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सबके अपने-अपने विवेकानंद

सबके अलग-अलग विवेकानंद हैं, लेकिन पूरा विवेकानंद किसी के पास नहीं.

Chandan Srivastawa

'न मैं राजनेता हूं, न ही राजनीति का आंदोलनकारी. मेरा ध्यान बस आत्मा पर होता है. उसके ठीक होने से सबकुछ ठीक हो जाता है. कलकत्ता के लोगों को खबरदार कर दो कि वे मेरे लिखे-बोले का कभी भी सियासी मतलब न निकालें.'

विवेकानंद ने 27 सितंबर 1894 को अमेरिकी से लिखी चिट्ठी में यह बात अपने समर्थक और वेदांत के उपदेशक अलसिंग पेरुमल को लिखी.


जीवित रहते विवेकानंद को राजनीति से परहेज रहा. विडंबना देखिए कि मौत के बाद विवेकानंद के लिखे-कहे पर सबसे ज्यादा राजनीति होती है!

विवेकानंद पर वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ 

मिसाल के लिए याद करें अब से चौदह साल पहले की बात. उस वक्त भी एनडीए के शासन के दिन थे. देश की संस्कृति के प्रतीकों पर घनघोर बहस चल रही थी. ऐसी ही एक बहस के केंद्र में थे विवेकानंद.

पत्रकार से राजनेता बने अरुण शौरी ने कह दिया कि ‘वामपंथ विवेकानंद में क्यों रुचि ले रहा है, अगर विवेकानंद में दिलचस्पी लेनी है तो फिर वामपंथ को चाहिए कि वह ईसाई और इस्लाम धर्म के बारे में विवेकानंद के विचारों को स्वीकार करे.’

अरुण शौरी के इस आरोप का जवाब आया सीपीआई के ए.बी. वर्धन की तरफ से. उन्होंने प्रचार-सामग्री के तौर पर एक पुस्तिका लिखी. इसका शीर्षक था- ‘विवेकानंद का संदेश’.

जाहिर है, किताब अरुण शौरी की बातों के खंडन में लिखी गई थी. इस वजह से उसमें विवेकानंद की लिखी-कही बातों के ढेरों हवाले थे.

किताब की भूमिका में कहा गया, 'कम्युनिस्टों ने कभी नहीं कहा कि हम विवेकानंद के अनुयायी हैं. हम वेदांती नहीं हैं. हम लोग मार्क्सवादी हैं.' और इस किताब को लिखने का उद्देश्य है यह बताना कि विवेकानंद द्वारा बताए, 'हिंदू धर्म की असली जमीन क्या है और संघ परिवार का हिंदुत्व उसके कितना उलट है.'

विवेकानंद: हिंदुत्ववादी या समाजवादी 

अगर ढूंढ़ने चलें तो विवेकानंद के बोले-लिखे शब्द-संसार में ऐसा बहुत कुछ मिल जाएगा जिससे आपको लगेगा कि अरुण शौरी ही की बात ठीक है.

मिसाल के लिए ड्रेटायट में 21 फरवरी 1894 को दिए गए भाषण के इस अंश पर गौर करें जिसमें ईसाई मिशनरियों को लक्ष्य करके स्वामीजी ने कहा.

'तुमलोग अपने लोगों को प्रशिक्षण देते हो, वेतन भी देते हो, सो किसलिए? इसीलिए ना, कि वे मेरे देश में आयें, मेरे समस्त पुरखों, मेरे धर्म और मेरी चीजों को धिक्कारें. ये लोग किसी मंदिर के पास से गुजरते हैं और कहते हैं- तुम मूर्तिपूजक लोग! तुम लोग नर्क में जाओगे, नर्क में.'

'लेकिन ये लोग यही बरताव भारत के मुसलमानों के साथ तो करके दिखायें, एकदम से तलवारें निकल आयेंगी. लेकिन हिंदू बड़ा विनम्र होता है, वह हंसकर यह कहते हुए निकल जाएगा कि ‘बोलने दो इस मूर्ख को जो कुछ बोल रहा है.’

'हिंदू का स्वभाव तो ऐसा है और फिर भी तुमलोग जो अपने लोगों को आलोचना और निंदा करने का प्रशिक्षण देते हो, तुम्हें मैं भरपूर उदारता के भाव से तनिक भी आलोचना के साथ छू लूं तो अपने को सिकोड़कर चिल्लाने लगते हो- ना, ना, हमें मत छुओ, हमलोग तो अमेरिकी हैं, हमलोग दुनिया के सारे लोगों की आलोचना करते हैं, उनकी निंदा करते हैं और उनपर लानतें भेजते हैं, कुछ भी कहते हैं लेकिन हमें मत छूना, हम तो छुई-मुई के पौधे हैं...'

ठीक ऐसे ही ए. बी. बर्धन की तरफ खड़े होकर विवेकानंद-साहित्य से ढेरों पंक्तियां उद्धृत की जा सकती हैं.

स्वामीजी को ‘समाजवादी’ करार देते हुए सबूत के तौर पर बहन मेरी हॉल को लिखी चिट्ठी का यह हिस्सा सुनाया जा सकता है, 'मैं समाजवादी हूं, इसलिए नहीं कि इसे एक पूर्ण व्यवस्था मानता हूं, बल्कि इसलिए कि ‘ना-रोटी से अच्छी आधी रोटी’. बाकी व्यवस्थाओं पर अमल कर लिया गया और वे खोटी निकलीं. अब जरा इसे भी आजमा लिया जाय.'

इसी मिजाज की एक चिट्ठी और है जो स्वामीजी ने अलसिंग पेरुमल को लिखी थी, 'जब तक लाखो लोग भूख और अज्ञानता में पड़े हैं तब तक मैं हर उस व्यक्ति को धोखेबाज मानूंगा जो इन्हीं लोगों के होने के कारण पढ़-लिख सका लेकिन उनके दुखों पर जरा भी ध्यान नहीं देता...!'

ऐसी पंक्तियों के माध्यम से विवेकानंद को वर्ग-संघर्षी सोच वाला भी बताया जा सकता है.

हिंदू धर्म और विवेकानंद 

बात सिर्फ अरुण शौरी और ए.बी. वर्धन की नहीं. बरसों पहले चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को लगा था, 'स्वामी विवेकानंद ने हिंदू धर्म और भारत को बचा लिया. वे ना होते तो हमारा धर्म जाता रहता और हम आजादी भी हासिल नहीं कर पाते..,'

लेकिन विवेकानंद के बारे में जवाहरलाल नेहरू का विचार बिल्कुल अलग था. उन्होंने अपनी किताब 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में लिखा, ‘उन्होंने वेदांत के अद्वैतवाद की व्याख्या की, जो न सिर्फ आध्यात्मिक था बल्कि तर्कसंगत भी और जिसकी संगति प्रकृति के वैज्ञानिक अनुसंधान से मिलती-जुलती थी.'

कुछ और पन्ने पलटें तो इन दोनों राजनेताओं की बातों के विरुद्ध विवेकानंद की ही कुछ पंक्तियों को खड़ा किया जा सकता है. राजगोपालाचारी को भले लगा हो कि स्वामीजी ने हिंदू धर्म को बचा लिया लेकिन स्वयं स्वामीजी की राय तत्कालीन हिंदू धर्म के आचारों के बारे में क्या थी?

विवेकानंद ने 19 मार्च 1984 को स्वामी रामकृष्णानंद को लिखा, 'हमारा पतन तो अपनी स्त्रियों को ‘नारी नरक का द्वार’ कहने के कारण हुआ है...क्या तुम्हें लगता है कि हमारा धर्म, धर्म कहलाने का अधिकारी है, हमारा तो धर्म तो यह बन चला है कि छुओ मत...छुओ मत...मुझसे दूर रहो...’

नेहरू को भले लगा हो कि विवेकानंद ने अद्वैतवाद की जो व्याख्या की वह ‘प्रकृति की वैज्ञानिक खोज’ के मेल में था. लेकिन स्वामी विवेकानंद के विचार उस पूरी यूरोपीय सभ्यता के लिए जिसने बाहरी प्रकृति को प्राणहीन पिण्ड मानकर 'वैज्ञानिक अनुसंधान' का विचार दिया, बड़े तल्ख थे.

यूरोपीय सभ्यता पर विवेकानंद

विवेकानंद के ‘समग्र साहित्य’ में एक जगह लिखा है, 'भारत में हमारी राह में दो बड़ी बाधाएं हैं, एक तो पुरातनी रुढ़ियों की और दूसरे आधुनिक यूरोपीय सभ्यता की. इन दोनों के बीच अगर चुनना हो तो मैं पुरातनी रुढ़ियों को चुनूंगा क्योंकि पुराना रुढ़िपरस्त आदमी भले अज्ञानी हो, गंवार जान पड़े, लेकिन उसके भीतर एक विश्वास होता है, एक ताकत होती है, वह अपने पैरों पर खड़ा होता है;'

'लेकिन अपने मानस से यूरोपीय संस्कारों वाला हो चला आदमी तो बिना रीढ़ का होता है. वह बस यहां-वहां से उठा लिए गए विचारों का एक गोला भर होता है. और फिर ये विचार ना तो उसे पचे होते हैं ना ही उनमें कोई मेल होता है. ऐसा आदमी तो अपने पैरों पर खड़ा ही नहीं हो सकता और उसका दिमाग लगातार चक्कर खाते रहता है.'

गुरु रामकृष्ण परमहंस के बारे में विवेकानंद ने कहीं यह कहा है, ‘मैं उनके बारे में ज्यादा नहीं बोलता क्योंकि मुझे डर है, कि अगर कुछ कहूं तो वह गुरु पर मेरे अपने ही विचारों का आरोपण होगा.’

विवेकानंद को समझना इतना सरल नहीं 

यही बात विवेकानंद पर लागू होती है. आप जैसे ही उनके बारे में कुछ कहते हैं- वह सारा कुछ जाने-अनजाने उस महान संत की काया को अपने राजनीतिक वादों के कोट में फिट करने की कोशिश भर हो जाता है.

जो उन्हें साइंटिफिक टेंपरामेंट और आधुनिकता के कोने से देखना चाहते हैं, जैसे नेहरु. वे इस गहन रहस्य भरी बात को भूल जाते हैं कि विवेकानंद तो साक्षात् 'देवी का दर्शन' करना चाहते थे.

जो विवेकानंद को हिंदू धर्म के 'वैश्विक योद्धा' के रूप में देखना चाहते हैं, जैसे अरुण शौरी. वे भूल जाते हैं कि विवेकानंद ने विश्व की यात्रा, सिर्फ हिंदू धर्म की ध्वजा फहराने के लिए नहीं की. विवेकानंद की यूरोप-अमेरिका यात्रा का एक लक्ष्य दरिद्रनारायण के लिए चंदा जुटाना भी था.

जो विवेकानंद को सिर्फ हिंदू धर्म का रखवाला घोषित करना चाहते हैं, जैसे राजगोपालाचारी. वे भूलते हैं कि विवेकानंद की कोशिश वेदांत को विश्व-धर्म के रुप में भी प्रतिष्ठित करने की भी थी. साथ ही साथ ‘दरिद्रनारायण’ सरीखा विचार तो हिन्दू-धर्म के मानक माने जाने वाले ग्रंथों में ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता.

और जो, विवेकानंद को ‘हिंदू धर्म का उदार चेहरा’ बताकर प्रस्तुत करना चाहते हैं. जैसे ए.बी. वर्धन वे विवेकानंद के उस रूप को भूल जाते हैं, जिसे देखकर कभी एनी बेसेंट ने कहा था कि वे मुझे ‘संन्यासी-योद्धा’ जान पड़े. कभी-कभी तो संन्यासी कम और योद्धा ज्यादा.

सबके अलग-अलग विवेकानंद हैं, लेकिन पूरा विवेकानंद किसी के पास नहीं. आज जब देश विवेकानंद का जन्मदिन मना रहे है तब उन्हें भारत की विभूति के रूप में सोचते हुए सबसे पहले यह बात याद रखी जानी चाहिए.