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जन्मदिन: जब अज्ञेय की पत्नी ने की थी नन्हे बिरजू महाराज की मदद

बिरजू महाराज ने दिल तो पागल है और गदर जैसी कई फिल्मों में कोरियोग्राफी की है

FP Staff

देश में कथक का पर्याय बन चुके बिरजू महाराज की जिंदगी का सफर लखनऊ से शुरू होता है. कथक से उनके परिवार का सदियों पुराना रिश्ता है. बिरजू महाराज पंडित ईश्वरी प्रसाद के वशंज हैं, जिन्हें कथक का पहला गुरू भी कहा जाता है. दादा बिंदन महाराज और कालका महाराज. जिन्हें राम-लक्ष्मण की जोड़ी की तरह याद किया जाता है. कालका-बिंदादिन की जोड़ी का कथक की दुनिया में अलग ही मुकाम है. ऐसे ही कथक के संस्कार पहुंचे पंडित बिरजू महाराज के पिता पंडित अच्छन महाराज तक.

अपने पिता जी को याद करके पंडित बिरजू महाराज कहते हैं, ‘आप सोचिए, हमारे पिताजी का स्वभाव ऐसा था कि आप सोचिए उनका नाम ही पड़ गया अच्छन महाराज. पिता जी तीन भाई थे- अच्छन महाराज, शंभु महाराज और लच्छू महाराज. जब मैं पैदा हुआ तो सबसे पहले मेरा नाम रखा गया दुख हरण, फिर बाद में मेरा नाम बदला गया. इस बार भगवान कृष्ण से जोड़कर मेरा नाम रखा गया बृजमोहन नाथ मिश्रा, जो धीरे धीरे बिरजू हो गया और फिर बिरजू महाराज.’


तीन साल से कथक

महाराज बिंदादीन, कालका महाराज और शंभू महाराज फोटो- बिरजू महाराज कला आश्रम

बिरजू महाराज जब सिर्फ साढ़े तीन-चार साल के थे, तभी से तालीमखाने में घुंघरू-तबले की आवाज कानों में पड़ती थी. इसका असर ये हुआ कि बिरजू महाराज खुद ब खुद तालीमखाने की तरफ चले जाते थे. बेशक वहां जाकर को कुछ खाते पीते ही रहें लेकिन अपने बाबू जी, चाचा जी और उनके शागिर्दों को कथक करते देखते रहना उन्हें बड़ा अच्छा लगता था. वहां से लौटकर बिरजू महाराज अपनी अम्मा से कहते थे, ‘अम्मा देखो वो लोग जो करते हैं, वो तो मुझे भी आता है’. इतना कहने के बाद अपनी बात को साबित करने के लिए बिरजू महाराज बाकयदा वैसा ही नृत्य करने की कोशिश भी करते थे, उम्र कम थी तो कई बार ऐसा भी हुआ कि नृत्य करते करते वो गिर भी गए. उनके गिरते ही अम्मा के चेहरे पर चिंता और मुस्कान एक साथ आती थीं, तब अम्मा कहती थीं जब बड़े हो जाना तब नाचना अभी सिर्फ देखो और सुनो.

बिरजू महाराज के मन में तो नृत्य के बसने की शुरूआत हो चुकी थी. नृत्य के अलावा उनका दूसरा पसंदीदा काम था पतंग उड़ाना. पतंग उड़ा कर घर आना और फिर सीधे तालीमखाने में जाकर बैठ जाना. महाराज जी का बचपन ऐसे ही बीता. बिरजू महाराज बचपन के उन दिनों को याद करके कहते हैं-’ पिता जी को भी समझ आ गया था कि मैं भी अब कथक ही करूंगा तो उन्होंने मुझे भी सिखाना शुरू कर दिया था. उस समय हमारे बाबू अच्छन महाराज जी रामपुर के नवाब के यहां नौकरी करते थे. रामपुर के नवाब मुझे भी बहुत मानते थे. मैं 6 बरस की उम्र का था, जब मैं पहली बार उनके महल में नाचा था. उसके बाद तो ऐसा हुआ कि नवाब साहब अक्सर बाबू जी से कहते थे कि बेटे को भी साथ लाना. बाबू जी के कहने पर मैं चला तो जाता था, लेकिन छोटा बच्चा था रात तक नींद आने लगती थी. पता चला कि एक तरफ नृत्य की महफिल चल रही है दूसरी तरफ मुझे झपकियां आ रही हैं’.

परेशानी भरा बचपन

बिरजू महाराज करीब 9 साल के थे तब उनके परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. पैसे रुपये से लेकर हर तरह की परेशानियां सामने आईं. ऐसे मुश्किल वक्त में बिरजू महाराज की मां ने हिम्मत दिखाई. वो बिरजू महाराज को लेकर यहां-वहां जाती थीं, कभी बांस बरेली, तो कभी जयपुर. बिरजू महाराज नेपाल तक गए. उस वक्त मां को बस यही लगता था कि बिरजू महाराज का नृत्य देखकर राजा साहब खुश हो जाएं. कहीं से पचास रुपये भी मिल जाएं तो बहुत है. उस पैसे से कुछ दिनों तक खाना-पीना तो चलेगा ही. फिर बिरजू महाराज कानपुर गए. कानपुर में उनकी बड़ी बहन थीं. वो वहां अपने जीजा जी के साथ करीब करीब साढ़े चार साल तक रहे. 11-12 साल की उम्र में ही उन्होंने दो ट्यूशन भी किए. इसके बाद कपिला वात्सायन लखनऊ गईं, तो उन्होंने बिरजू महाराज की मां से पूछा कि, बेटा कुछ करता है क्या? कपिला वात्सायन बिरजू महाराज के पिता की शार्गिद थीं, वो उनको अपने साथ ले आई.

कपिला जी जाने माने साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय जी की पत्नी थीं. बिरजू महाराज की जिंदगी के सफर में उनकी बड़ी अहमियत है. उन्होंने बिरजू महाराज को हिंदुस्तानी म्यूजिक एंड डांस स्कूल में डाल दिया था, बिरजू महाराज ने वहीं पर काम शुरू किया, और फिर चार पांच साल वहीं रहे. कला को जितनी डूबकर सीख सकते थे, सिखा. जितना सिखा सकते थे, सिखाया भी. वहां से बिरजू महाराज भारतीय कला केंद्र आए फिर कथक केंद्र पहुंचे. ऐसे ही धीरे धीरे सफर आगे बढ़ता रहा.

महाराज जी उस दौर को याद करके कहते हैं- ‘मुझे याद है कि संघर्ष के दिनों में यानी पिता जी के जाने के बाद अम्मा हमारी और मैं अम्मा का मददगार रहा. अम्मा ने हमेशा कहा कि बेटा चाहे खाने को थोड़ा कम मिले लेकिन जो पिता जी और चाचा ने सिखाया है, उसको ईमानदारी से करना. फिर मैंने भी पूरे मन से काम किया. उसके बाद ईश्वर की कृपा से सब कुछ ठीक होता चला गया. पहले बस से चलते थे, फिर साइकिल आई, अब गाड़ी भी आ गई. ईश्वर की कृपा से आज सबकुछ है’. ये बताने की जरूरत नहीं कि इसके बाद पूरी दुनिया में पंडित बिरजू महाराज कथक और भारत की पहचान बनते चले गए.

बिरजू महाराज को मुंबई में काम करने के कई ऑफर आए लेकिन उन्होंने जान बूझकर बहुत चुनकर काम किया. पंडित बिरजू महाराज के चाचा पंडित लच्छू महाराज के बारे में तो कौन नहीं जानता. उन्होंने मुगले-आजम, पाकीजा और महल जैसी सुपरहिट फिल्मों की कोरियोग्राफी का काम किया था. बावजूद इसके फिल्मों में काम को लेकर पंडित बिरजू महाराज बहुत चुनिंदा रहे हैं. सत्यजीत रे की फिल्म शतरंज के खिलाड़ी की बंदिश कान्हा मैं तोसे हारी आज भी लोगों को याद है.

तकरीबन 20 साल बाद पंडित बिरजू महाराज ने यश चोपड़ा के लिए दिल तो पागल है में काम किया. पंडित बिरजू महाराज को बताया गया था कि स्क्रीन पर शाहरुख खान का ड्रम होगा और उसी पर माधुरी दीक्षित को डांस करना है. फिर महाराज जी ने गदर फिल्म के लिए भी काम किया. फिर संजय लीला भंसाली की देवदास की बारी आई. उसमें पंडित बिरजू महाराज के बाबा की ठुमरी थी, तो उन्होंने भी देवदास में दो लाइनें गाईं. फिल्म सुपरहिट हुई. फिल्म का संगीत सुपरहिट. ‘काहे छेड़ छेड़ मोहे गरवा लगाए’ इस ठुमरी को लोगों ने बहुत पसंद किया. माधुरी दीक्षित ने भी कमाल का डांस किया. इसके अलावा फिल्म विश्वरूप में कमल हासन का गाना था, मैं हूं राधा मेरी तू है श्याम तेरा, तो उसमें भी राधा श्याम आ गए तो पंडित बिरजू महाराज ने काम काम किया.

इन सारी उपलब्धियों के बाद भी पंडित बिरजू महाराज में सहजता इतनी है कि अब भी बिरजू महाराज कहते हैं- मैं अब भी खुद को एक बहुत अच्छा शागिर्द मानता हूं, गुरू नहीं. ऐसा इसलिए क्योंकि मेरा मानना है कि गुरू ने सुबह सुबह एक नया मंथन मेरे दिल में डाल दिया. अब उस नए मंथन के साथ मेरे दिन की शुरूआत हुई, उसके बाद मैं सिर्फ यही सोचता रहता हूं कि शाम होते ही अपने शिष्यों को वो नई चीज मैं सिखा दूंगा, लेकिन सबसे पहले उस मंथन को सीखने वाला तो मैं ही हूं.