचस्प है.

साल 1974 में उन्होंने आखिरी सांस ली थी. कहते हैं कि वह जे.बी का खयाल रखते हुए खुद का बिल्कुल ध्यान नहीं रखती थीं. यही कारण था कि उनकी तबीयत बिगड़ती चली गई. एक बात और जो महत्वपूर्ण है वह यह कि उन्होंने साल 1971 में ही राजनीति से संन्यास ले लिया था. वजह कांग्रेस से उनका मोहभंग होना था.