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जन्मदिन विशेष: ऐसा कवि जिसे राष्ट्रपिता ने राष्ट्रकवि कहा था

गुप्त की कविता के राष्ट्रीय आंदोलन पर पड़ रहे प्रभावों को देखते हुए सबसे पहले बापू ने उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ कहा.

Piyush Raj

मैथिलीशरण गुप्त भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रतिनिधि कवि थे. 1913 में इन्होंने ‘भारत-भारती’ लिखा जो उस वक्त आजादी के योद्धाओं के बीच तेजी से लोकप्रिय हुआ था. जिसकी वजह से ब्रिटिश शासन ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था.

मैथिलीशरण गुप्त की लेखनी पर सरस्वती के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी और गांधीवाद का गहरा प्रभाव था. गुप्तजी एक तरफ 19वीं सदी के आखिर में भारतेंदु हरिश्चंद्र के हिंदी नवजागरण से प्रभावित थे तो दूसरी तरफ अपने समय में महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे आजादी के आंदोलन से.


मैथिली जी की रचनाओं को पहली नजर में देखकर कई आलोचकों में उन्हें ‘हिंदू राष्ट्रीयता का जातीय कवि’ कहा है. यह सही है कि उनकी अधिकांश रचनाओं में हिंदू संस्कृति की पुनरुत्थान-भावना है. लेकिन यह आज के ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ से अलग है.

गांधीवादी राष्ट्रवाद के कवि

मैथिली जी के यहां हिंदू संस्कृति के पुनरुत्थान की भावना की वजह नवजागरण का प्रभाव है. दरअसल उस वक्त अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ हिंदू और मुस्लिम दोनों तबके के रचनाकार अपने-अपने धर्मों के अतीत के गौरव को याद कर रहे थे. यह कई बार एक-दूसरे के विरोध में दिखता था. लेकिन यह भी सच है कि वे एक-दूसरे से प्रेरणा लेकर राष्ट्रवाद की भावना से ओत-प्रोत कविताएं लिख रहे थे.

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मैथिलीशरण गुप्त हाली से प्रेरित थे और उमर खैय्याम की रुबाइयों का हिंदी में अनुवाद भी किया था. मैथिलीशरण ऐसे वक्त के कवि थे जब अंग्रेजी शासन के खिलाफ जनता में जोश भरने की जरूरत थी और साथ ही जनता के बीच व्याप्त बुराइयों को दूर करने की भी.

उन्होंने इसके लिए महात्मा गांधी की राह चुनी. गांधी की तरह उन्होंने भी सर्व धर्म समभाव’ की भावना के साथ हिंदू प्रतीकों का इस्तेमाल किया. इसी वजह से राष्ट्रवाद के इस दौर में मैथिलीशरण गुप्त के राष्ट्रवाद को ‘गांधीवादी राष्ट्रवाद’ कहा जा सकता है.

उनकी रचनाओं पर उस वक्त गांधी के नेतृत्व में चल रहे सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आंदोलन आदि के साथ-साथ गांधी द्वारा की जा रही हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयासों का भी साफ-साफ असर देखा जा सकता है. हिंदू-मुस्लिम एकता पर वे लिखते हैं-

‘जाति, धर्म या संप्रदाय का, नहीं भेद-व्यवधान यहां,

सबका स्वागत, सबका आदर, सबका सम-सम्मान यहां.

राम-रहीम, बुद्ध ईसा का सुलभ एक सा ध्यान यहां,

भिन्न-भिन्न भव-संस्कृतियों के गुण-गौरव का ज्ञान यहां.’

यही वजह है कि मैथिलीशरण गुप्त की कविता के राष्ट्रीय आंदोलन पर पड़ रहे प्रभावों को देखते हुए सबसे पहले महात्मा गांधी ने उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ कहा था.

महात्मा गांधी ने दी थी ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि

1936 में महात्मा गांधी ने उनके 50वें जन्मदिन पर आयोजित समारोह में कहा था, ‘वे राष्ट्रकवि हैं, जैसे मैं राष्ट्र बनने से महात्मा बन गया हूं.’ गांधी जी ने आगे कहा, ‘मैं तो गुप्त जी को इसलिए बड़ा मानता हूं कि वे हम लोगों के कवि हैं और राष्ट्र भर की आवश्यकता को समझकर लिखने की कोशिश कर रहे हैं.’

यह सही बात है कि कविता के शिल्प-पक्ष आदि के दृष्टिकोण से देखें तो उनकी कविताएं अत्यंत साधारण जान पड़ती हैं. लेकिन जो विषय उन्होंने उठाए वे राष्ट्र और समाज के लिए अधिक जरूरी थे. गांधी जी ने इसी वजह से उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ कहा था. उनकी इसी विशेषता की प्रशंसा में गांधी जी ने एक बार लिखा था, ‘वे सुप्रसिद्ध कवि हैं, लेकिन कविता उनकी कलम से नहीं निकलती है, वरन् उनके सूत के तारों से निकलती है.’

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जिस वक्त मैथिलीशरण गुप्त ने लिखना शुरू किया था उस वक्त खड़ी बोली हिंदी में कविता लिखने की परंपरा शुरू ही हुई थी. इससे पहले ब्रज में कविता लिखी जाती थी जिसका उद्देश्य उस वक्त मूलतः मनोरंजन हो गया था. महावीर प्रसाद द्विवेदी को ऐसे कवियों की तलाश थी जो खड़ी बोली हिंदी में कविता तो लिखे ही साथ ही साथ राष्ट्रीय जागरण को अपना विषय बनाए.

उपेक्षित स्त्रियों के दुःख को दिया स्वर

मैथिलीशरण गुप्त को उनके ये विचार काफी अच्छे लगे. वे पहले ब्रज में ‘रसिकेश’ और ‘रसिकेंद्र’ के नाम से लिखते थे. जब वे द्विवेदी जी से मिले तो उन्होंने मैथिलीशरण गुप्त से कहा कि ‘रसिकेंद्र बनने की इच्छा छोड़िए वह समय गया.’ इसके बाद ही गुप्त जी ने खड़ी बोली में कविताएं लिखनी शुरू कीं और राष्ट्रीय आंदोलन को कविता का विषय बनाया.

मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं अपनी राष्ट्रीय भावना के साथ-साथ एक अन्य वजह से काफी विशिष्ट हैं. उन्होंने अपनी रचनाओं में उन ऐतिहासिक और पौराणिक स्त्रियों के दुखों को स्वर देने की कोशिश की जिसके बारे में उनसे पहले का भारतीय साहित्य चुप था. महात्मा बुद्ध की पत्नी यशोधरा और लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के दुख को मैथिलीशरण गुप्त की वजह से ही साहित्य में स्थान मिला.

भले आज के नारीवाद की कसौटी पर कसने से उनकी ये कविताएं बहुत अधिक प्रगतिशील नहीं लगें. लेकिन इतिहास और साहित्य में उपेक्षित स्त्रियों को स्थान देने की बहस की शुरुआत तो इनकी रचनाओं ने जरूर की थी. मैथिलीशरण गुप्त ने एक उपेक्षित राष्ट्र और उपेक्षित स्त्रियों को अपनी कविता के माध्यम से स्वर देने का काम किया.