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डॉ लोहिया के विचार क्या, विरासत भी नहीं संभाल पाए समाजवादी

डॉक्टर लोहिया से जुड़े ऐतिहासिक पोद्दार हॉस्टल पर कई बिल्डरों की नजर है

Abhishek Ranjan Singh

पचास वर्षों में लोहिया के नाम पर उनके अनुयायियों ने जमकर सियासी फसलें काटीं लेकिन देश में मौजूद उनकी निशानियों को बचाने का कोई प्रयास इन्होंने नहीं किया. पहले हिमायत नगर स्थित सोशलिस्ट पार्टी के केंद्रीय दफ्तर का वजूद मिटा और अब कोलकाता का पोद्दार छात्र निवास का अस्तित्व खतरे में है.

आज जब यह रिपोर्ट प्रकाशित हुई है, कोलकाता स्थित पोद्दार छात्र निवास के विद्यार्थियों की ओर से डॉ. राम मनोहर लोहिया की 50 वीं पुण्यतिथि मनाई जा रही है. जिस पोद्दार निवास में रहकर लोहिया ने बीए की पढाई की, उस पोद्दार निवास के लिए यह पहला मौका है, जब भारतीय राजनीति के इस चिर विद्रोही पर कोई कार्यक्रम हो रहा है.


आम लोगों को पोद्दार छात्र निवास और लोहिया से जुड़े प्रसंगों के बारे में भले ही जानकारी न हो, लेकिन लोहिया के नाम पर सत्ता की राजनीति करने वाले इससे अनभिज्ञ नहीं है. लोहिया की पचासवीं बरसी पर पोद्दार छात्र निवास की अहमियत को लेकर लोगों के जेहन में सवाल उठने ही चाहिए और यहां के छात्र यही करने की कोशिश कर रहे हैं.

इटावा में मधु लिमये और कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया के साथ लोहिया

बंगाल और खासकर कोलकाता से लोहिया का गहरा नाता रहा है. पहले मुंबई से मैट्रिक और वाराणसी से इंटरमीडिएट करने के बाद उन्होंने स्नातक की पढ़ाई कोलकाता के विद्यासागर कॉलेज से पूरी की. यह साल 1926 की बात है. पढ़ाई के दौरान वे कॉलेज से करीब 900 मीटर दूर चित्तरंजन एवेन्यू स्थित पोद्दार छात्र निवास में रहते थे. मारवाड़ी समाज द्वारा निर्मित यह ऐतिहासिक छात्रावास करीब सौ साल पुराना है. जो उन दिनों स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी गतिविधियों का केंद्र था.

आज यह इलाका कोलकाता के पॉश कॉलोनी में तब्दील हो चुका है. यहां जमीनों की कीमत आसमान छू रही है. शायद यही वजह है कि रीयल एस्टेट के धंधे से जुड़े लोगों की गिद्ध दृष्टि पोद्दार छात्र निवास पर है. दो मंजिला इस इमारत में कुल 34 कमरे हैं, जिनमें करीब दो सौ छात्र पढ़ते हैं. इमारत की संरचना में कोई खास बदलाव नहीं आया है. यहां तक कि जिस सभागार में वह बैठकें करते थे. उनमें भी चंद जरूरी तब्दीलियों के बहुत ज्यादा फर्क नहीं आया है.

रामकुमार जैन का कोलकाता में अपना कारोबार है. वर्ष 1964 में वह इसी पोद्दार छात्र निवास में रहते थे. वह बताते हैं, कोलकाता आने पर डॉ. लोहिया पोद्दार छात्र निवास जरूर आते थे. यहां के छात्रों से बात करते थे. संसद में दिए उनके भाषणों पर हम लोग खूब चर्चा करते थे. एक बार मैंने पूछा, डॉ. साहब पोद्दार छात्र निवास से आपको इतना लगाव क्यों है? उनके उत्तर का एक-एक शब्द मुझे याद है. उन्होंने कहा था यहां मेरी आत्मा बसती है और यहां आकर मैं खुद से आत्म साक्षात्कार करता हूं. इसलिए यहां से जुड़ी स्मृतियों को समेटना चाहता हूं.

सोशलिस्ट पार्टी के लिए खरीदी गई जमीन के दस्तावेज और लोहिया के स्वागत में लिखा गया पर्चा

रामकुमार जैन आगे बताते हैं, जब तक लोहिया जीवित रहे, उनके साथ कोलकाता के समाजवादी नेता भी आते रहे. लेकिन उनके निधन के बाद किसी ने भी इस जगह की सुध नहीं ली. पचास साल बाद पोद्दार छात्र निवास में उन्हें याद किया जा रहा है. यह बेहद खुशी की बात है. राजकुमार रूंगटा पोद्दार छात्र निवास एलुमनी एसोसिशन के अध्यक्ष हैं. कोलकाता में लोहिया से जुड़ी इस विरासत को बचाने के लिए वह पोद्दार छात्र निवास ट्रस्ट से जुड़े लोगों के खिलाफ कानूनी लड़ाई भी लड़ रहे हैं.

वह बताते हैं, आजादी से कई दशक पहले स्वतंत्रता सेनानी गजानंद पोद्दार और उनके सहयोगियों ने इस छात्र निवास की स्थापना की थी, ताकि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ यहां राष्ट्रवाद और आजादी की अलख जग सके. लेकिन पोद्दार छात्र निवास के मौजूदा ट्रस्टियों को इस समृद्ध धरोहर से अब कोई वास्ता नहीं रहा.

करीब 18 बिस्वा जमीन में बना यह छात्र निवास उचित देख-रेख के अभाव में जर्जर होता जा रहा है. ट्रस्ट से जुड़े लोग सड़क से सटी कुछ जमीनों का व्यासायिक इस्तेमाल कर रहे हैं. इससे प्रति महीने लाखों रुपये का किराया आता है. लेकिन छात्र निवास के भवन की मरम्मत और यहां पढ़ने वाले छात्रों की सुविधाओं पर इसे खर्च नहीं किया जाता. भवन के रखरखाव और बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने के बाबत ट्रस्ट से जुड़े लोगों को जानकारी दी. लेकिन उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया. नतीजतन पोद्दार छात्र निवास ट्रस्ट के खिलाफ कलकत्ता हाईकोर्ट में मुकदमा दायर करना पड़ा.

राजकुमार रूंगटा के मुताबिक चित्तरंजन एवेन्यू इलाके में जमीनों की कीमत काफी ज्यादा है. पोद्दार छात्र निवास के ट्रस्टी रीयल एस्टेट कंपनियों के साथ मिलकर इसे खुर्द-बुर्द करना चाहते हैं, क्योंकि आज छात्र निवास की संपत्ति की कीमत करीब सौ करोड़ से ज्यादा है.

पोद्दार छात्र निवास की करोड़ों की जमीन पर रियल इस्टेट कंपनियों की नजर है

डॉ.राम मनोहर लोहिया की विरासत के नाम पर उनके राजनीतिक शिष्यों ने बिहार और उत्तर प्रदेश में वर्षों तक शासन किया. चुनावी फायदों के लिए इन्होंने लोहिया को जमकर भुनाया. लेकिन सत्ता मिलने के बाद इन लोगों ने वे सारे कर्म किए जो लोहिया की सोच से बिल्कुल अलग थे. काफी हद तक मुमकिन है कि जिस तरह देश में लोहिया से जुड़ी विरासतों के निशान मिट गए, उसी तरह आने वाले कुछ वर्षों में कोलकाता में लोहिया से जुड़ी यह ऐतिहासिक धरोहर भी हैदराबाद के हिमायतनगर स्थित सोशलिस्ट पार्टी के केंद्रीय कार्यालय की तरह अतीत का हिस्सा बन जाए!

साल 2010 में डॉ. लोहिया की जन्मशती मनाई गई. उसके तीन साल बाद इन पंक्तियों का लेखक लोहिया और सोशलिस्ट पार्टी से जुड़ी निशानियों की तलाश में हैदराबाद गया था. शहर के बीचों बीच मशहूर हुसैन सागर तालाब के सामने है हिमायतनगर. पचास और साठ के दशक में यहां इतनी घनी आबादी नहीं थी. छोटे-बड़े प्रिंटिग प्रेस के अलावा अंग्रेजी, तेलुगू और उर्दू में प्रकाशित होने वाले कुछ अखबारों व पत्रिकाओं के यहां दफ्तर थे. लेकिन हिमायतनगर अब काफी बदल चुका है. गिनती भर यहां पुरानी इमारतें बची हैं. उनकी जगह यहां मल्टी स्टोरेज बिल्डिंग और शॉपिंग मॉल्स खुल गए हैं.

हिमायतनगर से लोहिया और उनके समकालीन नेताओं का पुराना लगाव रहा है. उन दिनों हैदराबाद से न सिर्फ सोशलिस्ट पार्टी का संचालन, बल्कि उस समय की मशहूर पत्रिका ‘चौखम्भा’ का प्रकाशन भी यहीं से होता था. यहां आने से पहले भरोसा था कि ‘सोशलिस्ट पार्टी’ और लोहिया से जुड़ी निशानियां जरूर महफूज होंगी. लेकिन अब वहां वैसा कुछ भी नहीं है. उस्मानिया यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफेसर केशवराव जाधव लोहिया के करीबियों में से एक हैं. प्रो. जाधव लोहिया के संपादन में प्रकाशित अंग्रेजी पत्रिका ‘मैनकाइंड’ के संपादकीय मंडल में शामिल थे.

पुरानी बातों को याद करते हुए वह कहते हैं, “उत्तर भारत का एक नेता, जिसकी प्राथमिकता दिल्ली होनी चाहिए. उसके बरक्स वह अपनी पार्टी का केंद्रीय कार्यालय हैदराबाद में बनाता है. ऐसा साहस लोहिया जैसा जीवट इंसान ही कर सकता था. प्रो. जाधव कहते हैं, एक बार मैंने उनसे पूछा, डॉक्टर साहब सोशलिस्ट पार्टी का दफ्तर हैदराबाद बनाने की क्या वजह है? थोड़ी देर खामोश रहने के बाद उन्होंने कहा, ‘देश के ज्यादातर नेता अपनी आधी ऊर्जा दिल्ली की माया में खपा देते हैं. केंद्रीय राजधानी होने का मतलब यह नहीं कि राजनीतिक रूप से कोई शहर उतना उर्वर ही हो.

देश की असल राजनीति भारत के सुदूर इलाकों से शुरू होती है. हैदराबाद से सोशलिस्ट पार्टी का संचालन करना चुनौती जरूर है. लेकिन यह चुनौती हमें मंजूर है.‘ खैर उनकी मौत के बाद उनसे जुड़े किस्से तो रह गए, लेकिन उनसे जुड़ी विरासत मिटते चले गए. उनके बाद हिमायतनगर ने जैसे खामोशी की चादर ओढ़ ली हो. हैदराबाद में डॉ.लोहिया के उद्योगपति मित्र बदरीविशाल पित्ती जब तक जिंदा रहे, तब तक हिमायतनगर में कम ही संख्या में सही लोग आते थे. उनके गुजरने के बाद पार्टी का दफ्तर और मकान भी बिक गया.

खुद को लोहिया का अनुयायी बताने वालों ने भी इसे बचाने में कोई रूचि नहीं ली. हमारे लिए हिमायतनगर में पचास साल पुराने किसी मकान का पता ढूंढना बेहद मुश्किल था. वहां मौजूद कई लोगों से सोशलिस्ट पार्टी के दफ्तर का पता पूछना बेकार रहा. निराशा में वापस लौटने से पहले आखिरी कोशिश के बाद एक बुजुर्ग फल विक्रेता को जब प्लाट नंबर बताया गया, तो उन्होंने सामने की गली में जाने का इशारा किया. वहां पहुंचने के बाद पता चला कि दफ्तर की जगह बहुमंजिली इमारत वहां थी. वहां तैनात सुरक्षाकर्मियों ने बताया कि करीब बीस साल पहले पुराने मकान को तोड़कर ये फ्लैट्स बनाए गए हैं. पहले यह जमीन किसकी थी नहीं पता, लेकिन दो पार्ट में बने ये सभी फ्लैट हैदराबाद की एक रीयल इस्टेट कंपनी ने बनाईं हैं.

हैदराबाद में ही डॉ. लोहिया के एक और करीबी हैं रावेला सौमेय्या. हिमायतनगर में सोशलिस्ट पार्टी की जमीन नहीं बच पाने का उन्हें काफी दुख है. मौजूदा समाजवादी नेताओं के रवैये से निराश सौमेय्या कहते हैं, राजनीति और सत्ता के लिए जिन लोगों ने डॉ. लोहिया के नाम का इस्तेमाल किया. पी.जनार्दन रेड्डी संयुक्त आंध्र प्रदेश में सोशलिस्ट पार्टी के बड़े नेताओं में शुमार रहे हैं. लोहिया के कहने पर उन्होंने वारंगल से चुनाव लड़ा और लगातार दो बार विधायक चुने गए. रेड्डी बताते हैं कि न सिर्फ हैदराबाद बल्कि करीमनगर, आदिलाबाद और महबूबनगर जिलों में भी सोशलिस्ट पार्टी और लोहिया से जुड़ी कई निशानियां थी. लेकिन उनका भी हश्र हिमायतनगर की तरह हो गया.

कुछ ऐसा ही किस्सा नई दिल्ली स्थित 7 गुरूद्वारा रकाबगंज रोड का है. बतौर सांसद डॉ. लोहिया साल 1963 से 1967 तक इसी सरकारी आवास में रहे. उनकी मौत के बाद इसे राष्ट्रीय स्मारक बनाने की चर्चा जरूर हुई. लेकिन उनके राजनीतिक उत्तराधिकारियों ने इस बाबत कोई रूचि नहीं दिखाई. आखिर में एक चर्चा लोहिया के अत्यंत घनिष्ठ रहे हैदराबाद के मशहूर उद्योगपति बदरी विशाल पित्ती की.

एक मर्तबा लोहिया पित्ती के घर मौजूद थे. वहीं प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन भी थे. लोहिया ने हुसैन से कहा, सुना है तुम काफी अच्छी पेंटिंग्स बनाते हो? लेकिन तुम्हारी यह कला टाटा-बिड़ला जैसे बड़े औद्योगिक घरानों की ड्राइंग रूम में कैद होकर रह गयी है. मेरे ख्याल से कुछ ऐसा करो, जिससे तुम्हारी कला से देश की आम जनता भी वाकिफ हो. हुसैन ने कहा डॉ. साहब मशविरा दें. लोहिया ने उनसे कहा, तुम रामायण और रामलीला पर आधारित चित्रकारी करो, क्योंकि राम एक आदर्श पुरुष हैं.

हुसैन तैयार हो गए और उन्होंने कुछ वर्षों की मेहनत से रामायण से जुड़े करीब दौ सौ से ज्यादा पेंटिंग्स बनाईं. लोहिया और बदरी विशाल पित्ती की मौत के बाद हुसैन की बनाई पेंटिंग्स काफी समय तक हैदराबाद में उनके ही घर में रहीं. लेकिन बाद में उनके बेटे शरद पित्ती ने इनकी नीलामी की शुरूआत की. काफी ऊंची कीमतों पर ये कलाकृतियां लंदन और दूसरे में शहरों में नीलाम होती रही हैं. हुसैन की बनाई उन पेंटिग्स की आज अहमियत बढ़ गई है. क्योंकि केंद्र सरकार अयोध्या में रामायण संग्रहालय बनाने की बात कह रही है. अगर हुसैन की बनाई पेंटिग्स को प्रस्तावित रामायण संग्रहालय में रखा जाता तो इसकी एक अलग पहचान होती.

निष्कर्षतः बगैर लोहिया पांच दशक में भारतीय राजनीति का चाल,चरित्र और चेहरा काफी बदल गया है. खुद लोहिया से जुड़े लोग इन धरोहरों को बचाने नाकाम रहे. जबकि वैचारिक समाजवाद से इनका रास्ता काफी पहले से टूट चुका है.