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जन्मदिन विशेष : त्रासदी के नायक राजीव गांधी

सोनिया गांधी नहीं चाहती थीं कि राजीव सक्रिय राजनीति में शामिल हों, लेकिन इंदिरा गांधी के निर्णय के सामने उनको झुकना पड़ा

Suresh Bafna

23 जून, 1980 को विमान दुर्घटना में संजय गांधी की मौत ने देश और कांग्रेस की राजनीति को एक बार फिर नए मोड़ पर खड़ा कर दिया था. कांग्रेस पार्टी के भीतर संजय गांधी को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के उत्तराधिकारी के तौर पर स्वीकार कर‍ लिया गया था.

बेटे संजय मौत ने इंदिरा गांधी को मानसिक तौर पर कमजोर कर दिया था. कुछ महीनों के भीतर ही एयर इंडिया में पायलट की नौकरी करने वाले दूसरे बेटे राजीव गांधी को मां इदिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी के महासचिव के पद पर नियुक्त कर दिया.


राजीव के राजनीति में जाने के खिलाफ थीं सोनिया

राजीव गांधी को सक्रिय राजनीति में शामिल होना चाहिए या नहीं? इस सवाल पर गांधी परिवार में लंबा विचार-विमर्श हुआ था. सोनिया गांधी नहीं चाहती थीं कि राजीव सक्रिय राजनीति में शामिल हों, लेकिन इंदिरा गांधी के निर्णय के सामने उनको झुकना पड़ा. राजनीति में बढ़ती हिंसा के संदर्भ में सोनिया गांधी अपने परिवार की सुरक्षा के सवाल पर आशंकित थीं.

राजीव गांधी भी राजनीति में प्रवेश को लेकर कई तरह की आशंकाओं से घिरे हुए थे, लेकिन मां इंदिरा गांधी की विकट स्थिति को देखते हुए उनके पास कोई और विकल्प नहीं था. अमेठी लोकसभा सीट से सांसद चुने जाने के बाद उन्हें 1982 में हुए एशियाड खेल की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. खेल के मैदान के जरिए राजीव गांधी ने सरकार और कांग्रेस पार्टी के भीतर अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत की.

राजीव गांधी और संजय गांधी के साथ इंदिरा गांधी

कांग्रेस पार्टी के भीतर राजीव गांधी के बढ़ते वजूद से कई घाघ नेताओं को परेशानी हो रही थी. इन घाघ नेताओं को यह अहसास हुआ कि इंदिरा जी तक उनकी पहुंच सीमित होती जा रही है और राजीव के राजनीतिक निर्णयों को तरजीह दी जा रही है. प्रणब मुखर्जी, कमलापति त्रिपाठी और अब्दुल गनी खान चौधरी जैसे नेताओं को लगने लगा कि उनका राजनीतिक जीवन समापन की तरफ जा रहा है.

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस पार्टी के भीतर प्रधानमंत्री पद को लेकर खींचतान चली. प्रणब मुखर्जी सहित कई पुराने नेता चाहते थे कि कांग्रेस संसदीय दल की बैठक आयोजित कर नए नेता का चुनाव किया जाए. राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने तय कर लिया था कि राजीव गांधी को ही प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई जाएगी. माखनलाल फोतेदार, आर के धवन और अरूण नेहरू ने राजीव को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवाने में निर्णायक भूमिका निभाई.

रिकॉर्ड तोड़ जीत के बाद विरोधियों को लगाया किनारे

1984 के लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने 413 सीटें जीतकर जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के रिकार्ड को भी तोड़ दिया. इतनी बड़ी जीत के बाद राजीव का कांग्रेस पार्टी पर पूरा वर्चस्व स्थापित हो गया था, लेकिन आत्मविश्वास का अभाव उनमें दिखाई दे रहा था.

इस आत्मविश्वास की कमी का ही नतीजा था कि राजीव ने संसद के पहले सत्र में ही दल-बदल विरोधी कानून पारित कराया, ताकि पार्टी के भीतर उनको कोई चुनौती न दे सके.

राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पेश करने वाले प्रणब मुखर्जी को मंत्रिमंडल से बाहर रखकर यह स्पष्ट किया कि विरोधियों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. पश्चिम बंगाल के पार्टी क्षत्रप अब्दुल गनी खान चौधरी को भी मंत्रिमंडल में स्थान नहीं मिला.

परिवार के प्रति वफादार बने रहने के कारण नरसिंहा राव को मंत्रिमंडल में लिया गया, लेकिन उनको गृह मंत्री की बजाय रक्षा मंत्री बनाया गया. अपनी मिस्टर क्लीन की छवि को मजबूत करने के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह को वित्त मंत्री बनाया गया, जिन्होंने बाद में राजीव गांधी को ही बोफोर्स के कटघरे में खड़ा कर दिया.

वित्त मंत्री के तौर पर वी पी सिंह ने अपनी छवि चमकाने के लिए उद्योगपतियों को निशाना बनाया. उन्होंने 80 साल के प्रतिष्ठित उद्योगपति एस एल किर्लोस्कर को गिरफ्तार कर प्रधानमंत्री राजीव गांधी के लिए दिक्कतें पैदा कीं. नतीजा यह हुआ कि राजीव गांधी ने वी पी सिंह को वित्त विभाग से हटाकर रक्षा विभाग दे दिया. रक्षा विभाग में सिंह ने बोफोर्स तोप सौदे में कथित दलाली पर जांच शुरु कर के स्पष्ट कर दिया कि अब उनका निशाना राजीव गांधी स्वयं है.

कुछ अहम राजनीतिक और प्रशासनिक फैसले

राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभव की कमी राजीव गांधी के कई निर्णयों में प्रकट हुई थीं. मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव जीतने के बाद अर्जुन सिंह जब अपने संभावित मंत्रिमंडल की सूची लेकर दिल्ली में उनसे मिले तो राजीव गांधी ने उनसे कहा कि आप कल पंजाब के राज्यपाल पद की शपथ लीजिए. उनसे कहा गया कि आपको अकाली नेताओं के साथ समझौता करवाना है. सिंह ने जुलाई 1985 में राजीव-लोंगोवाल समझौता करवा दिया, लेकिन आतंकवाद की समस्या का समाधान 1995 तक नहीं हुआ. आतंकवादियों ने संत लोंगोवाल की ही हत्या कर दी थी.

1988 में राजीव गांधी की सरकार को ही स्वर्ण मंदिर से आतंवादियों को खदेड़ने के लिए ऑपरेशन ब्लैक थंडर करना पड़ा था. 1995 में कांग्रेस पार्टी के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की आतंकवादियों ने हत्या कर दी थी. बाद में पंजाब पुलिस प्रमुख केपीएस गिल के नेतृत्व में चले ऑपरेशन से ही आतंकवाद पर काबू पाया जा सका. यह मिथ पूरी तरह गलत है कि राजीव गांधी पंजाब समस्या का समाधान निकालने में सफल हुए थे.

अगस्त 1985 में राजीव गांधी ने असम में ‍विदेशियों की समस्या का समाधान निकालने के लिए ऑल असम स्टूडेंटस यूनियन (आसू) के साथ समझौता किया. इस समझौते की भी एक दिलचस्प कहानी है. राजीव ने आंतरिक सुरक्षा मंत्री अरूण नेहरू से जुलाई में कहा कि 15 अगस्त पर लाल किले के भाषण में वो असम समझौते की घोषणा करना चाहते हैं, इसलिए प्राथमिकता के आधार पर यह समझौता होना चाहिए.

अरूण नेहरू का मानना था कि आसू अब कमजोर हो गया है इसलिए इस मुद्दे को नजरअंदाज किया जाए, लेकिन राजीव अपनी बात पर अड़े रहे. यह स्वीकार करना होगा कि इस समझौते से असम में शांति स्थापित करने में कामयाबी मिली.

राजीव गांधी की अनुभवहीनता

श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ भारतीय सेना को भेजने का निर्णय राजीव गांधी की विदेशी मामलों में अनुभवहीनता का ही नतीजा था. इस गलत निर्णय ने भारतीय सेना के सामने अप्रिय स्थिति पैदा कर दी. श्रीलंका के घाघ राष्ट्रपति एस. जयवर्धने ने राजीव गांधी को अपने जाल में फंसा लिया था. जो युद्ध श्रीलंका की सेना को लड़ना था, वह भारतीय सेना को वहां जाकर लड़ना पड़ा.

श्रीलंका की सरकार ने जिस तरह भारतीय सेना के साथ बुरा बर्ताव किया वह हमारे लिए बेहद शर्मनाक था. तमिलनाडु में भी राजीव सरकार के इस निर्णय की तीखी आलोचना हुई.

शाहबानो मामले में जिस तरह राजीव गांधी सरकार ने संविधान संशोधन के जरिए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को बेअसर किया, उससे बीजेपी को आगे बढ़ने का मौका मिला. फिर हिंदुओं को खुश करने के लिए अयोध्या में विवादास्पद धर्म स्थल का ताला खुलवाकर राजीव सरकार ने दूसरी बड़ी गलती की.

इन सभी निर्णयों से लगा कि राजीव गांधी सख्त राजनीतिक निर्णय लेने में सक्षम नहीं है. बीजेपी की वर्तमान मजबूत स्थिति के लिए राजीव गांधी के इन निर्णयों का योगदान कम नहीं है.

इंदिरा गांधी ने पंजाब में भिंडरेवाला और श्रीलंका में लिट्टे के प्रभाकरण को बढ़ावा दिया. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इन दोनों की वजह से ही इंदिरा और राजीव को राजनीतिक हत्या का शिकार होना पड़ा.