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बाबरी विध्वंस: एक-एक कर तीनों गुंबद टूटे और उखड़ गई हिंदू समाज की विश्वसनीयता

कोई दो सौ कारसेवक विवादित इमारत के तीनों गुंबदों पर चढ़ लोहे के रॉड, गैंती और सरियों से चोट कर रहे थे. नीचे कोई एक लाख कारसेवकों ने इमारत को घेर रखा था.

Hemant Sharma

मैं विवादित इमारत से कोई सौ गज दूर खड़ा था. सन्न और अवाक्! समझ नहीं आ रहा था कि मैं जो देख रहा हूं, वह हकीकत है या बुरा सपना. चारों तरफ बदला! प्रतिशोध!! प्रतिहिंसा का हुंकारा!!! सब कुछ अचानक हुआ. कारसेवक बाबरी ढांचे पर चढ़ चुके थे. पुलिस प्रशासन को काटो तो खून नहीं. किंकर्तव्यविमूढ़, बेबस और लाचार.

मैंने पुलिसबलों का ऐसा गांधीवादी चेहरा पहली बार देखा. 46 एकड़ का पूरा इलाका ध्वंस के जुनून में था. समूचा दृश्य दिल दहलाने वाला था. कोई दो सौ कारसेवक विवादित इमारत के तीनों गुंबदों पर चढ़ लोहे के रॉड, गैंती और सरियों से चोट कर रहे थे. नीचे कोई एक लाख कारसेवकों ने इमारत को घेर रखा था.


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उस रोज मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम पर हर कोई अमर्यादित था. एक-एक कर तीनों गुंबद टूटे और उखड़ गई हिंदू समाज की विश्वसनीयता, वचनबद्धता और उत्तरदायित्व की जड़ें! एक तरफ ध्वंस के उन्माद में कारसेवक और दूसरी ओर हैरान, सन्न-अवाक् विश्व हिंदू परिषद और बीजेपी नेता. बूझ नहीं पड़ा कि यह सब अचानक कैसे हुआ? कहीं यह पूर्व नियोजित तो नहीं? ध्वंस की धूल और उसके गुबार ने हमारी गंगा-जमुनी तहजीब को ढक लिया था.

छह दिसंबर नफरत और धार्मिक हिंसा के इतिहास से जुड़ गया. मेरे सामने सिर्फ साढ़े चार सौ साल पुराना बाबरी ढांचा नहीं टूट रहा था बल्कि विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका की मर्यादाएं भी टूट रही थीं. 6 दिसंबर को गीता जयंती थी. द्वापर में इसी रोज महाभारत हुई थी. एक नई महाभारत मेरे सामने घट रही थी.

VHP की प्रतिकात्मक कारसेवा! 

विश्व हिंदू परिषद का ऐलान था प्रतीकात्मक कारसेवा का. लेकिन वहां माहौल चीख-चीखकर कह रहा था कि कारसेवा के लिए रोज बदलते बयान, झूठे हलफनामे, कपटसंधि करती सरकारों के लिए भले यह सब अकस्मात् हो, लेकिन कारसेवक तो इसी खातिर यहां आए थे. कारसेवकों को वही करने के लिए बुलाया गया, जो उन्होंने किया. ‘ढांचे पर विजय पाने’ और ‘गुलामी के प्रतीक को मिटाने’ के लिए ही तो वे यहां लाए गए थे.

दो सौ से दो हजार किलोमीटर दूर से जिन कारसेवकों को इस नारे के साथ लाया गया था कि ‘एक धक्का और दो, बाबरी मस्जिद तोड़ दो.’ उन्हें आखिर यही तो करना था. वे कोई भजन-कीर्तन करने नहीं आए थे. उन्हें बंद कमरों में हुए समझौतों और राजनीति से भला क्या लेना? ढाई लाख कारसेवक अयोध्या में जमा थे. नफरत, उन्माद और जुनून से लैस. उन्हें जो ट्रेनिंग दी गई थी या जिस हिंसक भाषा में समझाया गया था, उसके चलते अब उन्हें पीछे हटने को कैसे कहा जा सकता था?

मुझे कारसेवकों की हिंसक प्रकृति सुबह साढ़े नौ बजे से दिखने लगी थी. हालांकि रात में ही तय हुआ था कि कारसेवा सिर्फ प्रतीकात्मक होगी. जुलाई की कारसेवा में विवादित स्थल से बाहर एक चबूतरा बना था. मुहूर्त के मुताबिक वहीं साढ़े ग्यारह बजे साधु-संत साफ-सफाई कर एक प्रतीकात्मक स्तंभ बनाने की शुरुआत करने वाले थे. कारसेवकों को बैरिकेडिंग के बाहर से इस स्थान पर अक्षत, फूल, पानी डाल प्रतीकात्मक कारसेवा करनी थी.

क्या हुआ था उस दिन

10 बजे के करीब कोई डेढ़ सौ साधु-संत जरूरी पूजन-सामग्री लेकर यहां विराजमान थे. तभी लालकृष्ण आडवाणी, अशोक सिंघल और मुरली मनोहर जोशी को साथ लेकर एडिशनल एस.पी. अंजू गुप्ता वहां पहुंचीं. आडवाणी जी को देखते ही कारसेवक उत्तेजित हो गए. उन्हें लगा, वे फिर से कारसेवा स्थगित कराने आए हैं.

उत्तेजित कारसेवक बैरिकेडिंग तोड़कर चबूतरे पर पहुंचने की कोशिश करने लगे. भीड़ का दबाव देख पुलिस ने उन्हें खदेड़ना शुरू किया. तब तक बैरिकेडिंग लांघ कुछ कारसेवक चबूतरे पर पहुंच चुके थे. इन सबने आडवाणी और जोशी के साथ धक्का-मुक्की की. मौके पर मौजूद अशोक सिंघल ने बीच-बचाव करना चाहा, पर वहां कोई किसी को पहचान नहीं रहा था.

संघ के स्वयंसेवक और बजरंग दल के कार्यकर्ता इन तीनों नेताओं को किसी तरह बचाकर रामकथा कुंज के मंच पर ले गए. इसी मंच से नेताओं का भाषण होना था. रामकथा कुंज का मंच विवादित इमारत से तीन सौ मीटर की दूरी पर था. प्रतीकात्मक कारसेवा की जगह से आडवाणी, जोशी और सिंघल को हटाकर टूटी बैरिकेडिंग की मरम्मत की गई.

बढ़ती भीड़ के कारण प्रशासन ने विवादित इमारत का मुख्य द्वार भी समय से पहले बंद कर दिया. वहां सुबह से रामलला के दर्शन चालू थे. लेकिन किसी को इस बात का आभास नहीं था कि रामलला की इस इमारत के कपाट आज अंतिम बार बंद हो रहे हैं.

पत्रकारों की नजर से

विवादित इलाके से सटा और गर्भगृह के ठीक सामने मानस भवन था. यह एक धर्मशाला थी. इसकी छत से समूचा 65 एकड़ का इलाका साफ दिखाई देता था. पत्रकारों को यहीं बिठाने का काम विश्व हिंदू परिषद ने किया था. छत पर कोई दर्जन भर वीडियो कैमरे लगे थे. दूसरी मंजिल के कमरों में आई.बी. के कैमरे लगे थे. ऊपर से पूरा दृश्य केसरिया था.

दूर-दूर तक जन-सैलाब दिख रहा था. पुलिस के साथ ही आरएसएस के गणवेशधारी स्वयंसेवक भीड़ को नियंत्रित करने में लगे थे. मंदिर आंदोलन में यह पहला मौका था, जब मैंने देखा कि संघ ने आधिकारिक तौर पर इसमें हिस्सा लिया. संघ के तीन प्रमुख नेता एच.वी. शेषाद्रि, के.एस. सुदर्शन और मोरोपंत पिंगले 3 दिसंबर से ही अयोध्या में डेरा डाले हुए थे. आंदोलन के सारे सूत्र इन्हीं के पास थे.

सुषुप्त लावा ग्यारह बजते-बजते फूटने लगा. कारसेवकों का सैलाब सारी पाबंदियां नकार बैरिकेडिंग पर दबाव बनाने लगा. मानस भवन की छत, जहां हम खड़े थे, पर भी कारसेवकों ने कब्जा जमा लिया था. लगा छत बैठ जाएगी.

इस डर से हम नीचे उतर आए और विवादित ढांचे से कोई सौ गज दूर सीता रसोई की छत पर चले गए. इसी छत पर पुलिस कंट्रोलरूम था. मेरे लिए यह सबसे सुरक्षित स्थान था. यहां से सब दिख रहा था और सारी सूचनाएं भी यहीं आ रही थीं. दिल्ली-लखनऊ का संपर्क भी यहीं से था.

किसी पत्रकार के लिए इससे बेहतर जगह और क्या हो सकती थी. मुझे यह सुविधा इसलिए मिल गई कि नीचे से ही मुझे छत पर फैजाबाद के कमिश्नर सुरेंद्र पाल गौड़ और जोन के आई.जी. अशोक कांत सरन दिख गए थे. दोनों ने मुझे ऊपर बुला लिया. तब तक सब कुछ सामान्य था. इन अफसरों के चेहरे पर कोई तनाव नहीं था. एस.एस.पी. देवेंद्र बहादुर राय नीचे खड़े हो लोगों को जरूरी निर्देश दे रहे थे.

तभी वायरलेस पर सूचना आई कि जिलाधिकारी आर.एन. श्रीवास्तव सुप्रीम कोर्ट द्वारा तैनात पर्यवेक्षक तेजशंकर को लेकर यहीं आ रहे हैं. तेजशंकर मुरादाबाद के जिला जज थे. उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने अपना ‘ऑब्जर्वर’ बनाकर यह देखने के लिए भेजा था कि प्रतीकात्मक कारसेवा के बहाने मौके पर कोई स्थायी निर्माण तो नहीं हो रहा है या सुप्रीम कोर्ट से किए गए वायदे के उलट तो कोई काम वहां नहीं हो रहा है.

बाबरी मस्जिद विध्वंस पर हेमंत शर्मा की किताब युद्ध में अयोध्या और अयोध्या का चश्मदीद का कवर फोटो

सब ठीक है न?

हम सीता रसोई की छत पर थे. यहां से विवादित ढांचे के भीतर रामलला की जो पूजा-अर्चना चल रही थी, वह भी दिख रही थी. मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का सुबह से कमिश्नर को हॉटलाइन पर दो बार फोन आ चुका था. उनकी जिज्ञासा थी, ‘सब ठीक है न? किसी गड़बड़ की आशंका तो नहीं है?’

वह मोबाइल का दौर नहीं था. माहौल में इतना तनाव था कि कहीं कुछ हो नहीं रहा था, पर हर किसी को कुछ भी होने का डर सता रहा था. सुबह साढ़े सात बजे विनय कटियार के घर के फोन की घंटी बजती है. लाइन पर दूसरी तरफ भारत के प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव थे. इससे पहले कि विनय कटियार कुछ कहते, प्रधानमंत्री ने पूछा, 'किसी गड़बड़ की आशंका तो नहीं है. सब नियंत्रण में तो है?'

प्रधानमंत्री ने चिंता जताई कि कुछ कारसेवकों के उग्र होने की रिपोर्ट उनके पास आई है. विनय कटियार ने उन्हें भरोसा दिलाया, 'सब काबू में है. मंच विवादित ढांचे से कोई तीन सौ मीटर की दूरी पर बना है. कारसेवकों का जमावड़ा वहीं रहेगा. हम कोशिश कर रहे हैं कि कोई कारसेवक विवादित इमारत तक पहुंचे ही नहीं. ढांचे से दूर चबूतरे पर ही प्रतीकात्मक कारसेवा कर लोग अपने घरों को लौटेंगे.' यह विनय कटियार का प्रधानमंत्री को भरोसा था.

विनय कटियार के घर आडवाणी, जोशी और अशोक सिंघल नाश्ते पर कारसेवा की योजना पर विचार कर रहे थे. यहीं से तीनों रामकथा कुंज पहुंचे तो वहां कोई एक लाख लोग सार्वजनिक सभा के लिए इकट्ठा हो चुके थे. तीस हजार लोग तो रामकथा कुंज में लगे तंबुओं में ही रह रहे थे. कुंज में बीजेपी और विहिप के नेता भाषण शुरू कर चुके थे. सबकी लाइन प्रतीकात्मक कारसेवा की थी. लेकिन भाषणों में सबके आक्रोश का प्रतीक ढांचा ही था. सारे नेता ढांचे की ओर उंगली दिखा उसे गुलामी का प्रतीक बता रहे थे.

आडवाणी का भाषण और पथराव 

बारह बजने से कुछ देर पहले जब आडवाणी भाषण दे रहे थे, उसी वक्त शेषावतार मंदिर की तरफ से भीड़ ने पुलिस बलों पर पथराव शुरू किया. पथराव से बचने के लिए पुलिस वालों के पास कोई आड़ नहीं थी. पीछे विवादित ढांचा और सामने, बाएं-दाएं खुला मैदान. तभी कोई दो सौ लोग चबूतरे का घेरा तोड़ आगे बढ़ आए. देखते-देखते ये लोग राम जन्मभूमि परिसर में घुस गए.

ऐसा होते ही चौतरफा हड़कंप मचा. शेषावतार मंदिर की ओर से कुछ लोग ढांचे पर पत्थर फेंकने लगे. ढांचे के पीछे की तरफ से भी ऐसा ही हुआ. तेजी से भगदड़ मची और कोई एक हजार लोग जन्मभूमि परिसर में दाखिल हो गए. विवादित इमारत के सामने की ओर से रोकने की लाख कोशिशों के बावजूद कारसेवक कंटीली बाड़ फांद ढांचे की बाहरी दीवार और गुंबदों पर चढ़ गए. एकदम पूरा माहौल बदल गया.

हनुमान गढ़ी में लाल कृष्ण आडवाणी
फोटो गेटी इमेज

सुरक्षा बल जब तक कुछ समझते तब तक वहां जमा लाखों कारसेवकों का रुख ढांचे की तरफ हो गया था. समूची व्यवस्था फेल हो गई. कोई दो सौ लोग गुंबद के ऊपर थे और 25 हजार के आसपास विवादित परिसर में थे. लाखों कारसेवक, जो इधर-उधर रामकथा कुंज में भाषण सुन रहे थे, वे भी विवादित ढांचे के चारों ओर गोलबंद होने लगे.

सी.आर.पी.एफ. के डी.आई.जी. ओ.पी.एस. मलिक फौरन कूदते-फांदते ढांचे के भीतर पहुंचे. वे सादी वर्दी में थे. उनकी चार कंपनियां विवादित परिसर के भीतर तैनात थीं. इन बलों ने कारसेवकों को रोकने की कोशिश की. मेरे बगल में खड़े लखनऊ जोन के आई.जी. अशोक कांत सरन के चेहरे की हवाइयां उड़ रही थीं. डी.आई.जी. उनसे पूछ रहे थे कि क्या करना चाहिए? (बाद में ओ.पी.एस. मलिक भारत सरकार के डीजी, नारकोटिक्स और ए.के. सरन उत्तराखंड सरकार के डीजीपी पद से रिटायर हुए.) जिलाधिकारी और एस.एस.पी. अपना स्थान छोड़ इसी छत की तरफ भागे आ रहे थे. उनके साथ सुप्रीम कोर्ट के पर्यवेक्षक तेजशंकर भी थे.

उधर रामकथा कुंज से लालकृष्ण आडवाणी की कारसेवकों से लौट आने की अपील लगातार प्रसारित हो रही थी. कारसेवकों के परिसर में घुसने के पंद्रह मिनट के भीतर ही सी.आर.पी.एफ. और पी.ए.सी. के जवान मौका छोड़ ढांचे के बाहर आ गए थे. यानी बारह बजे तक परिसर पूरी तरह कारसेवकों के हवाले था. कारसेवकों ने घुसते ही सबसे पहले ढांचे के भीतर की हॉटलाइन काटी. फिर आसपास उखड़ी पड़ी बैरिकेडिंग के लोहे के पाइपों से गुंबदों पर हमला बोला. ऊपर गुंबदों पर होने वाले प्रहार से चिनगारियां फूट रही थीं. नीचे कारसेवकों के आक्रोश की चिनगारियों का सामना पत्रकार और फोटोग्राफर कर रहे थे.

क्यों उड़े होश?

सुप्रीम कोर्ट के पर्यवेक्षक तेजशंकर के होश उड़े हुए थे. वे यह देखने आए थे कि चबूतरे पर, जहां कारसेवा होनी थी, वहां हवन-सामग्री की जगह निर्माण-सामग्री तो नहीं रखी है. पर वहां तो नजारा ही अलग था. हवन सामग्री तहस-नहस थी. पूजा-सामग्री पैरों तले कुचली जा रही थी. साधु-संत अपने मठों-आश्रमों की तरफ लौट चुके थे. कारसेवक वहां ईंटें रखने की जगह विवादित इमारत से ईंटें निकाल रहे थे. जिलाधिकारी अब भी उन्हीं के साथ थे. उनकी अपनी मजबूरी थी.

मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का निर्देश था कि तेजशंकर को हर हाल में खुश रखा जाए, वरना नाराज हो वे प्रतीकात्मक कारसेवा की जगह कहीं स्थायी निर्माण की रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को न भेज दें. तेजशंकर जल्दी-जल्दी कंट्रोलरूम की तरफ लगभग दौड़ते हुए आ रहे थे. दौड़ते-दौड़ते वे अपनी टाई भी उतार रहे थे, ताकि कारसेवकों में उनकी पहचान न हो सके. तेजशंकर की मुसीबत इसलिए भी बढ़ गई थी, क्योंकि वे अपने लड़के को भी मेला दिखाने साथ लाए थे.

पसीना-पसीना हम भी थे. दस बरस के पत्रकारीय जीवन में ऐसा उन्माद कभी देखा नहीं था. सुबह जब फैजाबाद के होटल से चले थे प्रतीकात्मक कारसेवा रिपोर्ट करने, तब भी इसकी कल्पना नहीं थी. 5 साल से अयोध्या को नियमित रिपोर्ट कर रहा था. रिपोर्टिंग के लिए तब तक साठ से ज्यादा बार अयोध्या आ चुका था. पर आज अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हो रहा था.

( वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा की किताब युद्ध में अयोध्या का अंश, इसे प्रभात पेपर बैक्स ने प्रकाशित किया है )