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जन्मदिन विशेष राहत इंदौरी: फकीर, शाह, कलंदर, इमाम क्या-क्या है, तुझे पता नहीं तेरा गुलाम क्या-क्या है

'सभी का ख़ून है शामिल यहां की मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है’... लिखने वाले मशहूर शायर आज 68 बरस के हो गए

Sumit Kumar Dubey

मौजूदा वक्त में अगर किसी ऐसे शायर की बात की जाए जो एक आम हिंदुस्तानी को गहरी से गहरी बात भी बेहद आसान लफ्जों में समझाने का माद्दा रखता है तो लबों पर एक ही नाम आता है. वह नाम है शायर राहत इंदौरी साहब का. तेवर जितने कड़े, भाषा उतनी ही आसान, बात जितनी गंभीर, उसको बयां करने का अंजाद उतना ही खास...लेकिन ऐसा अंदाज जिसे कम समझ के लोग भी आसानी से समझ सकें. ऐसी ही काबिलियत के मालिक हैं राहत इंदौरी.

जीवन का शायद ही ऐसा कोई मसाइल हो जो राहत साहब की शायरी में दिखाई न देता हो. अपनी बात को वह जिस तरह से रखते हैं वह ठीक वैसे ही उनके सुनने वालों के जेहन में समा जाती है. यह उनकी तीखी लेकिन सरल शायरी का ही कमाल है जो उन्हें हर मुशायरे की जान बना देता है. हिंदुस्तान हो या पाकिस्तान, दुबई हो या अमेरिका हर जगह राहत का बिना डरे अपनी बात को सामने रखना, उन्हें खास बनाता है.


सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में, किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है

यह शेर बताता है कि राहत साहब अपनी बात किस तरह से ताल ठोककर कहने के आदी हैं.

आम आदमी के शायर कहे जाने वाले राहत इंदौरी साहब का जन्म आज ही के दिन यानी 1 जनवरी, 1950 को मध्य प्रदेश के शहर इंदौर में हुआ था.

बेहद दिलचस्प है शायर बनने की कहानी

एक कपड़ा मिल के मजदूर के घर में जन्मे राहत के शायर बनने की कहानी बेहद दिलचस्प है. राहत अपने स्कूली दिनों में सड़कों पर साइन बोर्ड लिखने का काम करते थे. उनकी सुंदर लिखावट किसी का भी दिल जीत लेती थी लेकिन तकदीर ने तो उनका शायर बनना मुकर्रर किया हुआ था. एक मुशायरे के दौरान उनकी मुलाकात मशहूर शायर जां निसार अख्तर से हुई. बताया जाता है कि ऑटोग्राफ लेते वक्त उन्होंने अपने शायर बनने की तमन्ना जाहिर की. अख्तर साहब ने कहा कि पहले 5 हजार शेर जुबानी याद कर लें फिर अपनी शायरी खुद ब खुद लिखने लगोगे. राहत ने तपाक से जबाव दिया कि 5 हजार शेर तो मुझे याद है. अख्तर साहब ने जवाब दिया- तो फिर देर किस बात की है.

courtesy: rahat indori/twitter

बस फिर क्या था. राहत साहब इंदौर के आस पास के इलाकों की महफिलों में अपनी शायरी का जलवा बिखेरने लगे और धीरे-धीरे एक ऐसे शायर बन गए जो अपनी बात अपने शेरों के जरिए इस कदर रखते हैं कि उन्हें नजरअंदाज करना नामुमकिन हो जाता है.

राहत साहब की शायरी में जीवन के हर पहलू पर उनकी कलम का जादू देखने को मिलता है. बात चाहे दोस्ती की हो या प्रेम की या फिर रिश्तों की, राहत साहब की कलम जमकर चलती है.

मेरी ख्वाहिश है कि आंगन में न दीवार उठे, मेरे भाई, मेरे हिस्से की जमीं तू रख ले... कभी दिमाग, कभी दिल, कभी नजर में रहो, ये सब तुम्हारे घर हैं, किसी भी घर में रहो

राहत साहब का यह शेर बताता है कि इंसानी रिश्तों को लेकर वह कितने नाजुक अहसास रखते हैं.

यही नहीं प्रेम को लेकर भी राहत इंदौरी के शेर हमें दूसरी दुनिया में लेकर जाते हैं.

फूंक डालुंगा मैं किसी रोज दिल की दुनिया, ये तेरा खत तो नहीं है जो जला ना सकूं .'

राहत इंदौरी सामाजिक कुरीतियों और देश के हालात पर भी पैनी नजर रखते हुए अपनी शायरी के जरिए उस पर तंज कसने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं. बात चाहे सांप्रदायिक उन्माद की हो या फिर अभिव्यक्ति की आजादी की, राहत साहब ने हमेशा अपनी बात बेझिझक सामने रखी है.

घरों की राख फिर देखेंगे पहले देखना यह है, घरों को फूंक देने का इशारा कौन करता है

मुझे ख़बर नहीं मंदिर जले हैं या मस्ज़िद, मेरी निगाह के आगे तो सब धुंआ है मियां.

यहां दरिया पे पाबंदी नहीं है, मगर पहरे लबों पे लग रहे हैं.

राहत साहब की शायरी हिंदुस्तान और पाकिसतान के बीच की रंजिश और उसके पीछे की राजनीति पर बहुत खूब कटाक्ष करती है.

सरहदों पर तनाव है क्या, जरा पता तो करो चुनाव हैं क्या

जब पाकिस्तान जाने से किया इनकार

राहत साहब पाकिस्तान में भी उतने मशहूर हैं जितने हिंदुस्तान में लेकिन दोनों मुल्कों के बीच बढ़ते तनाव को लेकर वह बेहद संजीदा रहते हैं. पिछले साल मार्च में उन्होंने पाकिस्तान के कराची में बहुत बड़े मुशायरे में जाने से इनकार कर दिया था. उनका कहना था कि जब तक पाकिस्तान की तरफ से तनाव को घटाने की ईमानदार कोशिश नहीं की जाएगी तब तक वह पाकिस्तान नहीं जाएंगे.

किसी भी सीमा में बंधी नहीं है राहत साहब की शायरी

आम तौर पर शायरों के कलाम एक सीमा में बंधे होते हैं. उस सीमा से पार जाने में शायर घबराते है यह कमजोरी उनकी शायरी को बोझिल तक बना देती है लेकिन यह मसला राहत साहब की शायरी में दिखाई नहीं दिया. राहत इंदौरी अपनी शायरी में ऐतिहासिक पात्रों का भी जमकर इस्तेमाल करते हैं.

दिल तेरे झूठे खतों से बुझ चुका, अब आ भी जा, जिस्म के गौतम से क्या उम्मीद, कब घर छोड़ दे.

मैं अगर वक़्त का सुक़रात भी बन जाऊं तो क्या, मेरे हिस्से में वहीं ज़हर के प्याले होंगे.

राहत साहब के यह शेर यह बताने के लिए काफी हैं कि उनकी शायरी महज उर्दू की सीमाओं में नहीं सिमटी बल्कि गौतम और सुकरात को भी खुद में समाहित करने का माद्दा रखती है.

अपने वक्त के तमाम शायरों का तरह राहत साहब ने फिल्म इंडस्ट्री में भी अपनी कलम का जलवा बिखेरा है. वह कई मशहूर फिल्मों के नगमे लिख चुके हैं. लेकिन राहत साहब की पहचान तो उनका बेलाग अंदाज है जो मुशायरों में खुलकर सामने आता है.

आज राहत इंदौर 68 बरस के हो गए हैं. हम उन्हें ढेर सारी बधाइयां देते हुए उम्मीद करते हैं उनकी जिंदगी का सफर यूं ही चलता रहे और वह मुशायरों की शान बढ़ाते रहें.