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अमृता प्रीतम ने क्यों दी थी हानूश के मंचन पर भीष्म साहनी को बधाई

बड़े भाई बलराज साहनी ने जब इस नाटक को पढ़ा था उनके हाव-भाव ऐसे थे कि नाटक लिखना भीष्म साहनी के बस का नहीं

Piyush Raj

आमलोगों के बीच भीष्म साहनी कथाकार और बलराज साहनी के छोटे भाई के रूप में प्रसिद्ध हैं. भारत विभाजन पर उनका उपन्यास ‘तमस’ और इस उपन्यास पर इसी नाम से गोविंद निहलानी का टीवी सीरियल आज भी लोगों के बीच चर्चा का विषय बना रहता है.

खासकर आजकल जिस तरह की सांप्रदायिक घटनाएं हो रही हैं वैसी स्थिति में ‘तमस’ बहुत ही मौजूं और समकालीन उपन्यास लगता है. ‘तमस’ का मतलब ‘अंधेरा’ है. यह अंधेरा आज भी हमारे समाज में कायम है और धर्म के नाम पर सियासत का खेल जारी है.


आज जिस मनोवृत्ति से संचालित भीड़ सिर्फ अफवाहबाजी के आधार पर हत्या कर रही है या हत्या करने पर उतारू है, उस मनोवृत्ति की तह में जाना है तो भीष्म साहनी की कहानी ‘अमृतसर आ गया है’ को जरूर पढ़ना चाहिए. चाहे वो अखलाक या जुनैद का मसला हो या फिर बंगाल के बदुरिया की घटना. भीड़ की उन्मादी मनोवृत्ति कहां से और कैसे संचालित होती है, उसे ‘तमस’ और भीष्म साहनी की कई कहानियों में बड़ी बारीकी से उकेरा गया है.

कम्युनिस्ट होते हुए भीष्म साहनी रचना में किसी विचारधारा को थोपने के बड़े विरोधी थे. उनका मानना था कि रचना खुद अपनी बात बोले. उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘आज के अतीत’ में लिखा है कि पात्र वास्तविक या काल्पनिक होना जरूरी नहीं है बल्कि उनका विश्वसनीय होना जरूरी है. भीष्म साहनी की रचनाएं इसी वजह से आज भी पढ़ते समय मौजूं और हमारे आसपास की घटनाएं लगती हैं. भले इन रचनाओं का कालखंड काफी पुराना हो.

ऐसे आया नाटक लिखने का विचार

प्राग की वो मध्यकालीन घड़ी जिसे देखकर भीष्म साहनी के मन में हानूश नाटक लिखने का विचार आया (तस्वीर: भीष्म साहनी की आत्मकथा 'आज के अतीत से साभार)

भीष्म साहनी की एक ऐसी ही रचना है-‘हानूश’. हानूश भीष्म साहनी द्वारा लिखा गया पहला नाटक था. भीष्म साहनी इससे पहले कहानियां और उपन्यास ही लिखे थे. भीष्म साहनी को यह नाटक लिखने का विचार 1960 में चेक गणराज्य (तब चेकोस्लोवाकिया) की राजधानी प्राग घूमने के दौरान आया था.

भीष्म साहनी उन दिनों सोवियत संघ में अनुवादक के रूप में काम कर रहे थे. इस बीच में उन्होंने यूरोप के अन्य देशों की यात्रा करने की सोची. उन दिनों भीष्म साहनी के मित्र और हिंदी के प्रसिद्ध कहानीकार निर्मल वर्मा भी चेकोस्लोवाकिया में रह रहे थे. उन्हें चेक भाषा और संस्कृति की काफी जानकरी थी.

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निर्मल वर्मा के साथ ही प्राग की सड़कों पर घूमते-घामते उन्हें एक मीनारी घड़ी दिखाई दी. इस मीनारी घड़ी के बारे में तरह-तरह की कहानियां प्रचलित थीं. लगभग 14 या 15वीं सदी में बनी यह घड़ी प्राग की सबसे पहली मीनारी घड़ी थी और इसे बनाने वाले को वहां के राजा ने बहुत ही अजीब तरीके से पुरस्कृत किया था.

बस यही कहानी हानूश नाटक का आधार बनी. हानूश नाटक की पूरी कहानी एक दो तथ्यों को छोड़कर कल्पना पर आधारित है. यह नाटक वैसे कुफ्लसाज यानी ताले बनाने वाले आदमी की कहानी है जिसने दुनिया की पहली घड़ी बनाई थी.

इसके बदले उसके देश राजा ने उसकी आंखें फोड़वा दीं ताकि वो किसी और राजा के लिए घड़ी न बना सके और उसे अपने राज्य में मंत्री का पद और शाही सुविधा भी दे दिया. अब भला शाही सुविधा बिना आंख वाले किसी कलाकार के किस काम की. यह पूरा नाटक सत्ता और कलाकार के द्वंद्व के ऊपर है.

बड़े भाई को पसंद नहीं आया नाटक

बड़े भाई बलराज साहनी के साथ भीष्म साहनी (तस्वीर: भीष्म साहनी की आत्मकथा 'आज के अतीत से साभार)

इस नाटक से जुड़ा सबसे रोचक किस्सा यह है कि जब भीष्म साहनी ने यह नाटक लिखा तो इसे उन्होंने सबसे पहले अपने बड़े भाई और प्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी को दिखाई. भीष्म साहनी बचपन से ही बलराज साहनी को अपना आदर्श या हीरो मानते थे.

भीष्म साहनी के बड़े भाई होने के साथ-साथ बलराज साहनी इप्टा से जुड़े थे साथ ही वो रंगमंच और फिल्मी दुनिया के सफल अभिनेताओं में शुमार थे. इस वजह से भीष्म साहनी ने इस नाटक की स्क्रिप्ट बलराज साहनी को दिखाई. बलराज साहनी ने इस नाटक को पढ़ा और उनके हाव-भाव ऐसे थे कि, ‘नाटक लिखना तुम्हारे बस का नहीं.’

भीष्म साहनी ने इस घटना का जिक्र अपनी आत्मकथा में करते हुए लिखते हैं, 'उन्होंने ये शब्द कहे तो नहीं, पर उनका अभिप्राय था. उनके चेहरे पर हमदर्दी का भाव भी यही कह रहा था.’

हालांकि भीष्म साहनी इससे हतोत्साहित नहीं हुए. उन्होंने दुबारा इसके स्क्रिप्ट पर काम किया और फिर बलराज को दिखाया लेकिन बलराज साहनी ने फिर उसी अंदाज में भीष्म साहनी को जवाब दिया.

आखिरी प्रयास

भीष्म साहनी (तस्वीर: आत्मकथा आज के अतीत से साभार)

लेकिन भीष्म साहनी लगातार इसके स्क्रिप्ट में सुधार करते रहे. इसके बाद भीष्म साहनी जब खुद इसके स्क्रिप्ट से संतुष्ट हो गए तो इसे लेकर वो एनएसडी के तत्कालीन और पहले निर्देशक इब्राहिम अलकाजी के पास गए. अलकाजी ये जानते थे कि भीष्म साहनी बलराज के भाई हैं.

शायद इस वजह से उन्होंने इस नाटक की पांडुलिपि अपने पास रख तो ली लेकिन व्यस्तता की वजह से इसे पढ़ नहीं पाए. इसके बाद भीष्म साहनी ने अलकाजी से हानूश की पांडुलिपि वापस मांग ली. इस आखिरी घटना के बाद भीष्म साहनी हानूश के मंचन को लेकर पूरी तरह निराश हो गए.

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1976 के जाड़ों में जब देश में आपातकाल लगा था, एक दिन सुबह की सैर के वक्त उन्हें प्रसिद्ध नाट्य-निर्देशक राजिंदरनाथ मिल गए. बातों ही बातों में भीष्म साहनी ने उनसे कहा कि उन्होंने भी एक नाटक लिखा है, जब उन्हें वक्त मिले देख लें.

राजिंदरनाथ खुद भी एक स्क्रिप्ट की तलाश में थे क्योंकि राष्ट्रीय नाट्य समारोह होने वाला था. राजिंदरनाथ ने इस नाटक को पढ़ा और इसका मंचन भी किया. भीष्म साहनी के लिए सबसे सुखद और आश्चर्य की बात यह थी कि इस नाटक को प्रतियोगिता में सबसे बेहतर स्क्रिप्ट का पुरस्कार मिला.

अमृता प्रीतम ने इस वजह से दी बधाई

इसके साथ ही अन्य खास बात यह थी कि इसे लोगों ने इमरजेंसी की खिलाफत में लिखा गया नाटक समझा. इसकी मुख्य वजह थी कि इस नाटक में कलाकार पर सत्ता द्वारा की जाने वाली निरंकुशता को दिखाया गया था. प्रसिद्ध पंजाबी कथाकार अमृता प्रीतम ने इसी वजह से टेलीफोन करके भीष्म साहनी को खास तौर से बधाई भी दी थी.

जबकि नाटक को लिखते वक्त और न ही मंचन करते वक्त भीष्म साहनी के दिमाग में कहीं से भी इमरजेंसी नहीं थी. इस घटना का जिक्र करते हुए भीष्म साहनी लिखते हैं, ‘निरंकुश सत्ताधारियों के रहते, हर युग में, हर समाज में, हानूश जैसे फनकारों-कलाकारों के लिए इमरजेंसी ही बनी रहती है और वे अपनी निष्ठा और आस्था के लिए यातनाएं भोगते रहते हैं. यही उनकी नियति है.’

इस नाटक के बाद भीष्म साहनी ने ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ और ‘माधवी’ जैसे प्रसिद्ध नाटक लिखे. भीष्म साहनी ने ‘तमस’ सीरियल से लेकर कई नाटकों में अभिनय भी किया है. बलराज की हानूश पर प्रतिक्रिया से उस वक्त अगर भीष्म साहनी हतोत्साहित हो जाते तो शायद भीष्म साहनी के नाटकों से हिंदी साहित्य वंचित ही रह जाता.

(यह लेख हमने भीष्म साहनी की पुण्यतिथि पर प्रकाशित की थी 8 अगस्त को उनकी जयंती के अवसर पर हम इसे फिर से प्रकाशित कर रहे हैं)