view all

मिलिए लेडी 'चंगेज़ खां' से जिसकी कलम ही बंदूक थी

इस मुस्लिम लेखिका का अंतिम संस्कार दफन करके नहीं बल्कि इनकी वसीयत के मुताबिक चिता जलाकर हुआ

Nazim Naqvi

कहावत है कि पूत के पांव पालने में ही नजर आ जाते हैं. लेकिन इस मुहावरे का संबंध लड़कों से है क्योंकि पूत तो लड़कों को ही कहा जाता है. पुतनियों के पांव के बारे में कोई मुहावरा नहीं बना.

बस जिंदगी भर इसी नाइंसाफी का गुस्सा रहा लेडी चंगेज़ खां को क्योंकि उसके पांव पर किसी की नजर नहीं पड़ी और वो मोहल्ले के लड़कों के साथ पतंगबाजी और बंटे खेलकर बड़ी होती गई. ये पुतनी पूत बनकर बड़ी हो रही थी.


ये वो जमाना था जिसमें आठ-दस भाई-बहन होना आम बात थी इसलिए मां-बाप का अपने हर बच्चे पर हर वक्त निगाह रखना जरा मुश्किल काम था. और लेडी चंगेज़ खां तो छः भाई और चार बहनों में नौवें नंबर की औलाद थी. सबसे छोटी.

जी हां हम बात कर रहे हैं इस्मत चुगताई की. या उनके मशहूर नाम से उन्हें याद करूं तो ‘इस्मत-आपा’ की. वो इस्मत चुगताई जो 15 अगस्त 1915 को बदायूं के एक जज के घर पैदा हुईं.

ये कहना गलत न होगा कि बचपन से ही बागी खयालात उनकी परवरिश कर रहे थे. ऐसा लगता है जैसे पंद्रह अगस्त का आजादी से कोई खास रिश्ता है क्योंकि जब इस्मत के देश को अंग्रेजों से मुक्ति मिली तो वो दिन भी 15 अगस्त ही था.

हजम नहीं होती हैं पुरुषवादी समाज को चुगताई की रचनाएं

2015 में इस्मत चुगताई की जन्मशती थी. लेकिन दूसरे साहित्यकारों की तरह इस्मत की जन्मशती वैसे नहीं मनाई जिसकी वो हकदार थीं. क्यों? इसका जवाब देना पुरुष-प्रधान समाज के लिए बड़ा ही मुश्किल है.

दरअसल इस समाज को इस्मत चुगताई हजम नहीं हो पातीं. क्यों हजम नहीं हो पातीं इसकी एक मिसाल उनकी जीवनी ‘कागजी पैराहन’ के उस अंश को पढ़कर पाठक लगा सकते हैं, जिसमें उन्होंने एम. असलम साहब का जिक्र किया है जो खुद भी कहानीकार थे लेकिन इस्मत चुगताई के लेखन से काफी नाराज थे.

इस्मत लिखती हैं, ‘शाहिद साहब (पति) के साथ मैं भी एम. असलम साहब के यहां ठहर गई. सलाम-दुआ भी ठीक से नहीं होने पाई थी कि उन्होंने मुझे झाड़ना शुरू कर दिया. मेरी उरियां-निगारी (बेपर्दा-वृतांत) पर बरसने लगे. मुझ पर भी भूत सवार हो गया. शाहिद साहब ने बहुत रोका लेकिन मैं उलझ पड़ी.’

‘और आपने जो ‘गुनाह की रातें’ में इतने गंदे-गंदे जुमले लिखे हैं! बाकायदा सेक्स-एक्ट की तफसील (विस्तार) बताई है. सिर्फ चटखारे के लिए.’

‘मेरी और बात है. मैं मर्द हूं.’

‘तो इसमें मेरा क्या कुसूर.’

‘क्या मतलब?’ वो गुस्से से सुर्ख हो गए.

‘मतलब ये कि आपको खुदा ने मर्द बनाया इसमें मेरा कोई दखल नहीं, और मुझे औरत बनाया इसमें आपका कोई दखल नहीं. आप जो चाहते हैं वह सब लिखने का हक आपने मुझसे नहीं मांगा, न मैं आजादी से लिखने का हक आपसे मांगने की जरूरत समझती हूं.’

‘आप एक शरीफ मुसलमान खानदान की तालीमयाफ्ता (पढ़ी-लिखी) लड़की हैं.’

‘और आप भी तालीमयाफ्ता हैं और मुसलमान खानदान से हैं.’

‘आप मर्दों की बराबरी करना चाहती हैं?’

‘हरगिज नहीं. क्लास में ज्यादा से ज्यादा नंबर पाने की कोशिश करती थी और अक्सर लड़कों से ज्यादा नंबर ले जाती थी.’

तस्वीर: feminisminindia.com से साभार

यूं जुड़े थे चंगेज खां से तार

अब बताइए ऐसे दिलो-दिमाग की एक औरत को मर्दों की दुनिया कैसे स्वीकार कर सकती है. इस्मत एक जंग-जू सिपाही थीं और उनकी बंदूक, उनकी कलम थी. उन्होंने उपन्यास लेखन, कहानी और अफसाने लिखने में बड़ा नाम कमाया. लेखन की हर विधा, ड्रामे, खाके, रिपोर्ताज और लेख लिखे, फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट भी लिखी. यहां तक कि एक फिल्म (जुगनू) में अदाकारी के जौहर भी दिखाए.

बदायूं, भोपाल, आगरा, लखनऊ, बरेली, जोधपुर, अलीगढ़ और मुंबई, उनकी जिंदगी के वो स्टेशन हैं जहां उन्होंने वक्त गुजारा.

उनके वंशज का सिलसिला कई पुश्तों पीछे जाकर ‘चंगेज़ खां’ से मिलता है. उनके वालिद मिर्ज़ा कासिम बेग चुगताई पेशे से जज थे. उनके एक भाई अज़ीम बेग चुगताई एक जाने माने लेखक थे और एक फिल्मकार की हैसियत से भी शोहरत-याफ्ता थे.

यह भी पढ़ें: इब्ने सफी : रहस्यमयी और रोमांचक कथाओं का बादशाह

1942 में इस्मत की शाहिद लतीफ़ से शादी हुई जिससे दो बेटियां पैदा हुईं. 1943 से 1978 तक तकरीबन 14 फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट और डॉयलाग लेखन में खुद को आजमाया, जबकि 1941 में नॉवेल ‘जिद्दी’ से उन्होंने साहित्य की दुनिया में अपनी दस्तक दर्ज करवा ली थी. उनकी आखिरी फिल्म ‘गर्म हवा’ थी जिसे भरपूर सराहा गया.

इस्मत चुगताई का जमाना

इस्मत चुगताई का जमाना यानी तीस का दशक, नई करवटों और तब्दीलियों का जमाना था. इस दौर में ‘रशीद जहां’ वो पहली औरत थीं जिन्होंने अपने बाद आने वाली औरतों के लिए आधुनिक खयालात और महिला-अधिकारों की समझ दी. इसी जमाने में पत्रिका ‘अंगारे’ प्रकाशित हुई. जिसमें रशीद जहां कई और नामी साहित्यकारों के अफसाने शामिल थे.

इन अफसानों में बोझिल हो चुकी रवायतों और गैर-इंसानी रवैयों को घोर आलोचना का निशाना बनाया गया जो मजहब और रंगों-नस्ल के नाम पर मानवाधिकारों को कुचल रहे थे.

अंग्रेजी सरकार ने समाज में हलचल के डर से इस पत्रिका को जब्त कर लिया. मगर अंगारे तो जल चुके थे. इस तरह के लेखन ने एक नई राह सजाई और उन खयालात को आग दिखाई जो आने वाले समय के बड़े साहित्य-सृजनों के लिए मशाल बन गई. यही वो जमाना था जब प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद मुंशी प्रेमचंद और सज्जाद ज़हीर ने डाली.

इस्मत चुगताई से पहले, रशीद जहां वो पहली औरत थीं जिन्होंने महिला लेखन के लिए साजगार फिजा बनाई. महिला अधिकारों के लिए जद्दो-जेहद का आगाज़ हुआ लेकिन इस महिला लेखन में भी दो ग्रुप बन गए.

एक वो, जो महिला-अधिकारों के लिए आवाज बुलंद किए हुए थीं और पुरुष-प्रधान समाज से अपने हिस्से की आजादी छीन लेने को आतुर थीं और दूसरा तबका उन औरतों का था जो चली आ रही रवायतों के कैद में ही अपनी बेहतरी देख रहा था.

जब कुर्रतुल ऐन हैदर ने कहा लेडी चंगेज़ खान

हालांकि ‘कुर्रतुल ऐन हैदर’ भी अपने समय की एक बहुत संजीदा अफसाना निगार थीं, उन्होंने भी कालजयी नॉवेल लिखे. मगर महिला समझ को लेकर इस्मत चुगताई और उनके बीच भेद साहित्य में किसी से छुपे हुए नहीं हैं.

इस्मत ने कुर्रतुल ऐन के बारे में ‘पोम पोम डार्लिंग’ के शीर्षक से एक लेख लिखा तो कुर्रतुल ऐन ने भी ‘लेडी चंगेज़ खान’ लिखकर उसका जवाब दिया. ये वो जमाना था जब शब्द का जवाब शब्द से दिया जाता था.

इस्मत चुगताई के नॉवेलों में जिद्दी, टेढ़ी लकीर, मासूम, सौदाई, अजीब आदमी, जंगली कबूतर शामिल हैं. जबकि कागजी पैराहन के नाम से उन्होंने अपनी जीवनी खुद लिखी. उनके अफसानों के संग्रह कलियां, एक बात, चोटें, दो हाथ, छुई-मुई, बदन की खुशबू और आधी औरत आधा ख्वाब हैं.

1942 में उनका एक अफसाना ‘लिहाफ’ लाहौर से निकलने वाले एक रिसाले ‘अदब लतीफ़’ में प्रकाशित हुआ तो उनपर नंगापन फैलाने का इलजाम लगा. ये कहानी समलैंगिकता पर आधारित थी. उन पर मुकदमा भी चला.

ये वही दौर था जब सआदत हसन मंटो के अफसानों पर भी कई मुकदमे दायर हुए थे. उन्होंने अपने बड़े भाई ‘अज़ीम बेग चुगताई’ पर भी एक खाका ‘दोज़खी’ के नाम से लिखा. ‘खाका’ लिखना दरअसल एक विधा है जिसमें किसी शख्स का चित्रण ऐसे किया जाता है कि लगता है वो आपके सामने आकर खड़ा हो गया है.

दोज़खी को मंटो ने बहुत सराहा था और जब उनकी बहन ने उस अफसाने की आलोचना की तो उन्होंने अपनी बहन को जवाब में लिखा कि अगर तुम भी ऐसा ही एक खाका मुझ पर लिखने का वादा करो तो मैं अभी मरने के लिए तैयार हूं.

मंटो और इस्मत विभाजन से पहले अपने ऊपर दायर मुकदमों की पेशी में एक साथ लाहौर आते थे. इस्मत और मंटो, दोनों ने लाहौर की अपनी इन यात्राओं पर बड़ी बेबाकी ओर रोचक अंदाज में कलम चलाई है.

फतवों की झड़ी में भी लिखने पर न हुआ अफसोस

हालांकि ‘लिहाफ’ कहानी के बाद उनपर बड़े फतवे लगे लेकिन उन्होंने कभी ये कहानी लिखने में अफसोस का इजहार नहीं किया उनका तो काम ही था अपने समाज में औरत के व्यवहारी और जिंसी गिरावट पर ऐसी जबरदस्त चोटें करना कि मर्द तिलमिलाकर रह जाए और औरत गुस्से से उठ खड़ी हो.

जाहिर है कि मर्दपरस्त समाज में अपने हक के लिए जोरदार आवाज बुलंद करने का अंजाम भी उन्हीं के हिस्से में आया. लेकिन अपनी बदनामी का इस्मत ने दिलेरी के साथ सामना किया.

कहानियों के माध्यम से सच लिखने पर वो उम्र-भर कायम रहीं. नंगे-सच से कड़वे-सच तक, हर तरह का सच लिख मारा. जिसकी आंच आज भी महसूस की जा सकती है. उर्दू अफसाने की तारिख में एक जीदार और बड़ी अफसाना निगार के तौर पर उनका नाम हमेशा रौशन रहेगा.

दफन नहीं चिता जलाकर हुआ अंतिम संस्कार

24 अक्टूबर 1991 में वो इस दुनिया से रुखसत हुईं लेकिन तबतक उनकी बागियाना सोच ने बहुत कुछ बदल कर रख दिया था. मुंबई में उनका इंतकाल हुआ और उनकी वसीयत के मुताबिक उनका अंतिम संस्कार चिता जलाकर किया गया. ता-उम्र आग से खेलने वाली, आग में विलीन हो गई.

आज की पीढ़ी को और आने वाली हर पीढ़ी को, इस्मत चुगताई के अफसाने, उपन्यास, ड्रामे पढ़ने चाहिए क्योंकि सच का सामना कैसे किया जाए ये तो कोई ‘इस्मत-आपा’ के शब्दों से ही सीख सकता है.

चलते-चलते एक लड़की के सामने, जब तक वो किसी से जुड़ नहीं जाती, किस-किस तरह से मर्द आता है इसकी एक मिसाल देखिए.

इस्मत लिखती हैं, ‘एक जरा सी मुहब्बत की दुनिया में कितने शौकत, कितने महमूद, अब्बास, अस्करी, यूनुस और न जाने कौन-कौन ताश की गद्दी की तरह फेंट कर बिखेर दिए गए हैं. कोई बताओ, उनमें से चोर पत्ता कौन सा है? शौकत की भूखी-भूखी कहानियों से लबरेज आंखें, महमूद के सांपों की तरह रेंगते हुए आज़ा (अंग), अस्करी के बेरहम हाथ, यूनुस के निचले होंठ का सियाह टिल, अब्बास की खोयी खोयी मुस्कुराहटें और हजारों चौड़े-चकले सीने, कुशादा पेशानियां (चौड़े मस्तक), घने-घने बाल, सुडौल पिंडलियां, मजबूत बाजू, सब एक साथ मिलकर पक्के सूत के दोरों की तरह उलझ गए हैं. परेशान हो होकर उस ढेर को देखती हूं मगर समझ में नहीं आता कि कौन सा सिरा पकड़कर खींच लूं कि खिंचता ही चला आए और मैं उसके सहारे दूर उफक (क्षितिज) से भी उपर एक पतंग की तरह तन जाऊं.’