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जन्मदिन विशेष: फिल्मकार नहीं, संस्था की तरह थे बिमल रॉय

बिमल रॉय की खूबी यह थी कि वे भले ही गंभीर और कलात्मक फिल्में बनाते हों. लेकिन दर्शकों को वह बहुत पसंद थे

Rajendra Dhodapkar

बिमल रॉय ने अपना फिल्मी करियर कोलकाता से शुरू किया. लेकिन दूसरे महायुद्ध और बंगाल के विभाजन के बाद कोलकाता में फिल्म उद्योग की स्थिति बहुत खराब हो गई थी. इसलिए कई बंगाली दिग्गजों के साथ वे भी मुंबई आ गए. हालांकि कोलकाता और बंगाली संस्कृति उनसे छूटी नहीं.

यह उनका मुंबई के फिल्म उद्योग पर बडा उपकार था क्योंकि उन्होंने मुंबई में सुसंस्कृत और संवेदनशील सिनेमा का जो माहौल बनाया उसने भारतीय सिनेमा को बहुत समृद्ध बनाया. मुंबई के सिनेमा में विभाजन के आसपास पंजाब और बंगाल से कई रचनाशील लोग आए.


एक लहर पंजाब से आई जिसमें चेतन आनंद ,देवानंद, बलराज साहनी ,साहिर लुधियानवी और बीआर चोपड़ा जैसे लोग आए. दूसरी ओर बंगाल से नितिन बोस, बिमल रॉय और सलिल चौधरी जैसे लोग. इनमें से ज्यादातर लोग प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े थे या जिनकी सामाजिक प्रतिबद्धता जरूर साफ थी. बिमल रॉय किसी विचारधारा से नहीं जुड़े थे, लेकिन मानवीय संवेदना और सामाजिक प्रतिबद्धता उनकी हर फिल्म में दिखती है.

यादगार रहे बिमल रॉय की फिल्मों में महिला चरित्र

उस दौर में दो फिल्मकार ऐसे हैं जिनकी फिल्मों में महिलाओं का चित्रण इतनी संवेदनशीलता के साथ किया गया है कि ऐसा चित्रण बाद में हिंदी सिनेमा में कभी नहीं देखा गया. महिला चरित्रों को सिर्फ सजावट के लिए इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर मुंबइया फिल्मकारों ने उनसे कुछ नहीं सीखा.

शेमारू के ट्विटर अकाउंट से

पहले फिल्मकार थे अमिय चक्रवर्ती, जिन्होंने दाग,पतिता और सीमा जैसी फिल्में बनाईं और दूसरे थे बिमल रॉय. दोनों ही लंबी उम्र न पा सके. अमिय चक्रवर्ती का 44 साल की उम्र में सन 1957 में निधन हो गया और बिमल रॉय को कुछ ज्यादा यानी 55 साल की उम्र नसीब हुई । दो बीघा जमीन, परिणिता, सुजाता, परख और बंदिनी जैसी फिल्मों के महिला चरित्र सिने इतिहास में यादगार हैं.

मुंबई के व्यावसायिक माहौल में बिमल रॉय सिर्फ एक फिल्मकार ही नहीं एक संस्था थे, जिसने मानवीय सरोकारों वाले कलात्मक सिनेमा को आगे बढ़ाया. बिमल रॉय के साथ लेखक नबेंदु घोष थे. संगीतकार सलिल चौधरी को बिमल रॉय ने दो बीघा जमीन के लिए हिंदी सिनेमा में पहला ब्रेक दिया. सलिल चौधरी ने दो बीघा जमीन की कहानी भी लिखी थी और बलराज साहनी को मुख्य भूमिका के लिए बिमल रॉय से मिलवाया था.

बिमल रॉय के ही साथ शुरू हुआ था गुलज़ार का फिल्म करियर

बलराज साहनी ने 'मेरी फ़िल्मी आत्मकथा' में बिमल रॉय से पहली मुलाकात का बड़ा दिलचस्प वर्णन किया है. ऋषिकेश मुखर्जी बिमल रॉय की फिल्मों के संपादक हुआ करते थे, गुलज़ार का फिल्मी करियर भी बिमल रॉय की बंदिनी से शुरू हुआ था और बासु भट्टाचार्य भी बिमल रॉय के सहायक हुआ करते थे.

असित सेन जो बाद में कॉमेडिन की तरह मशहूर हुए वे भी बिमल रॉय के सहायक थे. बिमल रॉय प्रोडक्शन के लिए उन्होंने दो फिल्में 'परिवार' और 'मुजरिम कौन' निर्देशित की थी. बिमल रॉय की मंडली में एक भव्य उपस्थिति महान फिल्मकार ऋत्विक घटक की थी.

एनएफएआई के ट्विटर अकाउंट से

घटक ने मधुमती की पटकथा लिखी थी और अक्सर उनकी फिल्मों के कुछ हिस्से फिल्माने में उनकी मदद भी कर देते थे. जानकारों का ऋत्विक घटक के हवाले से यह कहना है कि फिल्म बंदिनी का गाना 'मेरे साजन हैं उस पार' का फिल्मांकन घटक ने किया था. बिमल रॉय प्रोडक्शन के तहत जितने निर्देशकों ने फिल्में बनाई हैं उतने निर्देशकों को शायद किसी भी और बैनर ने मौका नहीं दिया है.

अल्पभाषी बिमल रॉय का उदार और गंभीर व्यक्तित्व इन सबको जोड़ने वाली कड़ी था. एक बार बिमल रॉय और उनके साथियों ने मिलकर एक फिल्म कोऑपरेटिव का गठन किया था, जिसके तहत गंभीर और कलात्मक फिल्में बनाने का विचार था. शायद वह कोऑपरेटिव तो ज्यादा नहीं चल पाया लेकिन ऋषिकेश मुखर्जी की पहली फिल्म 'मुसाफिर' इसी कोऑपरेटिव के तहत बनी थी.

बिमल रॉय की खूबी यह थी कि वे भले ही गंभीर और कलात्मक फिल्में बनाते हों. लेकिन उनका मुहावरा ऐसा था कि आम दर्शक भी उन्हें पसंद करता था दो बीघा जमीन, सुजाता और बंदिनी जैसी गंभीर फिल्में भी बॉक्स ऑफिस पर सफल रही थीं. उनके इस हुनर का सबसे बडा उदाहरण मधुमती है जिसकी सफलता और लोकप्रियता के आगे यह बात अक्सर लोग भूल जाते हैं कि वह उच्च कोटि की कलात्मक फिल्म है.

कुछ इस तरह लिखा गुलज़ार ने अपना पहला फिल्मी गाना

शैलेंद्र बिमल रॉय के स्थायी गीतकार थे. शैलेंद्र का बंदिनी के दौरान सचिन देव बर्मन से झगड़ा हो गया. तब फिल्म का एक गीत लिखा जाना बाकी था. तब शैलेंद्र ने ही गुलज़ार को बिमल रॉय के पास भेजा और गुलज़ार ने अपना पहला गीत 'मोरा गोरा अंग लै ले' लिखा. उसके कुछ पहले बिमल रॉय के पटकथा लेखक नबेंदु घोष ने शैलेंद्र को फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी 'तीसरी क़सम उर्फ़ मारे गए गुलफाम' के बारे में बताया. शैलेंद्र ने उस कहानी पर फिल्म बनाई जिसकी पटकथा नबेंदु घोष ने लिखी और जिसका निर्देशन बिमल रॉय के एक सहायक बासु भट्टाचार्य ने किया.

अपनी मृत्यु के पहले बिमल रॉय कुंभ के मेले की पार्श्वभूमि पर एक फिल्म बनाना चाहते थे जो समरेश बसु के उपन्यास पर आधारित थी. गुलज़ार ने उन दिनों के बारे में एक मार्मिक संस्मरण लिखा है. बिमल रॉय की अस्वस्थता के दौरान भी इस पर काम चलता रहा. इलाहाबाद के माघ मेले की काफी सारी फुटेज इस फिल्म के लिए शूट की गई लेकिन तभी कैंसर से पीड़ित बिमल रॉय चल बसे. अपने पचपन साल के जीवन में वे फिल्म प्रेमियों को इतना कुछ दे गए कि हम हमेशा उनके कृतज्ञ रहेंगे.

(यह लेख पूर्व में छप चुका है)