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जन्मदिन विशेष मोहम्मद रफी: ऐसा फनकार न कभी था, न कभी होगा

रफी साहब को दुनिया को अलविदा कहे 37 साल हो गए. लेकिन अब भी उस आवाज की ताजगी बिल्कुल कम नहीं हुई

Shailesh Chaturvedi

30 जुलाई, 1980 की वो शाम थी. मुंबई तब बंबई हुआ करता था. मॉनसून अपने शबाब पर था. शाम का धुंधलका रात में तब्दील हो रहा था. मोहम्मद रफी एक बांग्ला भजन की रिहर्सल कर रहे थे. वो सहज नहीं थे. थोड़े थके हुए भी लग रहे थे. पत्नी से उन्होंने कहा- मैं बहुत थक गया हूं. लगता नहीं कि गा पाऊंगा. पत्नी ने कहा कि मना कर दो, वो किसी और से गवा लेंगे. रफी ने जवाब दिया – नहीं, वे इतनी दूर कलकत्ता से उम्मीदों के साथ आए हैं. मैं गाऊंगा.

अगली सुबह यानी 31 जुलाई को संगीतकार श्यामल मित्रा उनके घर आए. उन्हीं के लिए बांग्ला भजन गाए जाने थे, जो दुर्गा पूजा के लिए थे. रफी साहब ने फिर अभ्यास शुरू किया. अचानक उन्हें दर्द उठा. करीब साढ़े 12 बजे का वक्त था. पत्नी ने डांटा. लेकिन जवाब मिला– रफी के घर से कोई खाली हाथ नहीं जाता. इसलिए गाना तो गाऊंगा.


उन्हें लगा कि गैस की बीमारी है, जो कई साल से उन्हें थी. लेकिन दर्द नहीं थमा. डॉक्टर को फोन किया गया. डॉक्टर ने कहा कि उन्हें अस्पताल लेकर आएं. रफी को अब भी अंदाजा नहीं था कि ये दर्द क्या आशंकाएं साथ लाया है.

बंबई में 10 बाई 10 के कमरे में रहते रफी

रफी पसीना पसीना थे. रमज़ान का महीना था. जाहिर है, वो भूखे थे. उनके हाथ और पैर पीले पड़ रहे थे. नजदीक के अस्पताल गए. वहां सुविधाएं नहीं थीं, तो बॉम्बे हॉस्पिटल ले जाया गया. अब तक रात हो गई थी. अंधेरा घना हो रहा था. डॉक्टर बाहर आए. उन्होंने बताया कि वो रफी साहब को नहीं बचा पाए. मोहम्मद रफी संसार छोड़ चुके थे. वो आवाज खामोश हो गई, जिसने कई दशकों से संगीत दुनिया को मंत्रमुग्ध किया हुआ था.

रफी के जनाजे में करीब दस हजार लोग शामिल हुए. उस रोज तेज बारिश हो रही थी. लेकिन लोग अपने प्रिय गायक के आखिरी दर्शन करना चाहते थे. उनके सम्मान में दो दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित हुआ. मन्ना डे ने कहा था कि उनसे बेहतर इंसान नहीं देखा और वो मुझसे बेहतर गायक थे. जिन किशोर कुमार के साथ उनकी प्रतिद्वंद्विता के तमाम किस्से हमने-आपने पढ़े होंगे, वो उनके पैरों से लिपटकर रोते रहे थे. शम्मी कपूर ने एक इंटरव्यू में बताया कि वो उस वक्त वृंदावन में थे, जहां किसी ने उनसे कहा कि शम्मी साहब आपकी आवाज़ चली गई.

शादी का गाना हो, विदाई में भावुक पिता की भावनाएं व्यक्त करनी हों, विरह गीत हो, शास्त्रीय संगीत हो, मस्ती हो, मजा हो, रोमांस हो, देशभक्ति हो... कोई भी इमोशन दीजिए. एक आवाज हर तरह की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए बिल्कुल सटीक बैठेगी. वो मोहम्मद रफी की आवाज थी. यकीनन, जब तक संगीत रहेगा, ये आवाज हमेशा सुनाई देती रहेगी. उस आवाज में एक पाकीजगी है, तो शायद ही और कहीं मिले.

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24 दिसंबर, 1924 को अमृतसर के पास कोटा सुल्तान सिंह में रफी का जन्म हुआ था. हाजी अली मोहम्मद के छह बच्चों में रफी दूसरे नंबर पर थे. उन्हें घर में फीको कहा जाता था. गली में फकीर को गाते सुनकर रफी ने गाना शुरू किया. 1935 में रफी के पिता लाहौर चले आए. वहां भट्टी गेट के नूर मोहल्ला में उन्होंने हजामत का काम शुरू किया. रफी के बड़े भाई के दोस्त अब्दुल हमीद ने रफी की प्रतिभा को पहचाना. उन्होंने ही परिवार को मनाया कि वो रफी को बंबई जाने दें. यह 1942 की बात है.

रफी ने उस्ताद अब्दुल वहीद खां, पंडित जीवन लाल मट्टू और फिरोज निजामी से शास्त्रीय संगीत सीखा. 13 साल की उम्र में पहला पब्लिक परफॉर्मेंस दिया. तब उन्होंने केएल सहगल के गाने गाए थे. 1941 में उन्होंने पंजाबी फिल्म के लिए गाना गाया. फिर आकाशवाणी लाहौर के लिए गाने गाए. 1942-43 में बंबई आने के बाद वो और हमीद 10 बाई 10 के कमरे में रुके, जो भिंडी बाजार में था.

रफी किसी फर्जी नाम से पड़ोस की एक विधवा को पैसे भेजा करते थे

1944 में पहली हिंदी फिल्म में उन्होंने गाना गाया. फिल्म थी गांव की गोरी. हालांकि फिल्म एक साल बाद रिलीज हुई. तब तक फिल्म पहले आप का गाना आ चुका था, जिसके संगीतकार नौशाद थे. नौशाद से ही उन्होंने दरख्वास्त की थी कि उन्हें अपने हीरो के साथ गाने का मौका दें. हीरो यानी कुंदनलाल सहगल. नौशाद साहब ने उन्हें निराश नहीं किया और एक गाने में कोरस की दो लाइन गाने का मौका दिया. गाना था – रूही रूही रूही मेरे सपनों की रानी...

रफी ने दो शादियां कीं. पहली शादी बशीरा से, जो गांव में हुई. बशीरा ने विभाजन के वक्त भारत में रहने से इनकार कर दिया और वो लाहौर चली गईं. उसके बाद दूसरी शादी. उनकी पत्नी का नाम था बिलकिस. दोनों शादियों से उनके चार बेटे और तीन बेटियां हैं.

रफी को लेकर तमाम किस्से हैं, जिनसे उनकी शख्सियत का अंदाजा लगता है. आरडी बर्मन का कहना था कि जब भी मेरे गाने रिकॉर्ड होते, रफी साब भिंडी बाजार से हलवा लाते थे. रफी साहब हर सुबह तीन बजे उठ जाते थे. रियाज शुरू हो जाता था. ढाई घंटे संगीत का रियाज करने के बाद वो बैडमिंटन खेलते थे. उन्हें पतंग उड़ाने का बड़ा शौक था.

अपने परिवार के साथ एक ग्रुप फोटो में मोहम्मद रफी

दूसरों की मदद को लेकर उनका एक दिलचस्प किस्सा है. रफी किसी फर्जी नाम से पड़ोस की एक विधवा को पैसे भेजा करते थे. कई साल तक मनी ऑर्डर आया. जब मनी ऑर्डर आना बंद हुआ, तब वह महिला पोस्ट ऑफिस गई. पता करने कि आखिर मनी ऑर्डर क्यों नहीं आ रहा. तब पता चला कि मनी ऑर्डर भेजने वाले की मौत हो गई है और उस शख्स का नाम मोहम्मद रफी है.

रफी साहब की सादगी ही थी, जिसकी वजह से उनके और लता मंगेशकर के बीच सालों तक बातचीत बंद रही. दोनों ने कई साल साथ गाना नहीं गाया. बात है 1962 के आसपास की. मुद्दा था प्लेबैक सिंगर यानी पार्श्वगायक को रॉयल्टी मिलने का. लता मंगेशकर इसके हक में थीं और चाहती थीं कि रफी उनका साथ दें. रफी का कहना था कि अगर निर्माता और संगीतकार ने एक गाना गवाया और उसके पैसे दे दिए, तो फिर आगे क्यों बवाल करना. गायक का काम यहीं खत्म हो जाना चाहिए.

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रफी का तर्क था कि अगर निर्माता को हिट गाने से फायदा होता है, तो फ्लॉप से नुकसान भी होता है. फ्लॉप गाना होने की सूरत में वो गायक से पैसे वापस तो नहीं मांगता. ऐसे में फीस मिलने के साथ ही गायक का रोल खत्म हो जाता है. इस मुद्दे पर दोनों के बीच विवाद हुआ.

फिर माया फिल्म के गाने तस्वीर तेरी दिल में... रिकॉर्ड हो रहा था. अंतरा कैसे गाया जाना चाहिए, इसे लेकर लता और रफी की बहस हुई. संगीतकार सलिल चौधरी ने लता का साथ दिया. रफी नाराज हो गए. लता ने घोषणा कर दी कि वो रफी के साथ नहीं गाएंगी. बाद में संगीतकार जयकिशन ने दोनों की सुलह कराई. छह साल तक साथ न गाने के बाद एसडी बर्मन म्यूजिकल नाइट में उन्होंने एक साथ स्टेज पर गाया.

पंडित नेहरू ने मोहम्मद रफी को रजत पद से सम्मानित किया था

1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद हुस्नलाल-भगतराम, राजेंद्र कृष्ण और मोहम्मद रफी ने रात ही रात में एक गाना तैयार किया - सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों बापू की ये अमर कहानी.... उन्हें पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने घर बुलाया. वहां एक कार्यक्रम रखा गया. पंडित जी ने रफी से यही गाना सुनाने की फरमाइश की. रफी ने गाया. स्वतंत्रता दिवस पर उन्हें नेहरू जी ने रजत पदक से सम्मानित किया.

फिल्म बैजू बावरा का एक भजन है मन तड़पत हरि दर्शन को आज... संगीतकार नौशाद और गीतकार शकील बदायूंनी. इस गीत को गाने में रफी को काफी मुश्किलें आईं. नौशाद साहब ने बनारस से संस्कृत के एक विद्वान को बुलाया, ताकि उच्चारण शुद्ध हो. रफी साहब की जुबान पंजाबी और उर्दू थी, इस वजह से संस्कृत के शब्द का उच्चारण आसान नहीं था. लेकिन वो भजन ऐसा तैयार हुआ कि आज भी मंदिरों में उसके सुर गूंजते हैं.

इसके अलावा ओ दुनिया के रखवाले, मधुबन में राधिका नाची रे, मन रे तू काहे न धीर धरे, मेरे मन में हैं राम मेरे तन में हैं राम, सुख के सब साथी दुख में न कोई, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, बड़ी देर भई नंदलाला जैसे तमाम भजन हैं, जो रफी साहब ने गाए हैं.

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के साथी गायक और गायिकाओं के साथ मोहम्मद रफी

शायद ही कोई संगीतकार होगा, जिसके साथ रफी ने काम न किया हो. नौशाद, एसडी बर्मन, शंकर जयकिशन, रवि, मदन मोहन, ओपी नैयर, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल... हर कोई उनका मुरीद था. रफी ने अंग्रेजी में भी गाने गाए. उनकी एक इंग्लिश एल्बम आई. हालांकि रफी के दीवानों को उनकी वो अंग्रेजी शायद पसंद न आए. फिल्म आसपास के लिए गाया गाना उनका आखिरी था, जिसके संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल थे. उनकी पत्नी के मुताबिक रफी साहब के पसंदीदा गानों में सबसे ऊपर फिल्म दुलारी का गाना था. नौशाद साहब का संगीतबद्ध– सुहानी रात ढल चुकी, ना जाने तुम कब आओगे.

रफी साहब को दुनिया को अलविदा कहे 37 साल हो गए. लेकिन अब भी उस आवाज की ताजगी बिल्कुल कम नहीं हुई है. शम्मी कपूर के तमाम नटखट गाने सुनें, दिलीप कुमार के लिए गाए दुखभरे गीत, रोमांटिक गीत, भजन.. बस, नाम लीजिए. रफी साहब की आवाज आपको उसी मूड में पहुंचा देगी. सही कहा गया है- उनकी आवाज सीधे दिलों तक पहुंचती है. सीधे ईश्वर तक संपर्क साधने का काम करती है. 37 नहीं, 370 साल बाद भी उस आवाज की ताजगी ऐसे ही बरकरार रहेगी.

(यह लेख 31 जुलाई, 2017 को पहली बार मोहम्मद रफी की पुण्यतिथि पर प्रकाशित हुआ था. हम इसे आपको दोबारा पढ़वा रहे हैं)