view all

शकील बदायूंनी : सिलसिला खत्म न होगा मेरे अफसाने का...

शकील बदायूंनी ऐसे गीतकार थे जिनकी शोहरत उस समय किसी बड़े फिल्मी स्टार से कम नहीं थी

Nazim Naqvi

'फ्रंटियर-मेल बम्बई से फर्राटे भरता दिल्ली की तरफ उड़ा जा रहा है और लगभग हर छोटे-बड़े स्टेशन पर उसके रुकते ही प्लेटफार्म पर खड़े लोगों का समूह हड़बड़ाकर फर्स्ट-क्लास के डिब्बों की ओर लपकता है और गाडी छूट जाने की बौखलाहट के बावजूद शीघ्र ही एक डिब्बे में काली शेरवानी और सफेद पायजामे में सुसज्जित एक ऐसे व्यक्ति को ढूंढ निकालता है जिसने सर के बाल पीछे को संवार रखे हैं, जिसकी आंखों में बड़ी सुंदर चमक है और जिसके होंटों पर सदाबहार मुस्कराहट मानो चिपक कर रह गई है'.

ये मंजर-नाम लिख रहे हैं उर्दू के जाने-माने अदीब 'प्रकाश पंडित'. डिब्बे में बैठे अन्य यात्री ताज्जुब से एक-दूसरे को देख रहे हैं, जैसे कह रहे हों, कि कौन व्यक्ति है ये आखिर? न तो कोई जाना-माना नेता है, न अंतरराष्ट्रीय ख्याति का कोई खिलाडी, और फिल्म अभिनेता तो किसी सूरत में नहीं लगता, फिर इतना प्यार, इतनी श्रद्धा, कि कोई फूल दे रहा है तो कोई पान लाया है, कोई मिठाई, और वो सबका अभिवादन स्वीकार कर रहा है. तभी भीड़ से कोई पुकार उठता है 'शकील साहब लौटते समय हमारे यहां थोड़ा रुककर जाइएगा'.


ये है शकील बदायूंनी की शोहरत का एक छोटा सा किस्सा. इस शोहरत का राज छुपा है उनके तरन्नुम में, शेरों की चुस्ती में, और अनुभूति की तीव्रता में.

मुहब्बत की राहों में शकील अपने चाहने वालों को तो संभलने की सलाह दे रहे हैं लेकिन मोहब्बत और शोहरत में खुद वो डगमगा गए कि संभलना मुश्किल हो गया. शकील के आलोचकों को उनसे इसी बात की शिकायत रही कि 'वाह' 'वाह' और 'सुभानाल्लाह' के लगातार शोर ने उन्हें उसी शायरी तक सीमित कर दिया जिसमें लोगों को लुभाने की कला थी और उन्हें जीवन के कई महत्वपूर्ण मूल्यों के बारे में सोचने का अवसर नहीं दिया. जिस दौर में उनके समकालीन शायर अपनी शायरी में प्रगतिशीलता के नए तेवर तलाश रहे थे, वो 'प्रेम' से ही आंख-मिचौलियां करता रहे.

हो सकता है कि शकील के आलोचकों की बात में काफी दम हो लेकिन शकील के बारे में ये इकहरी सोच लगती है. अपने जमाने के जाने-माने शायर और ज्ञान-पीठ से सम्मानित 'अली सरदार जाफरी' शकील के बारे में कहते हैं- 'शकील गजल कहना भी जानते हैं और उसे गाना भी. मैं अपनी अदबी-जिंदगी में शकील से दूर रहा हूं लेकिन उनकी गजल से हमेशा कुर्बत (सामीप्य) महसूस की है. ये एक ऐसी लताफत (मृदुलता) है जो दिल में उतर जाती है'.

समकालीन शायरों, आलोचकों-समालोचकों को भले ही शकील से गजल और गीत की दुनिया से बाहर आकर दूसरी ज्यादा असरदार विधाओं में अपने कमालात न दिखा पाने की शिकायत रही हो लेकिन शकील का अंदाजे-बयां करोड़ों हिंदुस्तानियों के लिए वजहे-सुकून था. फिल्मी-दुनिया में उनके गीत सिर चढ़ कर बोलते थे. हिंदुस्तानी के साथ-साथ, ब्रज और अवधी जुबान में रची-बसी लोक-गीत परंपरा का भी उन्होंने जमकर इस्तेमाल किया.

2016 में जब शकील की जन्मशती मनाई गई तो भारत-सरकार ने उनकी याद में एक डाक-टिकट भी जारी किया. उन्हीं दिनों एक अंग्रेजी लेख ने उनके बारे में लिखा-'जब यूपी के एतिहासिक शहर, बदायूं में 3 अगस्त 1916 को एक बच्चे 'शकील अहमद' की पैदाइश हुई तो शायद ही किसी को ये अंदाजा हुआ हो कि आजाद हिंदुस्तान में ये शहर अपने इस नौनिहाल के नाम से जाना जाएगा. जो बड़ा होकर, हिंदी फिल्म-उद्योग का सबसे चर्चित नाम, शकील बदायूंनी कहलाया'.

शकील बदायूंनी की प्रारंभिक उर्दू-अरबी-फारसी-हिंदी की तालीम घर पर ही हुई. 1936 में उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी भेजा गया जहां से उन्होंने डिग्री हासिल की. अगला सफर था दिल्ली का. दिल्ली के किसी महकमे में उन्होंने बतौर 'सप्लाई ऑफिसर' नौकरी की लेकिन अंदर के शायर को ये सब पसंद नहीं आया. जिगर मुरादाबादी की तरह गजल कहना उन दिनों के शायरों में फैशन सा था. शकील भी 'जिगर' से बहुत प्रभावित थे. और उनकी शोहरत का ग्राफ भी जिगर कि ही तरह ऊपर और ऊपर चढ़ रहा था.

1944 के आस-पास शकील ने मुंबई का रुख किया. यहा. उनकी मुलाकात उस जमाने के बड़े स्थापित निर्माता 'ए.आर.कारदार' से हुई जो उन्हें संगीतकार नौशाद के पास ले गए. नौशाद ने कहा कि 'शकील मियां कुछ लिख सकते हो तो सुना दो'. शकील को तो जैसे इसी बात का इंतजार था. पास रखे कागज पर कुछ लिखा और नौशाद साहब के आगे कर दिया. नौशाद ने देखा और बेसाख्ता उनके चेहरे पर एक मुस्कराहट फैल गई. शकील ने लिखा था-

हम दर्द का अफसाना दुनिया को सुना देंगे

हर दिल में मुहब्बत कि एक आग लगा देंगे

करदार साहब, नौशाद और शकील के बीच जो कुछ बंध चुका था उसे भांप गए और जैसे ही नौशाद ने उनकी तरफ देखा वो समझ चुके थे कि फिल्म 'दर्द' का गीतकार उनके सामने खड़ा है. और फिर यूं हुआ कि नौशाद-शकील की जोड़ी ने फिल्मी संगीत में एक ऐसी आग रौशन कर दी जो आज तक जल रही है. ये भी अपने आपमें एक कीर्तिमान है कि तीन साल तक (61-63) बेस्ट-लिरिसिस्ट का फिल्म-फेयर पुरस्कार शकील के नाम ही रहा. और ये गीत थे 'चौदहवीं का चाँद हो' (1961), 'हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं' (1962) और 'कहीं दीप जले कहीं दिल' (1963).

लेकिन 1952 में जो इतिहास शकील-नौशाद और मो. रफी की तिकड़ी ने 'बैजू-बावरा' में रच डाला वो अनूठा था. तीन मुसलमानों ने मिलकर देश को अपनी गंगा-जमुनी तहजीब का वो नायाब तोहफा दिया कि जिसकी कोई दूसरी मिसाल कभी न पैदा हो सकी. ब्रज भाषा के शब्द, राग मालकौस की बंदिश और भगवान की दी हुई आवाज, सबने मिलकर वो जादू पैदा कर दिया कि आज 65 बरसों के बाद भी लोग इस भजन को सुनते हैं और भीगी हुई आंखों से इसकी पूजा करते हैं.

शकील बदायूंनी ने फिल्म 'दर्द' से जो सफर शुरू किया तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने 26 साल के अपने फिल्मी करियर में करीब 89 फिल्मी-गीत लिखे. फिल्मी गीतों के अलावा उनकी गजलों को जो मकबूलियत नसीब हुई, कई समकालीन शायरों के लिए ईर्ष्या का विषय रही. उनकी गजलों को बेगम अख्तर ने गाकर उनकी अमरता को और बढ़ा दिया.

शोहरत और कामयाबी की इस राह में कब एक जानलेवा बीमारी ने उनका दामन पकड़ लिया, उन्हें पता ही नहीं चला. उन्हें टीबी हो गई थी जो उस जमाने तक लाइलाज बीमारी थी. 50 की उम्र में ऐसी जानलेवा बीमारी, जिसने सुना, भौचक्का रह गया. उन्हें पंचगनी में इलाज के लिए ले जाया गया. नौशाद को उनकी माली हालात का पता था. अपने साथी की इस हालत में उन्होंने,

प्रोड्यूसरों से अपनी जिम्मेदारी पर उन्हें तीन फिल्में दिलवाईं और गाने लिखवाने के लिए पंचगनी आते जाते रहे. पारिश्रमिक के तौर पर प्रति गीत, जो शकील लिया करते थे, उससे दस गुने ज्यादा में इन गानों के अनुबंध हुए.

इंसानी कोशिशें अपनी जगह, बीमारी ने अपना विकराल रूप धारण किया और 20 अप्रैल 1970 को सिर्फ 54 साल की उम्र में हिंदुस्तान का ये हर-दिल अजीज शायर और गीतकार हमेशा के लिए हमसे जुदा हो गया.