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वाजपेयी को एक वामपंथी नेता की श्रद्धांजलि: हमारे कालखंड की संसदीय राजनीति की असाधारण शख्सियत

अटल जी को याद करने की वजहें हैं मेरे पास. उनकी बड़ी बहन मेरी मां के संगठन जनवादी महिला समिति की सदस्य थीं और हर साल याद दिलाकर सदस्यता लिया करती थीं.

Badal Saroj

जिस वक्त यह खबर आई, मैं एक धुर आदिवासी अंचल में था. अटल जी के न रहने की दुखद खबर मिली. इसके साथ उनकी अनेक यादें दिल दिमाग मे घूम गईं. मैं उनकी एक्सटेंडेड फैमिली का सदस्य हूं लेकिन इस वक्त उन्हें एक व्यक्ति और एक स्टेट्समैन के रूप में याद करते हुए कुछ भूली-बिसरी बातों से उन्हें श्रद्धांजलि देना चाहता हूं.

कभी-कभार इंसानों को हाड़मांस के मनुष्यों के रूप में भी देख लेना चाहिए. सुकून मिलता है. यूं भी मैं जिस विचार में ढला हूं, उसमें नफरत के लिए जगह नहीं है. विरोधी विचारों से निर्णायक संघर्ष का प्रण हमें उस विचार को मानने वाले व्यक्तियों से वैयक्तिक स्तर पर युद्ध या घृणा या नफरत करने तक नहीं ले जाता, बल्कि इंडिविजुअल और आइडियोलॉजी में फर्क करने की तमीज और शऊर सिखाता है.


अटल जी हमारे मोहल्ले के थे. उनका ग्वालियर में हुआ एक भी भाषण सुने बिना नहीं छोड़ा. उनकी लय और काव्यात्मकता अभिभूत कर देती थी. मुझे याद है 1989 के लोकसभा चुनाव में ग्वालियर में हमारी आमसभा के ठीक सामने थोड़ी देर पहले अटल जी की सभा थी. कॉमरेड सुरजीत ने अपने भाषण में कहा था कि अभी कुछ देर पहले उधर के मंच से वाजपेयी बोल कर गए हैं - आदमी अच्छा है, सोहबत खराब है.

अटल जी को याद करने की वजहें हैं मेरे पास. उनकी बड़ी बहन मेरी मां के संगठन जनवादी महिला समिति की सदस्य थीं और हर साल याद दिलाकर सदस्यता लिया करती थीं. हम जब उनके पड़ोस में रहने वाले रघुवंशी जी के कॉमरेड परिवार में जाते थे, तो उनसे मिलने जरूर जाते थे. वे पहले पान सुपारी खिलाती थीं, फिर बहुत सी गप्पें लगाने के बाद एसएफआई और पार्टी के लिए कभी 10, कभी 20 रुपए चंदा दिया करती थीं. यह परंपरा अगली पीढ़ी तक अनवरत है. अटल जी की प्रिय भांजी, जो मैनरिज्म और तेवर के मामले में भी मामा जैसी हैं, वहुत अच्छी दोस्त हैं. उनसे तमाम गुफ्तगू संवादों के बिना ही हो जाती हैं.

याद है 1973-74 में रात 12 बजे अचानक किसी वेस्पा या लेम्ब्रेटा पर पीछे बैठकर बाड़े के 24 घंटे चलने वाले रणजीत होटल में अटल जी का पहुंच जाना और हम वामियों के बीच बैठ चाय पीने के बाद कुछ देर यूं ही गपिया के इन 'स्टूडेंट फेडरेशनों की चाय के पैसे भी हम दिए जाते हैं' कहकर हंसते हुए चला जाना.

इमरजेंसी की जेल में एक बार, शायद 1976 की सर्दियों में, अटल जी की चिट्ठी आई. उनकी इस चिट्ठी को सभी बैरकों में जा-जाकर सुनाया भी गया. कमाल की बात यह थी कि अटल जी ने जेल में बंद सभी लोगों के नाम उस चिट्ठी में लिखे थे और सभी को नाम से प्रणाम बोला था. सब जानते थे कि यह सीबीएम एक्सरसाइज (मनोबल बनाने की कोशिश) है. किंतु ईमानदारी की बात यह है कि आइसोलेशन इतना अधिक और मुकम्मल था कि इस चिट्ठी को सुनकर तब अच्छा लगा था.

उनके बड़े भाई साब की नई और सेकेंड हैंड किताबों की दुकान से 9वीं से बीएससी फाइनल तक की किताबें खरीदने और उनमें भी मुकुट बिहारी सरोज के बेटे के नाते स्पेशल डिस्काउंट पाने की यादें अलग खांचे का हिस्सा हैं.

वे भी उसी कॉलेज के थे जिसमें उनके समकालीन (तब उनके भी, बाद में हमारे नेता) रामगोपाल बंसल पढ़े. उनके बाद मोतीलाल शर्मा जी पढ़े. बाद में उसी कॉलेज से टूटकर बने साइंस कॉलेज में हम सब पढ़े. वे भी उसी स्टूडेंट्स फेडरेशन से दीक्षित हुए, जिसमें बाद में हम सब प्रशिक्षित हुए. यह बात सिर्फ हमें ही याद नहीं है. अटल जी को भी याद रहा. एकाधिक बार उन्होंने भी हमसे इसका जिक्र किया.

'काम न धाम -जय श्री राम'...यह आप्त वचन इस देश के कवि प्रधानमंत्री और मेरे सर्वकालिक प्रिय वक्ताओं में से एक पंडित अटल बिहारी वाजपेयी जी का ही है- और उन्होंने इसे उस वक्त सबसे पहले ग्वालियर की, बाद में बनारस, पटना और उसके बाद शायद एक दो आम-सभाओं में झुंझलाहट में बोला था था, जब उनके माइक पर आते ही भीड़ में से कुछ उत्साहीलालों ने 'जय श्री राम' का उद्घोष करने में पर्याप्त समय खर्च कर लिया था. अटल जी ने एक बार यही बात प्रधानमंत्री के रूप में लोकसभा में भी, अपने ही सांसदों के व्यवधान से क्षुब्ध होकर कही थी.

यहां अपने कालखण्ड की संसदीय राजनीति की उस असाधारण शख्सियत को याद करना है जो प्रभावित करने की असामान्य क्षमता के साथ एक कवि भी थे. इसलिए अंतिम समय तक अपने अंदर की मनुष्यता और शिष्टाचार को बचाए रखा.

अटलजी अपने वैचारिक कुटुम्ब कबीले के आइकॉन थे, 'लोगो' थे मगर उसके साथ उनका संबंध दोनों तरफ से ही असहज था. समय-समय पर उन्होंने खुद को भिन्न और असहमत बताया और जब भी ऐसा किया, काफी मुखरता के साथ किया. और यह बात सिर्फ अपने मंत्रिमंडल संघ अस्वीकृत मंत्रियों को शामिल करने या गुजरात के 'राजधर्म' निबाहने की उक्ति तक सीमित नही थी. यह   उनकी लोकप्रियता थी जिसके चलते उन्हें निबाहा गया.

1984 की पराजय ने उन्हें ग्वालियर से असंपृक्त कर दिया था. उन्होंने उस हार की अपेक्षा नहीं की थी. वे ग्वालियर से उचट गए थे. यह उचाट कई बार उजागर हुआ. कभी ग्वालियर के जनमुद्दों को लेकर उनके पास गए प्रतिनिधि मंडलों के साथ उनकी चर्चा में तो अक्सर उनकी टिप्पणियों में दिखा. हालांकि इसके पीछे और किसी कारण से ज्यादा उनके ही कटुम्ब कबीले की महल निष्ठा ज्यादा जिम्मेदार थी. शायद यही कारण रहा कि उनके प्रधानमंत्री बनने पर ग्वालियर भले मान करता रहा, उसे उसका प्रतिदान नहीं मिला.

( लेखक सीपीएम के मध्य प्रदेश राज्य सचिवमंडल के सदस्य और  अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव हैं. हमारी वेबसाइट पर इनके अन्य लेख यहां क्लिक कर पढ़े जा सकते हैं.)