एक किस्सा है. संगीतकार जयदेव, मशहूर फिल्मकार विजय आनंद और गीतकार साहिर लुधियानवी बैठे हुए थे. जयदेव ने पाकिस्तान के मशहूर शायर सैफुद्दीन सैफ का शेर पढ़ा –
हमको तो गर्दिश-ए हालात पे रोना आया
रोने वाले तुझे किस बात पे रोना आया
शेर सुनाकर जयदेव ने साहिर से कहा कि शायर एक सवाल छोड़कर गया है, इसका जवाब तुमको देना है. साहिर ने अगले ही मिनट जवाब दे दिया-
कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया
जयदेव बहुत खुश हुए. उन्होंने कहा कि मियां, गजल पूरी करो. मैं इसकी धुन बनाउंगा. विजय आनंद ने कहा कि पूरी होते ही ये गजल मेरी हो जाएगी. इसे मैं अपनी फिल्म में इसे इस्तेमाल करूंगा. उसी बैठक में गजल पूरी हुई.
विजय आनंद ने 1961 में फिल्म बनाई हम दोनों. इसमें देव आनंद थे. फिल्म में इस गजल का इस्तेमाल हुआ. ये फिल्म जयदेव जी के बेहतरीन संगीत का नमूना है. अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम... जैसा भजन इसी फिल्म का है. इसी फिल्म में गाना है- अभी न जाओ छोड़कर... इसके अलावा मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया. ये गाना सचिन तेंदुलकर का फेवरिट है.
जयदेव वर्मा के कामों को क्वांटिटी यानी नंबर से नहीं, क्वालिटी से ही आंका जा सकता है. 3 अगस्त 1919 को उनका जन्म हुआ था. 6 जनवरी 1987 को मृत्यु हुई. इन 68 सालों में उन्होंने संगीत को ऐसी सुरीली देन दी, जो संगीतप्रेमी कभी नहीं भूल पाएंगे. जयदेव का जन्म नैरोबी में हुआ था. उनके पिता वहां नौकरी करते थे.
पांच साल की उम्र में जयदेव हार्मोनिका बजाने लगे थे. उनके भाई को तबला बजाने का शौक था. कीनिया में स्कूल अच्छे नहीं थे, इसलिए उनको भारत भेजा गया. 1927 में वो भारत आए. अकेले पानी के जहाज से. आने में एक महीना लगा. इस दौरान वो जहाज में माउथ ऑर्गन बजाते थे.
भारत आने के बाद वो लाहौर कुछ समय रहे. फिर लुधियाना आए. लुधियाना यानी साहिर की सरजमीं. दिलचस्प है कि जयदेव का श्रेष्ठतम शायद साहिर के साथ ही माना जाएगा. 1933 में 15 साल की उम्र में बंबई चले गए. उन्हें फिल्म स्टार बनना था. चाइल्ड एक्टर के तौर पर आठ फिल्में कीं. लेकिन इसके बीच वो संगीत सीखते रहे.
लेकिन इससे पहले उन्हें एक बार फिर लुधियाना आना पड़ा था. उसकी दो कहानियां हैं. एक के मुताबिक पिता की आंखों की रोशनी चले जाने की वजह से उन्हें लुधियाना आना पड़ा. दूसरी कहानी कुछ यूं है कि बंबई में जयदेव जी के पास पैसे खत्म हो गए. उन्होंने सड़क पर रहना शुरू कर दिया. पिता उन्हें ढूंढते हुए बंबई आए. वहां से वो उनको वापस लुधियाना ले गए, जहां उन्होंने पढ़ाई की.
दोनों में जो भी सच हो, लेकिन लुधियाना में भी वो संगीत सीखते रहे. कुछ समय बाद उनके पिता का निधन हो गया. बहन की शादी करवा के वो बंबई चले गए. वहां से अलमोड़ा गए. उसके बाद लखनऊ चले गए. यहां उन्होंने उस्ताद अली अकबर खां से संगीत सीखा. लेकिन कमाई का कोई जरिया नहीं था. वापस घर आ गए. वो डिप्रेशन यानी अवसाद का शिकार हो गए. गुरबत थी ही. एक बीमारी भी हो गई.. अस्थमा यानी दमा.
उसी दौरान बड़े भाई की शादी थी, जिसमें उन्होंने यूं ही उस्ताद अली अकबर खां को भी बुला लिया. खां साहब आ भी गए. यहां उन्होंने जयदेव जी की बुरी हालत देखी और अपने साथ फिर से लखनऊ ले गए. पहले वो अली अकबर खां साहब के असिस्टेंट रहे. उसके बाद टैक्सी ड्राइवर फिल्म से वो एसडी बर्मन के असिस्टेंट हो गए. चेतन आनंद ने उन्हें जोरू का भाई से मौका दिया. फिल्म हम दोनों में उनकी प्रतिभा के असली दर्शन हुए.
जयदेव को प्रयोग के लिए जाना जा सकता है. उन्होंने संगीत में तमाम प्रयोग किया. फिल्मों के अलावा गैर फिल्मी संगीत के लिए भी उन्हें याद किया जाएगा. खासतौर पर मधुशाला के लिए, जिसमें मन्नाडे की आवाज है. उनकी फिल्मों में अंजलि, हम-दोनों, किनारे-किनारे, मुझे जीने दो, रेशमा और शेरा, दो बूंद पानी, मान जाइए, प्रेम पर्बत, परिणय, आलाप, घरौंदा, गमन और जुम्बिश जैसी फिल्में हैं.
जयदेव को तीन राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले. लेकिन फिल्मों की गिनती हमेशा कम रहेगी. अगर आपको ‘नंबर गेम’ पसंद है, तो जयदेव आपके लिए नहीं हैं. अगर क्लासिक म्यूजिक पसंद है. प्रयोग पसंद है. भारतीयता पसंद है, तो जयदेव को सुनिए. सुनते ही रहेंगे.