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शहरयार जन्मदिन विशेष: किधर को जाते हैं ये ख्वाब देखने वाले...

शहरयार ने कहा था 'जहां-जहां हिन्दुस्तान जाएगा वहां-वहां उर्दू शायरी जाएगी'

Nazim Naqvi

आइए बात करते हैं शहरयार की. मुबारकबाद देते हैं उन्हें जन्मदिन की. आज पूरे 81 के हो गए शहरयार. हालांकि अखलाक मोहम्मद खान के जिस जिस्म में वो रह रहे थे, उसकी मौत तो तभी हो गई थी जब वो 75 के थे.

वो घंटों-घंटों ताश के पत्तों में लिपटी हैरतों से जी बहलाना, मयकदे को जगाना, यार-बाशी करते हुए रातों की नींदों को उड़ाना. एक दिन वो जाना पहचाना अजनबी, जो ख्वाब देखता था, जो सवाल करता था, न जाने वो कहां चला गया.


(फिल्म: गमन का ये गीत जो रेडियो से प्रसारित होने वाला सबसे लोकप्रिय गाना बन गया)

वो बात जो शहरयार को अपने हम-युगीन साहित्यकारों में सबसे नुमायां शख्सियत बनाती है वो इनकी सहजता है. सालों पहले अपने चांद फिल्मी गीतों/गजलों से शहरयार को जो सफलता मिली थी, वो कामयाबी किसी को भी मदहोश कर सकती थी लेकिन शहरयार उससे प्रभावित हुए बगैर वहां से निकल आए.

शहरयार उर्दू के चौथे ऐसे शायर हैं (फ़िराक, अली सरदार जाफरी और कुर्रतुलऐन हैदर) जिन्हें ‘ज्ञानपीठ अवार्ड’ से नवाजा गया. लंबी-लंबी बातें करने से बचते थे शहरयार.

अवार्ड फंक्शन में किसी रिपोर्टर ने उनसे पूछा, शहरयार जी उर्दू को आप भविष्य में कहां जाता हुआ देखते हैं? शहरयार बोले 'जहां-जहां हिन्दुस्तान जाएगा वहां-वहां उर्दू शायरी जाएगी.'

शोहरत उनके पांव की जंजीर कभी नहीं बन पाई. वो कहते थे 'अब जो फिल्में बन रही हैं उसमें पोएट्री कि गुंजाईश नहीं है. वो प्रोज है जो म्यूजिक में किसी तरह फिट की जा रही है. तो उसमें मेरा कोई रोल नहीं बचा है. और मेरा मिजाज ये है कि मैं कॉम्प्रोमाइज नहीं कर सकता.'

'उमराव जान के गीतों की जुबान लोगों कि समझ में आती है, गाने सिर्फ गाने नहीं हैं बल्कि फिल्म का हिस्सा हैं. वो बातें, जो डॉयलाग या एक्शन के जरिए फिल्म नहीं कह पाई, उन बातों को गीत के जरिए कहा गया.'

(फिल्म: उमराव जान)

कब मिली थी कहां बिछड़ी थी हमें याद नहीं

जिंदगी तुझको तो बस ख्वाब में देखा हमने

उमरावजान की हर गजल अपने आप में एक फिल्म है. दरअसल कम लोग जानते हैं कि इस फिल्म में सिर्फ गीत ही नहीं बल्कि उसकी कहानी उसके डॉयलाग सबपर शहरयार छाए हुए थे.

वजह ये थी की अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में शहरयार ने 15 सालों तक ‘उमरावजान, नावेल को पढ़ाया था. इसलिए उमरावजान खुद शहरयार से बातें करती थीं.

(फिल्म: उमराव जान)

शहरयार अपनी शायरी से कदम-कदम पर प्रभावित करते हैं. उनके यहां शायरी खुद को साबित करने का माध्यम नहीं बनती बल्कि खुद को व्यक्त करने का जरिया होती है. वो ख्वाब भी देखते हैं, यादों से भी उलझते हैं, मजबूर भी हो जाते हैं, उम्मीद भी पालते हैं, आंसू भी बहाते हैं और मुस्कुराते भी हैं. उनकी एक नज्म है ‘नया सवाल’.

ये बात रोज़े अज़ल से तय है (रोज़े-अज़ल- पहले दिन से)

ज़मीन जिस्मों का बोझ उठाएगी

आसमां पर रूहें रहेंगी

मगर कोई है, जो ये बताये

हमारी परछाइयों कि कब्रें

कहाँ बनेंगी?

या फिर उनकी ये नज़्म =

मायल-ब-करम हैं रातें (मायल-ब-करम: दया के लिए उत्सुक)

आँखों से कहो अब मांगें

ख़्वाबों के सिवा जो चाहें

शहरयार कि शायरी कि खासियत ये है कि उसमें आप कोई घटाव या बढाव नहीं कर सकते. किसी भी ‘आर्ट-फ़ार्म’ की ये बुनियादी खूबी उनकी शायरी में बे-पनाह मिलती है. ऐसा नहीं कि उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया वो अड़ियल बिलकुल नहीं थे. उनकी एक ग़ज़ल है-

गर्दिश-ए-वक़्त का कितना बड़ा एहसां है कि आज

ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें.

इसे जब उन्हें उमराव जान के लिए इस्तेमाल होना था तो उन्होंने इसकी लाइनों को बदल कर यूँ किया-

ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें

ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें

(फिल्म: उमराव जान)

शहरयार उन लोगों में से थे जो फिक्र करते थे उसके जिक्र (प्रोपेगंडा) में यकीन नहीं रखते थे. अपने एक इंटरव्यू (शायद ये उनका आखिरी इंटरव्यू था) उन्होंने फरमाईश पर अपना एक ताजा शेर सुनाया था. आज उसे सुनकर ऐसा लगता है जैसे वो अपने चाहने वालों से कुछ कह रहे थे.

एक ही धुन है कि इस रात को ढलता देखूं

अपनी इन आंखों से सूरज को निकलता देखूं