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काश! तमाम शहरों के नाम इकट्ठा बदल दिए जाते

नाम बदलने की बीजेपी की खुदरा योजना से जनता अब पक चुकी है. अगर सरकारें नाम बदलने को अपनी सबसे बड़ी संवैधानिक जिम्मेदारी मानती हैं तो उन्हें यह बात सार्वजनिक करनी चाहिए

Rakesh Kayasth

अस्सी और नब्बे के दशक में बल्ब बनाने वाली एक कंपनी के विज्ञापन का टैग लाइन बहुत लोकप्रिय था- पूरे घर के बदल डालूंगा. हाथ में बल्ब लिए बॉलीवुड का एक कॉमेडियन जब ये कहता था, पूरे घर के बदल डालूंगा तो बच्चे खूब हंसते थे. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के तेवर देखकर वही पुराना विज्ञापन याद आ रहा है. ऐसा लग रहा है, जैसे योगीजी कह रहे हों- हर जिले, हर शहर और हर गांव के नाम बदल डालूंगा. यह 'नाम बदल नीति' आरएसएस के सांस्कृतिक राष्ट्रवादी एजेंडे का हिस्सा हो सकती है, लेकिन सच यह है कि बीजेपी ने इसे एक कॉमेडी सीरियल बना दिया है.

योगी एक जगह जाते हैं, शहर का नाम बदलने की घोषणा होती है. एक एपिसोड खत्म होता है और अगला शुरू हो जाता है. बीसियों नए शहरों के नाम हवा में तैरने लगते हैं, लखनऊ भी बदलने वाला है, आगरा भी बदलने वाला है, गाज़ियाबाद, मिर्जापुर, अलीगढ़ और आजमगढ़ बदलने वाले हैं. शहर याद कीजिए, नए नाम की अटकलें हाज़िर हैं. बीजेपी के नेता स्थानीय स्तर पर नए नाम उछालते रहते हैं. सरकार की तरफ से ना तो पुष्टि होती है ना कोई खंडन आता है. अटकलें जारी रहती हैं और न्यूज़ चैनल बाकी ख़बरें छोड़कर 'नाम बदल नीति' पर बहस में जुटे रहते हैं.


योगी आदित्यनाथ इंटरनेट पर सबसे ज्यादा सर्च किए जाने वाले मुख्यमंत्री हैं. लेकिन हाल के दिनों में फेसबुक और ट्विटर पर उनकी पहचान वो चुटकुले बन चुके हैं, जो पब्लिक, शहरों के नाम बदलने को लेकर बना रही है. किश्त में नाम बदलने की रणनीति को लेकर राजनीतिक पंडितों के आकलन अपनी जगह हैं. लेकिन आम जनता के पल्ले कुछ ज्यादा नहीं पड़ रहा है.

पब्लिक को लगता है कि जब नाम बदलने ही हैं तो एक ही बार में बदल दिए जाएं. हर तीसरे दिन एक नया शिगूफा छोड़ने की क्या ज़रूरत है? पिछले कुछ समय से ऐसा लग रहा है कि बीजेपी शासित सरकारों के लिए सबसे बड़ा काम यही है. लेकिन राज्य सरकारें जिस काम में रात-दिन जुटी हैं, उसे लेकर साफ-साफ कुछ नहीं कहती हैं. नामकरण नीति को लेकर बीजेपी का स्टैंड भी साफ नहीं है.

कितने शहरों के नाम बदलेगी सरकार?

मामला सिर्फ उत्तर प्रदेश का नहीं है. गुजरात के उप-मुख्यमंत्री नितिन पटेल ने कहा है कि अहमदाबाद का नाम कर्णावती रखे जाने पर विचार हो रहा है. अब सवाल यह है कि अगर कर्णावती हिंदू अस्मिता से जुड़ा एक प्राचीन नाम है और राज्य की जनता सचमुच इसे बहाल किए जाने की इच्छा रखती है तो फिर नाम बदले जाने का विचार एक दशक से ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी के दिमाग में क्यों नहीं आया? आखिर लोकसभा चुनाव से ठीक पहले ही नाम बदले जाने का मुहूर्त क्यों निकला है? तेलंगाना में भी बीजेपी कह रही है कि अगर सत्ता में आई तो हैदराबाद का नाम बदलकर उसका हिंदू नाम रखेगी.

सवाल यह है कि कितने शहरों के नाम बदले जाएंगे और इससे क्या होगा? कस्बों, मुहल्लों और गलियों तक के हज़ारों-लाखों नाम गैर-हिंदू हैं. बीजेपी पहले भी सत्ता में रही है. लेकिन एक पहचान मिटाकर दूसरी पहचान कायम करने को लेकर इसके नेताओं में ऐसी सामूहिक होड़ या उन्माद पहले कभी नहीं दिखी. क्या ऐसा होना सिर्फ एक संयोग है?

इतिहासकार इरफान हबीब का कहना है कि नाम बदलने की इस रणनीति के पीछे अल्पसंख्यक पहचान को मिटाकर हर जगह हिंदू पहचान थोपना है. अगर इसके पीछे की संकीर्ण मनोवृति किनारे रख दें और फैसले को सही मानें तब भी क्या ऐसा पूरी तरह से कर पाना संभव है.

इरफान हबीब ने पूछा है कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह अपने नाम का क्या करेंगे? उनका सरनेम शाह तो फारसी से आया है. सोशल मीडिया में लगातार इस बात को लेकर चुटकुले चल रहे हैं कि क्या स्मृति ईरानी अपना नाम बदलकर 'स्मृति भारतीय' करेंगी? हिंदू उच्च जातियों में सैकड़ों ऐसे उपनाम हैं, जिनके मूल में अरबी, फारसी या कोई अन्य विदेशी भाषा है. बिहार के मिथिला इलाके में रहने वाले कई ब्राह्मणों के उपनाम खान होते हैं. बंगाल में मजूमदार, तालुकदार और चौधरी जैसे सैकड़ों ऐसे उपनाम हैं जो मुसलमानों में भी हैं बल्कि उन्हीं के ज़रिए हिंदू जातियों तक पहुंचे हैं. क्या ऐसे सारे उपनाम बदले जा सकते हैं? बाकी चीज़ों को छोड़ दीजिए हिंदू शब्द भी संस्कृत का नहीं है, बल्कि मध्य-पूर्व से आया है. क्या बीजेपी हिंदू शब्द भी छोड़ना चाहेगी?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश-विदेश में कई बार यह कह चुके हैं कि बहुरंगी संस्कृति भारत की सबसे बड़ी ताकत है. संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में अपने भाषण में कहा था कि मुसलमानों के बिना इस देश में हिंदुओं का भी कोई वजूद नहीं हो सकता. जहां शीर्ष नेतृत्व इतनी अच्छी बातें कर रहा हो, वहां प्रदेश स्तर पर नेता चुन-चुनकर गैर-हिंदू पहचान मिटाने में जुटे हों, ऐसा विरोधाभास देश की राजनीति में पहले कभी नज़र नहीं आया.

राष्ट्रीय नामकरण आयोग बनाना पड़ेगा:

नामकरण को लेकर कई तरह के दिलचस्प ख्याल तैर रहे हैं. अगर नाम बदलना ही बीजेपी सरकारों के लिए सबसे ज़रूरी काम है तो सरकारें खुलकर क्यों नहीं बताती कि यह उनकी प्राथमिकता यही है. सरकार को शहरों के नामों की एक सूची जारी करके जनता को यह बताना चाहिए कि कब तक और कितने नाम बदले जाएंगे.

प्रतीकात्मक तस्वीर

यह दावा किया जा रहा है कि शहरों के नामों में बदलाव जनता की इच्छाओं को ध्यान में रखकर किए जा रहे हैं, ऐसे में अगर चुनावी घोषणा पत्र में इस बात का जिक्र आ जाए तो बेहतर होगा. वैसे गैर-हिंदू पहचान वाले नाम इतने हैं कि इन्हें बदलना अपने आप में एक बड़ा काम है. इसके लिए अगर सरकार चाहे तो राष्ट्रीय नामकरण आयोग गठित कर सकती है. यह आयोग एसटी-एससी आयोग या किसी ऐसे अन्य आयोग के तर्ज पर काम करे जिसे सांवैधानिक दर्जा प्राप्त है.

अगर सरकार को यह लगता है कि स्थिति आपातकालीन है और वोटर इंतज़ार नहीं कर सकते तो फिर अध्यादेश लाकर एक साथ सैकड़ों-हज़ारों शहरों के नाम बदले जा सकते हैं. प्रधानमंत्री मोदी एक देश, एक चुनाव की बात कर चुके हैं. अगर लगे हाथों एक देश, एक अध्यादेश भी हो जाए तो हर्ज क्या है. इसी अध्यादेश के ज़रिए राम मंदिर और बाकी दूसरे ऐसे मंदिर भी बन जाएं जो सरकार बनवाना चाहती है.

जिस तरह शहरों के नाम बदल रहे हैं, जनता के लिए सारे बदले गए नाम याद रख पाना मुश्किल है. ऐसे में अमिताभ बच्चन केबीसी का एक पूरा एपिसोड नामों से जुड़े सवालों पर केंद्रित रख सकते हैं. नाम बताइए और करोड़पति बन जाइए.

क्या नाम बदलने से बीजेपी का फायदा हो रहा है?

हल्की-फुल्की बातें अपनी जगह हैं. लेकिन पिछले कुछ समय में बीजेपी की राजनीति में जो बदलाव आया है, वह लगभग चालीस साल पुरानी इस पार्टी के इतिहास में पहले कभी नहीं दिखा. यह ठीक है कि बीजेपी प्रतीकवाद की राजनीति करती है.

लेकिन प्रतीकवाद को राजनीति के केंद्र में लाने की यह बेचैनी अस्सी के दशक में भी नहीं थी, जब लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में राममंदिर का आंदोलन चला रही थी. धार्मिक उन्माद के उस दौर में भी पार्टी ने कभी यह मांग नहीं उठाई थी कि इलाहाबाद जैसे शहरों के नाम बदल दिए जाएं.

सवाल यह है कि क्या इस अस्मितावादी आक्रामक राजनीति का बीजेपी को वाकई फायदा हो रहा है? अब तक आ रही प्रतिक्रियाओं से लगता है कि ऐसा नहीं हो रहा है. वजहें बहुत साफ है. पहली बात यह है कि जो कट्टरवादी हिंदू वोटर बीजेपी के साथ हैं, वे हमेशा साथ रहेंगे. गैर-हिंदू सांस्कृतिक पहचान मिटाकर बीजेपी नए समर्थक नहीं जुटा सकती है.

लेकिन पार्टी को यह भी याद रखना चाहिए कि एक पढ़ा लिखा तबका भी परंपरागत रूप से उसका वोटर रहा है. यह तबका मानता है कि कांग्रेस के मुकाबले बीजेपी ज्यादा ईमानदार है और उसकी प्राथमिकता विकास है. रोज-रोज चल रही नामकरण की नौटंकी देखकर यह वोटर अलग छिटक सकता है.

यह याद रखना चाहिए 2014 के बाद के तमाम चुनाव बीजेपी ने नरेंद्र मोदी के विकास पुरुष वाली छवि के आधार पर जीते हैं. यूपी के चुनाव में कब्रिस्तान और श्मशान का जिक्र ज़रूर आया था, फिर भी बीजेपी की जीत के केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वह सकारात्मक छवि थी, जो नोटबंदी जैसे साहसिक फैसलों की वजह से बनी थी. विकास के बदले हिंदूवाद का राजनीति के केंद्र में आना बहुत बड़े सवाल खड़े करता है.

शहरों के नाम बदलने का शिगूफा छेड़ना या नाम सचमुच बदलने का फायदा तब हो सकता था, जब उसका प्रबल विरोध होता. बीजेपी उस विरोध को हिंदू विरोध और राष्ट्रवादी एजेंडे के विरोध के रूप में भुना सकती थी. लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं हो रहा है. इलाहाबाद जैसे लोकप्रिय नाम को बदलने के योगी आदित्यनाथ के फैसले का कोई बड़ा विरोध देखने को नहीं मिला.

साफ है कि बीजेपी का यह दांव निशाने पर नहीं लग रहा है. उल्टे हरेक शहर का नाम बदलने की जिद यह साबित कर रही है कि बीजेपी शासित सरकारें गवर्नेंस के मोर्चे पर पिट रही हैं. उसके पास दिखाने के लिए कोई काम नहीं है. इसलिए वह अस्मितावाद का सहारा ले रही है. तो क्या बीजेपी अपनी इस रणनीति पर पुनर्विचार करेगी. पार्टी जिस रास्ते पर कदम बढ़ा चुकी है, अब उसके लिए पीछे लौटना संभव नहीं रह गया है. यह साफ है कि 2019 का चुनाव बीजेपी हिंदू पहचान के नाम पर ही लड़ेगी, नतीजा चाहे जो हो.