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जन्मदिन विशेष: 1991, जब मनमोहन सिंह को बलि का बकरा बनाना चाहते थे राव

मनमोहन सिंह नरसिम्हा राव के जन्मदिन के कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाले कांग्रेसी नेता होते थे. पूछे जाने पर उनका जवाब होता कि राव ने उन्हें आर्थिक सुधारों के मामले में पूरी छूट दी और इसके बदले में साल में एक दिन राव के नाम करना उसकी एक बहुत छोटी सी कीमत है

Animesh Mukharjee

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भारतीय अर्थव्यवस्था से जुड़े हर अहम पद पर रहे हैं. बतौर प्रधानमंत्री उनके दो कार्यकालों में भी काफी अंतर रहा है. एक तरफ जहां पहले कार्यकाल में सूचना के अधिकार (आरटीआई) जैसे कई बड़े फैसले लिए गए, उनके दूसरे कार्यकाल पर अनगिनत कारणों से उंगलियां उठीं. इन सबके बीच मनमोहन सिंह का यह कथन रह-रहकर सामने आता है, ‘इतिहास मेरे प्रति विनम्र रहेगा.’ आज से कुछ दशकों बाद इतिहास में मनमोहन सिंह का आकलन बतौर प्रधानमंत्री होगा. लेकिन बतौर वित्त मंत्री उनके कार्यकाल को इतना वक्त गुजर चुका है कि उसपर बात होने लगी है.

विनय सीतापति की किताब ‘The Half Lion’ यूं पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के ऊपर है लेकिन इसमें 1992 के आर्थिक सुधारों से जुड़ी कुछ बातें हैं जो आज की तारीख में मनमोहन सिंह के परिप्रेक्ष्य में ज्यादा मौजूं हैं. आगे बढ़ने के पहले किताब के बारे में एक बात और कही जा सकती है. पेंग्विन की इस किताब को ऑक्सफोर्ड के लिए नीलम भट्ट ने बेहद खूबसूरती से हिंदी में लिखा है. इस गुणवत्ता के साथ लिखे गए अनुवाद कम ही मिलते हैं.


बलि का बकरा!

सीतापति के मुताबिक 19 जून, 1991 को प्रधानमंत्री बनने के ठीक दो दिन पहले नरसिम्हा राव को आर्थिक संकट की गंभीरता का अहसास हुआ. उन्होंने पिछली सरकार में मंत्री रहे सुब्रमण्यम स्वामी को फोन कर कुछ दस्तावेज मंगवाए. स्वामी बताते हैं कि उन्होंने राव को अर्थव्यवस्था पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह दी. इसके बाद सबसे अहम कदम था वित्तमंत्री चुनना.

किताब के मुताबिक प्रणब मुखर्जी अपने आप को अगला वित्त मंत्री मान चुके थे. 20 जून को उन्होंने जयराम रमेश से कहा था, ‘जॉयराम, तुम मेरे साथ नॉर्थ ब्लॉक में होगे या पीवी के साथ साउथ में.’ प्रणव इससे पहले 1982 से 1984 तक वित्त मंत्री रहे थे और उस दौर को क्रोनी कैपेटिलज़्म काफी फला-फूला. किताब में संजय बारू के हवाले से बताया गया है कि इसी दिन शाम को एक आईबी अधिकारी राव के कहने पर प्रणब मुखर्जी से मिला और शाम तक वो पद की दौड़ से बाहर हो गए. इसके बाद मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनने के लिए मनाया गया.

मनमोहन सिंह ने कई साल बाद एक इंटरव्यू में बताया, ‘मैंने कहा कि मैं पद तभी स्वीकार करूंगा जब मुझे उनका पूरा समर्थन मिलेगा.’ इसके बाद राव का कहना था, ‘आपको पूरी छूट होगी, अगर नीतियां सफल रहीं तो हम सभी उनका श्रेय लेंगे मगर असफल होने पर आपको जाना होगा.’

इतिहास जानता है कि मनमोहन सिंह को नहीं जाना पड़ा, बल्कि उनके चेहरे की आड़ में राव ने कई कठोर फैसले लिए. मगर एक समय ऐसा आया कि मनमोहन वित्त मंत्री पद छोड़ने के बारे में सोचने लगे. असल में मनमोहन सिंह राजनीतिज्ञ नहीं थे. उन्होंने रुपए का दो बार अवमूल्यन किया और अर्थव्यवस्था को विदेशी कंपनियों के लिए खोल दिया. इस पर तत्कालीन नेता विपक्ष ने संसद में उनकी काफी आलोचना कर दी. मनमोहन वाजपेयी की आलोचना से आहत हुए और उन्होंने राव से कहा कि वो पद छोड़ने के बारे में सोच रहे हैं. राव वाजपेयी के अच्छे दोस्त थे. उन्होने मनमोहन सिंह को वाजपेयी से मिलने के लिए कहा. दोनों की मुलाकात में जो भी बातें हुईं, मनमोहन सिंह उसके बाद से वाजपेयी के मित्र बने रहे. पिछले कुछ वर्षों में दो नेता बीमार वाजपेयी से मिलने नियमित रूप से जाते थे, एक लाल कृष्ण अडवाणी और दूसरे मनमोहन सिंह.

रुपए का अवमूल्यन

बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर सुपर प्राइमिनिस्टर के नीचे काम करने की बात कही जाती है. लेकिन वित्त मंत्री के तौर पर उनका यह कार्यकाल बिल्कुल उल्टा था. मनमोहन ने 1 जुलाई, 1991 को रुपए का न्यूनतम अवमूल्यन किया. रुपए की कीमत 6-7 प्रतिशत नीचे गई. रुपए की कीमत गिरने को देश की प्रतिष्ठा से जोड़ा गया. सबसे अहम बात थी कि इस फैसले की जानकारी कांग्रेस के नेताओं और मंत्रियों को भी पहले से नहीं थी. लोग इस झटके से उबरे ही नहीं थे कि 3 जुलाई को मनमोहन फिर से रुपए का बड़ा अवमूल्यन करने वाले थे.

प्रणब मुखर्जी

इस बार के बाद रुपए की कीमत कुल मिलाकर 20 प्रतिशत गिर जाती. विनय सीतापति के मुताबिक राव ने मनमोहन को से कहा कि कृपया ऐसा न करें. लेकिन मनमोहन सिंह ने जवाब दिया कि तीर कमान से निकल चुका है. रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर सी रंगाराजन घोषणा कर चुके थे. सरकार की आलोचना शुरू हो गई. मनमोहन सिंह बताते हैं कि उन्होंने तब प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना चाहा, लेकिन मनमोहन को बलि का बकरा बनाने की बात कह चुके राव उस अहम मौके पर उनके साथ खड़े हो गए.

ऐतिहासिक बजट और लाइसेंस राज का खात्मा

24 जुलाई, 1991 को मनमोहन सिंह आजाद भारत के इतिहास को बदल देने वाला बजट पेश करने वाले थे. देश को उस समय वित्तीय घाटे से उबरने के लिए 16 हजार करोड़ की जरूरत थी. तमाम उद्योगपति राव पर दवाब डाल रहे थे कि सरकारी कंपनियों को बेचकर यह रकम जुटा ली जाए. यह तरीका उदारीकरण नहीं बल्कि क्रोनी कैपिटलिज़्म का बदला हुआ रूप था. आखिरकार तय हुआ कि लाइसेंस राज खत्म होगा और विदेशी कंपनियों के लिए रास्ता खुलेगा. इसके साथ ही आर्थिक सुधारों के लिए कई तरह की सब्सिडी कम की जाएंगी.

बजट वाले दिन दोपहर 12:50 बजे को उद्योग मंत्री पी जे कुरियन ने संसद में एक नोट पढ़ा. इसमें कुछ उद्योगों को छोड़कर बाकी के लिए लाइसेंस की अनिवार्यता खत्म करने की बात कही गई थी. साधारण ढंग से पढ़े गए इस नोट पर कम ही लोगों ने ध्यान दिया, और इसके बाद मनमोहन सिंह के बजट ने रही-सही कसर पूरी कर दी. भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे बड़े बदलावों में से एक की गंभीरता को फौरी तौर पर न विपक्ष समझ पाया न मीडिया. इस बड़े फैसले को बिना हंगामे के लागू करने की यह रणनीति किसकी थी इस पर एक राय नहीं है. कई लोग कहते हैं कि यह राव की कूटनीति थी, कुछ का मानना है कि यह उद्योग मंत्रालय से जुड़े कुछ अधिकारियों के कहने पर किया गया.

मनमोहन सिंह ने इस बजट में चीनी, एलपीजी के मूल्य बढ़ाए, आयात-निर्यात से जुड़े नियमों में ढील दी. उर्वरकों की सब्सिडी 40 प्रतिशत कर दी. और इन सबके साथ कई बार राजीव गांधी के सपने का जिक्र किया. अगर समीक्षक के तौर पर देखें तो यह सारे फैसले राजीव गांधी के विचारों और उनके विजन से ठीक उल्टे थे. मगर शायद उस समय राजीव गांधी का नाम वो चाशनी था जिसमें लपेटकर उदारीकरण की कड़वी गोली देश को खिलाई गई. वैसे देश की अर्थव्यवस्था को जैसी कड़वी गोली उस समय चाहिए थी ठीक वैसी ही मनमोहन सिंह ने खिलाई. इन सबके पीछे प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव का पूरा समर्थन और तैयारी थी.

नरसिम्हा राव (काली बंडी)

मगर जब फैसले की तारीफ लेने की बात आई तो राव एक बार फिर चुप हो गए. अगले दिन के अखबारों में नरसिम्हा राव का कहीं कोई जिक्र नहीं था. टाइम्स ऑफ इंडिया ने बजट को ऐतिहासिक बताते हुए मनमोहन सिंह की तारीफ की. द इकॉनमिस्ट ने सिंह का नया गीत नाम से हेडलाइन दी. उसबार की इंडिया टुडे ने भी कवर पर मनमोहन सिंह की तस्वीर ही छापी.

आखिरी मौके तक दोस्ती निभाना

राजनीति में बड़े स्टेट्समैन आखिरी दिनों में अक्सर हाशिए पर चले जाते हैं. राव के साथ भी यही हुआ. जब सोनिया गांधी का दौर शुरू हुआ तो राव के साथ बहुत खराब व्यवहार हुआ. उनके शव को कांग्रेस के दफ्तर में नहीं लाया गया. राव का अंतिम संस्कार दिल्ली में नहीं हुआ. उनके अंतिम संस्कार में सोनिया गांधी नहीं पहुंची. उनके लिए कोई स्मारक नहीं बना. इन सबके बीच राव का जन्मदिन उनका परिवार निजी तौर पर हर साल मनाता रहा. इस निजी कार्यक्रम से कांग्रेस ने एक अलिखित दूरी बना रखी थी. तमाम नाराजगियों के बाद भी एक शख्स हर साल राव से जुड़े इस कार्यक्रम में जाता रहा. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नरसिम्हा राव के जन्मदिन के कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाले कांग्रेसी नेता होते थे. पूछे जाने पर उनका जवाब है कि राव ने उन्हें आर्थिक सुधारों के मामले में पूरी छूट दी और इसके बदले में साल में एक दिन राव के नाम करना उसकी एक बहुत छोटी सी कीमत है. वो राव की स्मृतियों का सम्मान करते हैं.

राजनीति में इस तरह के गुजरे हुए कल के लिए इस तरह का सम्मान बहुत कम लोग दिखाते हैं. मनमोहन सिंह के बारे में भी हम उम्मीद करेंगे कि देश उन्हें तमाम आलोचनाओं के बाद भी वो सम्मान देता रहेगा जिसके वो हकदार हैं.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)