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वीवी गिरि: ऐसे व्यक्ति जो मानते थे कि हर हाल में मजदूरों की सुनी जाए

उनकी सोच थी कि औद्योगिक विवाद की स्थिति में प्रबंधन हर हाल में मजदूरों से बातचीत के जरिए ही समाधान निकाले

Chandan Srivastawa

सवा अरब से ज्यादा की आबादी वाले गणतंत्र भारत के सर्वोच्च सिंहासन से कई दिलचस्प संयोग जुड़े हैं, जैसे यह कि सुप्रीम कोर्ट के एक चीफ जस्टिस को दो दफे राष्ट्रपति पद की जिम्मेदारी निभानी पड़ी लेकिन औपचारिक रूप से भारत का राष्ट्रपति बनने का सौभाग्य उन्हें कभी न मिला.

जी हां, आपने बिल्कुल ठीक पहचाना जस्टिस एम हिदायतुल्लाह ने हमारे गणतंत्र के लिए दो दफे कार्यवाहक राष्ट्रपति की भूमिका निभाई थी.


1969 की मई में डॉ. जाकिर हुसैन की मृत्यु के बाद राष्ट्रपति की भूमिका तत्कालीन उप-राष्ट्रपति वीवी गिरि निभा रहे थे लेकिन इसी बीच 1969 की जुलाई में उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने का फैसला किया और उप-राष्ट्रपति के पद से इस्तीफा दे दिया. उपराष्ट्रपति की गैर मौजूदगी में राष्ट्रपति की भूमिका सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के रूप में मोहम्मद हिदायतुल्लाह ने निभाई.

दूसरी बार उन्होंने कार्यवाहक राष्ट्रपति की भूमिका निभाई 1982 के अक्तूबर में. तब वे उपराष्ट्रपति के पद पर थे और तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह को उपचार के लिए अमेरिका जाना पड़ा था.

अपने संस्मरणों की किताब ‘माय ओन बॉसवेल’ में जस्टिस हिदायतुल्लाह ने वीवी गिरि के राष्ट्रपति चुने जाने के वक्त को याद करते हुए एक किस्सा कुछ यूं बयान किया है- 'जब गिरि राष्ट्रपति निर्वाचित हुए तो एक दिन फुल ड्रेस रिहर्सल हुई. राष्ट्रपति भवन से पार्लियामेंट हाऊस तक पूरे रास्ते फौजी कतारबद्ध खड़े थे. इन दोनों इमारतों को भी फौजियों ने घेर रखा था. हथियारबंद गाड़ियां और छोटे टैंक भी खड़े थे. फील्डगंस का एक दस्ता भी तैनात किया गया था. मुझे अखबारवालों और न्यूज एजेंसी से फोन आए. पूछा गया कि क्या आपने या किसी और ने तख्तापलट जैसा कोई कारनामा अंजाम दिया है. मैंने एक संपादक को जवाब दिया (वो मेरा दोस्त था और मैंने हिदायत दी कि मेरा नाम मत लेना) कि हां, गिरि ने संजीव रेड्डी (नीलम संजीव रेड्डी) का तख्तापलट कर दिया है.'

कैसा था वो तख्तापलट?

वीवी गिरि

पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश के लिए तख्तापलट जितना जाना-पहचाना अनुभव है दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के लिए उतना ही अपरिचित. फिर भी वीवी गिरि के राष्ट्रपति चुने जाने को अगर देश के एक चीफ जस्टिस और उपराष्ट्रपति ने तख्तापलट के रुप में याद किया है तो उसके मायने जरूर ही तलाशे जाने चाहिए.

दरअसल वीवी गिरि का राष्ट्रपति पद पर चुना जाना देश के सियासी इतिहास का एक निर्णायक मोड़ है और अपने असर में तख्तापलट जितना ही झटकेदार. आप कह सकते हैं कि देश में पांचवीं दफे जब राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव हुए तो सियासत की बिसात पर वीवी गिरि एक मोहरा भर थे. बिसात किसी और ने बिछायी थी और वही वीवी गिरि को आगे करके अपनी बादशाहत कायम करने की बाजी खेल रहा था.

राष्ट्रपति पद के चुनाव में वीवी गिरि की जीत भारत की लोकतांत्रिक राजनीति में एक व्यक्ति के ताकतवर होते जाने और ठीक उसी अनुपात में लोकतंत्र को थामे रखने वाली संस्थाओं के कमजोर पड़ने की सूचना है. और, सियासी ताकत को अपनी मुट्ठी में कर लेने की ललक उस वक्त जिस शख्सियत के माथे पर सवार थी उसे हम प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नाम से जानते हैं.

पार्टी बड़ी या नेता?

ताकतवर होने की उनकी इस ललक का एक रिश्ता चौथी लोकसभा के चुनावी नतीजों से है. इससे पहले के तीन लोकसभाई चुनावों में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने भारी बहुमत से सरकार बनाई थी लेकिन 1967 के चुनाव में नतीजे कांग्रेस के दबदबे को देखते हुए चौंकाऊ थे. तब इंदिरा गांधी की रहबरी में राष्ट्रीय कांग्रेस को 522 में से मात्र 283 सीटें ( 54 प्रतिशत यानी बहुमत से थोड़ा ही ज्यादा) मिलीं.

कुल सात राज्यों में कांग्रेस के लिए चुनावी नतीजे खतरे की घंटी थे. मिसाल के लिए कांग्रेस को मद्रास में 39 में कुल 3 सीटें मिलीं, उड़ीसा में 20 में 6, पश्चिम बंगाल में 40 में 14 तो केरल में 19 में केवल 1 सीट. राजस्थान और गुजरात में इतनी बुरी स्थिति नहीं थी तो भी कुल सीटों में तकरीबन 50 फीसदी पर दूसरी पार्टियों ने कब्जा जमाया जबकि दिल्ली की 7 सीटों में 1 कांग्रेस के हाथ लगी और 7 भारतीय जनसंघ के खाते में गई. 1967 में ही छह राज्यों में कांग्रेस ने अपनी सूबाई सरकार भी गंवाई.

चुनावी नतीजे साफ कह रहे थे कि पार्टी के भीतर इंदिरा गांधी की प्रधानी को खतरा है. इस दौर की सियासत को करीब से जानने वाले बताते हैं कि उस वक्त प्रधानमंत्री की कुर्सी इंदिरा गांधी को तकरीबन अपने हाथ से जाती हुई दिख रही थी. वे तकरीबन अपने को घिरा हुआ देख रही थीं.

पार्टी अध्यक्ष के रुप में के कामराज के रिटायर (1967) होने के बाद इंदिरा गांधी अपने पसंद के व्यक्ति को इस पद पर ना बैठा सकीं थी, यह पद एस निजलिंगप्पा को मिला. नीलम संजीव रेड्डी लोकसभा के स्पीकर के पद पर थे. कांग्रेस की नई कार्यकारिणी में भी इंदिरा गांधी ने अपने विश्वस्त लोगों को पहुंचाने की कोशिश की लेकिन उनकी इस कोशिश को भी कामयाबी नहीं मिली थी. के कामराज और एसके पाटिल जैसे पार्टी के वरिष्ठ सदस्य उपचुनावों के जरिए फिर से संसद पहुंच चुके थे और वरिष्ठों का यह जमावड़ा चाहता था कि सरकार चलाने की नीति पार्टी बनाये और पार्टी के संसदीय दल के मुखिया के रुप में प्रधानमंत्री (इंदिरा गांधी) उस पर अमल करे. इंदिरा गांधी की महत्वाकांक्षाओं को यह बर्दाश्त ना था.

इंदिरा गांधी का मास्टरस्ट्रोक

ऐसे में 1966 के जून से उन्होंने पार्टी के भीतर अपना दबदबा कायम करने के लिए कई कदम उठाये. वित्तमंत्री मोरारजी देसाई की सलाह की अनदेखी कर बैंकों का राष्ट्रीयकरण करना, पार्टी-संगठन को दरकिनार कर सीधे जनता से संवाद बनाना, विदेशी कर्जे के खातिर रुपए का अवमूल्यन करना और सोवियत रूस की तरफ झुकाव ऐसे ही कदमों में शुमार किए जाते हैं.

पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की ‘सिंडीकेट’ (जैसे के कामराज, एस निजलिंगप्पा, नीलम संजीव रेड्डी आदि) ने उन्हें ‘गूंगी गुड़िया’ मानकर प्रधानमंत्री बनाया था कि यह ‘गुड़िया’ उनके इशारों पर चलेगी लेकिन वही ‘गूंगी गुड़िया’ न सिर्फ अपनी मर्जी की बातें बोलने लगी थी बल्कि अपने फैसलों से उन्हें फटकार भी रही थी.

पार्टी के भीतर वरिष्ठ नेताओं के सिंडिकेट को पटखनी देने का निर्णायक मौका इंदिरा गांधी को 1969 के राष्ट्रपति पद के चुनाव में हाथ लगा. उस वक्त तक चलन उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का था लेकिन कांग्रेस पार्टी में वरिष्ठ नेताओं की सिंडिकेट 1969 में उपराष्ट्रपति पद पर मौजूद वीवी गिरि को अपना उम्मीदवार बनाने के पक्ष में नहीं थी. उसकी पसंद लोकसभा के स्पीकर नीलम संजीव रेड्डी थे.

इंदिरा गांधी को लगा सिंडिकेट का नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाना उनके खिलाफ एक रणनीति है, सिंडीकेट उन्हें प्रधानमंत्री के पद से हटाकर यह पद मोरारजी देसाई को देना चाहती है. मोरारजी देसाई उस वक्त उपप्रधानमंत्री और वित्तमंत्री थे.

लालबहादुर शास्त्री की मौत के कुछ दिनों बाद कांग्रेस पार्टी ने अपने संसदीय दल का नेता चुना तो मोरारजी की जगह इंदिरा गांधी को वरीयता दी. मोरारजी देसाई से इंदिरा गांधी की महत्वाकांक्षाओं को तभी से खतरा था.

नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने के पार्टी के वरिष्ठों के प्रस्ताव की काट में इंदिरा गांधी ने बाबू जगजीवन राम का नाम रखा. तर्क दिया कि महात्मा गांधी के जन्म-शताब्दी वर्ष में दलित समुदाय के नेता का राष्ट्रपति बनना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी लेकिन उनका प्रस्ताव मंजूर नहीं हुआ.

उपराष्ट्रपति पद पर मौजूद वीवी गिरि ने इसी घड़ी इस्तीफा देकर स्वतंत्र उम्मीदवार के रुप में अपना नामांकन भरा. कहा जाता है कि ऐसा उन्होंने इंदिरा गांधी की शह पर किया था लेकिन कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं मिलते.

कांटे की टक्कर

नीलम संजीव रेड्डी

पार्टी के संसदीय दल के नेता के रुप में इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति के चुनाव के वक्त पार्टी के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के पक्ष में वोट डालने के लिए विप जारी नहीं किया. ‘अंतरात्मा की आवाज पर वोट डालने’ का मशहूर मुहावरा भी इसी वक्त का है. कांग्रेस के 163 सांसदों ने पार्टी उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी की जगह स्वतंत्र उम्मीदवार वीवी गिरि को वोट डाले. उस वक्त कांग्रेस पार्टी 12 राज्यों में बहुमत में थी और वीवी गिरि को इनमें 11 राज्यों में बहुमत से वोट मिले.

बेशक वीवी गिरि को वामपंथी दलों और क्षेत्रीय पार्टियों का समर्थन था लेकिन पार्टी के मंशा के विपरीत ‘अंतरात्मा की आवाज’ पर कांग्रेस के विधायकों ने वोट ना डाले होते तो वीवी गिरि को इस तादाद में वोट नहीं मिलते.

उस साल वीवी गिरी और नीलम संजीव रेड्डी के बीच राष्ट्रपति पद के चुनाव का मुकाबला कांटे का सिद्ध हुआ. वोटों की गिनती के वक्त एक विचित्र स्थिति पैदा हुई, वोटों की पहली गिनती में कोई भी बहुमत हासिल नहीं कर सका. 1969 के राष्ट्रपति पद के चुनाव में कुल वोट पड़े थे 8,36,337. इन वोटों का आधे से ज्यादा यानी 50 फीसद से अधिक होता है 4,18,169 . वीवी गिरि को 4,01,515 वोट मिले थे और नीलम संजीव रेड्डी को 3,13,548. बहुमत का आंकड़ा चूंकि वीवी गिरि नहीं छू पाए थे इसलिए उस साल पहली बार ऐसा हुआ कि दूसरी वरीयता के वोटों की भी गिनती की गई.

दूसरी वरीयता के वोटों की गिनती के बाद शीर्ष के दो उम्मीदवारों के बीच उन्हें जोड़ने पर वीवी गिरि के वोटों का आंकड़ा 4,20,077 पर पहुंचा और नीलम संजीव रेड्डी का 4,05,427 वोटों पर.

इंदिरा गांधी जो चाहती थीं, वही हुआ— कांटे की लड़ाई में गिरि जीत गए और इस तरह इंदिरा गांधी ने अपने ही पार्टी के उम्मीदवार को राष्ट्रपति चुनाव में हरवाकर पार्टी के दो फाड़ करने की अपनी मंशा जाहिर कर दी.

जब ट्रेड यूनियन का लीडर राष्ट्रपति बना

वीवी गिरि के जीत की पटकथा इंदिरा गांधी ने यूं ही नहीं लिखी थी. यह कांग्रेस के भीतर वामपंथी रुझान के प्रबल होने का दौर था और इस रुझान के अनुरुप ही गिरि का चयन हुआ था.

पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों की मर्जी के विपरीत इंदिरा गांधी एक ऐसा राष्ट्रपति चाहती थीं जो निजी संपत्ति के बढ़वार की कोशिशों पर अंकुश लगाने के उनके दस-सूत्री कार्यक्रम के अमल की राह आसान बनाए और मजदूर आंदोलन के नेता रह चुके वीवी गिरि इसके लिए एक आदर्श व्यक्ति साबित हो सकते थे. मिसाल के लिए उपराष्ट्रपति के रुप में इस्तीफा देने के तुरंत पहले वह कार्यवाहक राष्ट्रपति की भूमिका में थे और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के प्रस्ताव पर दस्तखत करने के एक दिन बाद (20 जुलाई 1969) उन्होंने राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा दिया.

उड़ीसा (अब ओडिशा) के बरहमपुर के तेलुगुभाषी प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार के बेटे वराहगिरी वेंकट गिरि के मजदूर नेता बनने की एक दिलचस्प कहानी है और इस कहानी का रिश्ता आयरलैंड में हुई उनकी पढ़ाई से है.

उनके पिता अपने वक्त के नामी वकील थे, कमाई के लिहाज से उस वक्त सबसे चमकदार पेशा वकालत था. उनका इरादा रहा होगा कि बेटा भी वकील ही बने जो उन्होंने वीवी गिरि को कानून की पढ़ाई के लिए आयरलैंड के यूनिवर्सिटी कॉलेज डब्लिन भेजा. ऑयरलैंड में यह वक्त (1913) आजादी के आंदोलन ‘सिन फेन’ और सशस्त्र क्रांति ‘ईस्टर राइजिंग’ का था. ऑयरलैंड के इसी दौर के बारे में डब्ल्यूबी यीट्स की कविता में आता है – ‘ऑल चेंज्ड. चेंज्ड अटरली- ए टेरिबल ब्यूटी इज बॉर्न’

बतौर छात्र गिरि ने आयरलैंड पर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध वामपंथी रुझान वाले इस आंदोलन को करीब से देखा, इसके विचारों से प्रभावित हुए और भागीदारी की. उन पर क्रांतिकारियों को साथ देने का आरोप लगा और वकालत की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर उन्हें स्वदेश लौटना पड़ा.

भारत लौटकर पहले उन्होंने मद्रास हाईकोर्ट में वकालत शुरू की लेकिन असहयोग आंदोलन के दौर में वकालत के पेशे को छोड़कर आजादी के आंदोलन में सक्रिय हुए. उन्होंने मजदूर आंदोलन में भागीदारी शुरू की. अगले कुछ वर्षों में ऑल इंडिया रेलवे मेंस फेडरेशन के अध्यक्ष बने. इस दौरान एक बड़ी सफलता उन्हें 1928 में मिली जब उनकी अगुवाई में रेलवे कामगारों की अहिंसक हड़ताल हुई, ब्रिटिश राज और रेलवे प्रबंधन को कामगारों की मांग माननी पड़ी.

श्रमिक आंदोलन के संगठनकर्ता के तौर पर कायम होती उनकी पहचान और नेतृत्व क्षमता का ही प्रमाण है कि वे ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एआईटीयूसी) के दो बार (1926 और 1943) अध्यक्ष बने. मजदूर आंदोलन के नेता के रुप में उनकी कितनी धाक थी इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि एआईटीयूसी के जब दोबारा अध्यक्ष चुने गये तब वे ‘भारत-छोड़ो आंदोलन’ में भागीदारी के कारण अंग्रेजी जेल में कैद थे.

ट्रेड यूनियनों को आजादी के आंदोलन का भागीदार बनाने का बड़ा श्रेय वीवी गिरि की नेतृत्व क्षमता को दिया जाता है. वे दूसरे गोलमेल सम्मेलन में कामगारों के प्रतिनिधि के तौर पर शामिल हुए थे.

सियासत में सीधी भागीदारी 1936 के आम चुनावों के जरिए हुई, तब वे कांग्रेस के उम्मीदवार के रुप में जीते और मद्रास प्रेसिडेंसी में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की अगुवाई में बनी कांग्रेस की सरकार में उन्होंने श्रम मंत्रालय का जिम्मा संभाला. 1946 के चुनावों में बनी मद्रास प्रेसिडेंसी की टी प्रकाशम की अगुवाई वाली सरकार में भी उन्हें श्रम मंत्रालय ही मिला और आजादी के बाद भी 1952 मे भी उन्होंने श्रम मंत्रालय का ही जिम्मा मिला.

उनकी सोच थी कि औद्योगिक विवाद की स्थिति में प्रबंधन हर हाल में मजदूरों से बातचीत के जरिए ही समाधान निकाले. इसे ‘गिरि-एप्रोच’ के नाम से जाना जाता है. आजाद भारत की पहली सरकार से उनकी यह सोच टकरा गई, सो मजदूरों की हकदारी को बढ़ावा देती अपनी नीतियों के पक्ष में खड़े होकर श्रम-मंत्री के पद से इस्तीफा देने का श्रेय भी वीवी गिरि के ही नाम है.

आप कह सकते हैं आज दलित समुदाय की हकदारी के मुहावरे की कोई काट नहीं है सो राष्ट्रपति पद के लिए मुकाबले का मैदान के नियम इसी मुहावरे ने तय किए हैं. 1969 की इंदिरा सरकार के वक्त मजदूर और मेहनतकशों का मुहावरा हावी था और वीवी गिरि की जीत देश की सियासत के इसी रुझान की जीत थी.