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सिर्फ़ नमाज़ के लिए नहीं होती मस्जिदें, इन्हें इंसाफ और जनकल्याण के कामों का केंद्र बनाएं मुसलमान

मुसलमानों के लिए बेहतर होगा कि वो मस्जिदों के अहमियत को क़ुरआन और हदीस से समझें अपनी मस्जिदों की भूमिका सिर्फ नमाज़ पढ़ने तक सीमित न करके इन्हें इंसाफ और जनकल्याण के कार्यों का केंद्र बनाएं.

Yusuf Ansari

सुप्रीम कोर्ट ने 1994 के अपने ही उस फैसले को बड़ी बेंच में भेजने से इंकार कर दिया है, जिसमें कहा गया था कि नमाज़ मस्जिद का ज़रूरी हिस्सा नहीं है. इस्माइल फ़ारूक़ी मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद कुछ मुस्लिम संगठनों ने इसे पुनर्विचार के लिए बड़ी बेंच में भेजने की मांग की थी. सुप्रीम कोर्ट ने यह मांग ख़ारिज कर दी है लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि इससे अयोध्या विवाद पर आने वाले फ़ैसले पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

सुप्रीम कोर्ट ने यह फ़ैसला दो-एक के बहुमत से सुनाया है. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस अशोक भूषण ने इसे बड़ी बेंच में नहीं भेजने का फ़ैसला किया. जबकि जस्टिस एस ए नज़ीर इस फ़ैसले को बड़ी बेंच में भेजने के हक़ में थे. सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले से देश में एक नई बहस शुरू हो गई है. इसने कुछ नए सवाल भी खड़े किए हैं. साथ ही कुछ पुराने विवादों को नया मोड़ दे दिया है.


दरअसल इस फ़ैसले के बाद अयोध्या विवाद में एक नया मोड़ आ गया है. सुप्रीम कोर्ट ने भले ही कहा हो कि इसका अयोध्या विवाद में आने वाले फ़ैसले पर असर नहीं पड़ेगा लेकिन इस फ़ैसले के बाद भारतीय जनमानस में कहीं न कहीं यह बात ज़रूर चर्चा का विषय बन गई है कि अगर मस्जिद इस्लाम का ज़रूरी हिस्सा नहीं है और नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद जाना ज़रूरी नहीं है तो फिर मुस्लिम समुदाय अयोध्या में मस्जिद की ज़िद पर क्यों अड़ा हुआ है?

अयोध्या विवाद को प्रभावित करने की शुरुआत हो चुकी है?

एक हिसाब से देखा जाए तो अयोध्या विवाद को प्रभावित करने या उसके प्रभावित होने की शुरुआत यहीं से हो चुकी है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने एक बात साफ़ यह कर दी है की 1994 के इस्माइल फ़रूक़ी वाले मामले को ज़मीन अधिग्रहण के संदर्भ में ही देखा जाए. वही मुस्लिम संगठनों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट धार्मिक आस्था और भावनाओं से जुड़े मामले में यह तय नहीं कर सकता कि किस धर्म में क्या चीज़ धर्म का ज़रूरी हिस्सा है और क्या ज़रूरी हिस्सा नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के कई पहलू हैं. सबसे पहले इसके धार्मिक पहलू पर बात करते हैं. 1994 के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में कहा गया है कि नमाज़ पढ़ना मस्जिद का अनिवार्य हिस्सा नहीं है. उसमें यह नहीं कहा गया कि मस्जिद में नमाज़ नहीं पढ़ी जा सकती. कुछ लोग यह सवाल भी उठा रहे हैं कि अगर मस्जिद में ही नमाज़ पढ़ना ज़रूरी है तो फिर लोग बाहर नमाज़ क्यों पढ़ते हैं? इसके जवाब में मुस्लिम संगठन यह बात कह रहे हैं कि जिस तरह से हिंदू मंदिर के बाहर भी पूजा करते हैं, उसी तरह मुसलमान भी मस्जिद में जगह नहीं होने की वजह से सड़क पर या खुली जगहों पर नमाज़ पढ़ते हैं.

कोई धर्म अपने मूल स्वरूप में क्या है? उसकी मान्यताएं क्या हैं? धर्म के क्या ज़रूरी हिस्से हैं, क्या ज़रूरी हिस्सा नहीं हैं? इन तमाम बातों से परे हमारे देश में धार्मिक स्थलों के अंदर और धार्मिक स्थलों के बाहर पूजा करने का रिवाज है. यह रिवाज सभी धार्मिक समुदायों में है. इस पर किसी को आपत्ति भी नहीं होती. कभी कभार कहीं-कहीं छिटपुट आपत्ति होती है तो उसे मिलजुल कर हल कर लिया जाता है. यही देश की लोकतात्रिंक व्यवस्था, सर्वधर्म समभाव और आपसी मेलजोल की ख़ूबसूरती है.

ऐसे फैसलों में मुस्लिम जजों की राय को अहमियत नहीं मिलती

सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला दो-एक के बहुमत से हुआ है. इसे भी सांप्रदायिक रंग देने की कोशिशें हो सकती है. फ़ैसला सुनाने वाली बेंच के दो हिंदू जज इस फैसले को बड़ी बेंच में भेजने के खिलाफ थे और एकमात्र मुस्लिम जज इसे बड़ी बेंच में भेजने के हक़ में थे. इससे मुस्लिम समाज में कहीं न कहीं यह संदेश जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम जज की राय कोई ख़ास अहमियत नहीं रखती. इससे पहले भी कई फ़ैसलों में ऐसा हो चुका है. अयोध्या मामले पर आए इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले में भी मुस्लिम जज की राय को दरकिनार किया गया था. तीन तलाक़ पर आए फ़ैसले पर भी मुस्लिम जज की राय बाकी जजों के बहुमत में दब कर रह गई थी.

इससे मुस्लिम समाज में यह ग़लत धारणा घर कर रही है कि सुप्रीम कोर्ट में उनके पक्ष की कोई अहमियत नहीं है. उनके पक्ष को तवज्जो नहीं दी जा रही. लगभग हर मामले में उनकी भावनाओं के ख़िलाफ़ एकतरफ़ा फ़ैसला किया जा रहा है. देश के दूसरे बड़े धार्मिक समुदाय में अगर देश की न्यायपालिका के प्रति ऐसी धारणा पैदा होती है और कई फ़ैसलों की वजह से यह धारणा मज़बूत हो जाती है, तो यह देश और समाज दोनों के लिए अच्छी बात नहीं कही जा सकती. मुस्लिम समाज का ख़ुद को अलग-थलग महसूस करना ख़ुद उसके लिए अच्छा नहीं है.

नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद की ज़रूरत हो या ना हो लेकिन मस्जिद इस्लाम का एक ज़रूरी हिस्सा है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. इस्लामी तारीख़ बताती है कि इस्लाम की पहली मस्जिद पैग़ंबरे इस्लाम हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम ने अपने हाथों से मदीना में तामीर की थी. इसे आज हम मस्जिद नबवी के नाम से जानते हैं. यही मस्जिद इस्लामी हुकूमत का केंद्र हुआ करती थी. वहीं से हुकूमत चलती थी. सभी फ़ैसले वहीं लिए जाते थे. ज़रूरत पड़ने पर वहीं लोग इकट्ठा होते थे, मशवरें होते थे. नमाज़ भी पढ़ी जाती थी. यह सब बातें हदीसों से साबित हैं.

ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि मस्जिद मुसलमानों के लिए ज़रूरी नहीं हैं. हां, यह बात ज़रूर कही जा सकती है कि मस्जिदें सिर्फ नमाज़ पढ़ने के लिए नहीं होती. नमाज़ पढ़ने के अलावा मस्जिदों में कई और काम भी होते हैं. यह अलग बात है कि मुस्लिम समुदाय में आजकल मस्जिदें महज़ नमाज़ पढ़ने की जगह बन कर रह गई हैं. इस्लामी हुकूमतों में मस्जिदें इंसाफ़ और जनकल्याण के कार्यों का केंद्र हुआ करती थीं. इस्लामी हुकूमतों के ख़त्म होने के साथ ही मस्जिदों की भूमिका भी सीमित हो कर रह गई है. आजकल कुछ ही मस्जिदें जनकल्याण के काम करती हैं वर्ना ज़्यादातर सिर्फ़ नमाज़ पढ़ने की जगह ही हैं.

मस्जिद की अहमियत को क़ुरआन और हदीस से समझें

क़ुरआन में पांच मस्जिदों का ज़िक्र है. सूराः अल बक़रा की आयत नंबर 150 में दुनियाभर के मुसलमानों को मस्जिद-अल-हरम यानि काबा की तरफ मुंह करने का हुक्म दिया गया है. सूराः तौबा की आयत नंबर 107 और 108 में मस्जिद-ए-ज़र्रार और मस्जिद-ए-क़ुबा का जिक्र है. सुरा इस्राइल में काबा के साथ-साथ मस्जिद-ए-अक़्सा का जिक्र है. वहीं सूराः कहफ़ में मस्जिद-ए-नबवी बनाए जाने का ज़िक्र है. ज़ाहिर सी बात है कि अगर क़ुरआन में मस्जिद बनाने का हुक्म है तो फिर यह नहीं कहा जा सकता कि मस्जिद इस्लाम का हिस्सा नहीं है.

दरअसल इस्लाम के उदय के साथ ही एक ऐसे केंद्र की जरूरत महसूस की गई, जहां से हुकुमत भी चलाया जा सके, जनकल्याण के काम भी हों और नमाज़ भी पढ़ी जा सके. यह सारे काम करने के लिए जो केंद्र बनाया गया उसी को मस्जिद कहा गया. कालांतर में हुकूमत का केंद्र बादशाह के महल हो गए और मस्जिद सिर्फ़ नमाज़ तक महदूद हो गईं. लेकिन इससे समाज में मस्जिदों की अहमियत ख़त्म नहीं हो जाती. दुनिया में जहां-जहां मुसलमान हुकूमतें रही हैं, वहां बादशाहों ने बड़ी-बड़ी मस्जिदें यादगार के तौर पर बनवाई हैं. ये तमाम मस्जिदें ऐतिहासिक रूप से भी अहमियत रखती है और धार्मिक रूप से भी.

क़ुरआन की सूरह तौबा में आयत नंबर 107 और 108 में मस्जिद का एक ख़ास संदर्भ में ज़िक्र है. आयत नंबर 107 में कहा गया है,'और कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने मस्जिद बनाई इसलिए कि नुक़सान पहुंचाएं और कुफ़्र करें और इस लिए कि ईमान वालों के बीच फूट डालें और उस व्यक्ति के लिए घात लगाने का ठिकाना बनाएं, जो इससे पहले अल्लाह और रसील से लड़ चुका है. वो निश्चय ही क़समें खाएंगे कि हमने तो अच्छा ही चाहा था, लेकिन अल्लाह गवाही देता है कि वे बिल्कुल झूठें हैं.'

इससे अगली आयत में अल्लाह ने नबी को हिदायत दी है,'तुम कभी भी उसमें खड़े न होना. बल्कि वह मस्जिद जिसकी बुनियाद पहले दिन से ईशपरायणता पर रखी गई हो, इसकी ज़्यादा हक़दार है कि तुम उसमें खड़े हो. उसमें ऐसे लोग पाए जाते हैं, जो अच्छी तरह पाक रहना रहना पसंद करते हैं. और अल्लाह भी पाक रहने वालों को पसंद करता है.' इससे साफ़ है कि अल्लाह ने अपने नबी को ऐसी मस्जिद में जाने से रोक दिया, जो समाज में बंटवारे के मक़सद से बनाई गई थी.

क़ुरआन की इन आयतों में मुसलमानों के लिए बड़ा संदेश छिपा है. बेहतर होगा कि मुसलमान इस संदेश को समझें. खुले दिल से इसे स्वीकार करें. देश में कई पीढ़ियों से चले आ रहे मंदिर-मस्जिद विवाद को हल करने में इससे काफ़ी मदद मिल सकती है. मुसलमानों को सोचना चाहिए कि अल्लाह ने अपने को ऐसी मस्जिद में जाने से रोका, जिसकी बुनियाद समाज में बंटवारे की नीयत से रखी गई थी तो हम मुसलमानों को ऐसी मस्जिद में क़दम रखने की इज़ाज़त भला कैसे मिल सकती है, जिसकी बुनियाद ही झगड़े की ज़मीन पर हो.

मुसलमानों के लिए बेहतर होगा कि वो मस्जिदों के अहमियत को क़ुरआन और हदीस से समझें अपनी मस्जिदों की भूमिका सिर्फ नमाज़ पढ़ने तक सीमित न करके इन्हें इंसाफ और जनकल्याण के कार्यों का केंद्र बनाएं. इससे देश और दुनिया में नई मिसाल क़ायम होगी. ऐसी मस्जिदों का कोई फायदा नहीं जहां नमाज़ के बाद ताले पड़े रहते हों. जहां खुल कर हंसना भी मना हो. दुनिया की बातें करना भी हराम हो. मस्जिदों को तारीख़ी वक़ार लौटाकर नई इबारत लिखी जा सकती है.