कांग्रेस और उसके नेता महात्मा गांधी ने 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की शुरुआत करते हुए ‘करो या मरो’ का नारा दिया था. गांधी जी ने कहा था कि इस समय मैं अपने जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ने जा रहा हूं.
इसके बावजूद राजा जी, कम्युनिस्ट, जिन्ना, सावरकर, आंबेडकर और रजवाड़ों ने भारत छोड़ो आंदोलन का या तो खुलेआम विरोध किया या असहयोग किया. राजा गोपालाचारी ने तो इस आंदोलन के विरोध में कांग्रेस छोड़ दी थी. हालांकि बाद में उन्होंने फिर कांग्रेस ज्वाइन की.
आजादी के बाद राजा जी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार भी बन गए. जवाहर लाल नेहरू उन्हें राष्ट्रपति बनाने की जिद पर अड़ गए थे. सरदार पटेल के कड़े विरोध के कारण वह राष्ट्रपति नहीं बन सके. डॉ.राजेंद्र प्रसाद प्रथम राष्ट्रपति बने. इन विरोधों के बावजूद भारत छोड़ो आंदोलन पूर्णतः सफल रहा. अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिल गईं.
सात अगस्त, 1942 को पौने तीन बजे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक मुंबई के गोवालिया टैंक के मैदान में हुई. इस अवसर पर महात्मा गांधी ने कहा, ‘हो सकता है कि गुस्से में आकर अंग्रेज ऐसे काम करें जिससे आप उत्तेजित हो जाएं. तो भी आपको हिंसा पर उतरना नहीं है. अगर ऐसा कुछ हुआ तो आप मान लें कि मैं कहीं भी होऊं, आप मुझे जीवित नहीं पाएंगे.'
इस अवसर पर जवाहर लाल नेहरू ने बिना शत्र्त स्वाधीनता का प्रस्ताव पेश किया. प्रस्ताव का समर्थन करते हुए सरदार बल्लभ भाई पटेल ने कहा कि ब्रिटेन भारत की रक्षा करने के लिए सिर्फ इसलिए तैयार है ताकि अंग्रेजों की अगली पीढि़यां भी भारत में रह सकें.
प्रस्ताव पर बोलते हुए डॉ.राम मनोहर लोहिया ने कहा कि घटनाओं ने दिखा दिया कि ब्रिटेन अब अजेय शक्ति नहीं है. ब्रिटिश सत्ता के प्रति भारत का रुख पिछले कुछ महीनों में क्रांतिकारी रूप से बदल गया है. इसलिए लोगों के दिल से ब्रिटेन का डर निकल गया है.
कम्युनिस्टों की भूमिका की आलोचना करते हुए डॉ.लोहिया ने कहा कि ‘यह क्या बात है कि जो लोग तत्काल क्रांति की मांग करते हैं, वे लोग अब प्रस्तावित संघर्ष का विरोध कर रहे हैं.’
इस तरह प्रस्ताव पास हो गया. गांधी जी ने लोगों से कहा कि अब आप खुद को स्वतंत्र मानें. एआईसीसी द्वारा अनुमोदित आंदोलन की खबर को अंग्रेज शासकों ने अखबारों में छपने नहीं दिया. राष्ट्रीय अखबारों से महात्मा गांधी ने अपील की कि वे अब अपना प्रकाशन बंद कर दें. जब भारत आजाद होगा तो फिर प्रकाशन शुरू होगा.
अखबारों में नहीं छपने के बावजूद आंदोलन की खबरें लोगों तक पहुंचती रहीं. क्योंकि इस आंदोलन को आम जनता का समर्थन हासिल था. इस आंदोलन का विरोध करते हुए नौ अगस्त 1942 को ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के अध्यक्ष एम.ए.जिन्ना ने कहा, ‘मुस्लिम भारत के सभी लोगों की पूर्ण स्वतंत्रता का पक्षधर हैं. हमने कांग्रेस का प्रस्ताव इसलिए ठुकरा दिया क्योंकि तत्काल राष्ट्रीय सरकार बनाने की मांग का मतलब हिंदू राज या हिंदू बहुमत की सरकार होगा. मेरी मुसलमानों से अपील है कि वे इस आंदोलन से बिलकुल अलग रहें. मैं कांग्रेस को चेतावनी देता हूं कि वह मुसलमानों को बाध्य न करें.’
उधर 10 अगस्त को हिंदू महा सभा के अध्यक्ष बी.डी. सावरकर ने कहा कि ‘हिंदू महासभा की और हिंदुओं की सहानुभति गिरफ्तार नेताओं के प्रति है. भारतीय असंतोष का निवारण केवल स्वतंत्रता और सत्ता हस्तांतरण से ही हो सकता है. फिर भी कांग्रेस का प्रस्ताव हिंदुओं के न्यायोचित अधिकारों के लिए ही नहीं, भारत की अखंडता और शक्ति के भी प्रतिकूल होगा. मेरा कर्तव्य है कि सभी हिंदू सभाइयों से विशेषतः हिंदुओं से कहूं कि न तो वे इस प्रस्ताव के पक्ष में कुछ करें और न आंदोलन के प्रति विरोधी रवैया अपनाएं.’
गैर राजनीतिक संगठन होने के कारण आरएसएस भी इस आंदोलन से अलग रहा. किंतु डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने तो इस भारत छोड़ो आंदोलन को गैर जिम्मेदाराना आंदोलन कहा. राज गोपालाचारी ने कहा कि ऐसे समय में भारत छोड़ो आंदोलन नहीं होना चाहिए. याद रहे कि 1939 से 1945 तक विश्व युद्ध चल रहा था. उधर इस भारत छोड़ो आंदोलन को इक्के-दुक्के रजवाड़ों का ही समर्थन हासिल था.
अधिकतर रजवाड़े यह समझ रहे थे कि आजादी के बाद उनका अस्तित्व समाप्त होने वाला है. हालांकि रजवाड़ों के इलाकों की जनता आंदोलनरत थी. इन सब विरोधों के बावजूद 1942 के आंदोलन को इस देश की जनता का व्यापक समर्थन मिला.
करीब एक लाख आंदोलनकारी गिरफ्तार किए गए. कांग्रेस पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया. ब्रिटिश पुलिस की गोलियों से सैकड़ों आंदोलनकारी मारे गए. हजारों लोग घायल हुए. बड़ी संख्या में आंदोलनकारियों के घर सरकार ने तोड़े और जलाए. आम लोगों की भीड़ ने सरकारी संपत्ति को भारी क्षति
पहुंचाई. कई जगह आंदोलनकारियों ने परिवहन और संचार व्यवस्था ठप कर दी.
कई स्थानों में कुछ समय के लिए जनता की समानांतर सरकार कायम हो गई थी. अनेक गांवों पर सरकार ने सामूहिक जुर्माना लगाया. जो आंदोलनकारी गिरफ्तार नहीं हो सके थे,वे भूमिगत होकर आंदोलन चलाते रहे.