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आजादी के बाद सिनेमा के लेंस में बखूबी दिखाई दी अर्थव्यवस्था की तस्वीर

50 के दशक से लेकर मौजूदा दौर तक फिल्म मेकिंग में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की गई है

Gaurav Choudhury

आज की नई पीढ़ी शायद गुजरे जमाने के हास्य कलाकार महमूद की 1976 की फिल्म सबसे बड़ा रुपैया की मशहूर लाइन ना बीवी ना बच्चा ना बाप बड़ा ना भैय्या, द होल थिंग इज दैट कि भैय्या सबसे बड़ा रुपैया से शायद खुद को पूरी तरह न जोड़ पाए.

यह फिल्म 1975 में आपातकाल लागू होने के ठीक बाद आई थी. इससे कुछ साल पहले 60 के दशक के मध्य में रुपए की वैल्यू को कम करने का विवादित कदम भी उठाया गया था. इस फिल्म के जरिए यह बताया गया था कि किस तरह से उस वक्त ज्यादातर भारतीयों के लिए पैसा कमाना मुश्किलों भरा था.


मास मीडिया के किसी भी दूसरे रूप की तरह से फिल्में भी जीवन की विडंबनाओं को अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त करती हैं. किसी भी दौर की ब्लॉकबस्टर फिल्में ऐसी कहानियां सुनाती हैं जो आज के दौर में भी प्रासंगिक हैं. 1950 के दशक से लेकर मौजूदा दौर तक फिल्म मेकिंग में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की गई है. कई बार यह संदेश परोक्ष तरीके से दिया गया है, जबकि कई बार इसे सीधे तौर पर रखा गया है.

आर्थिक नीतियों ने कई फिल्मकारों को फिल्में बनाने के लिए उत्साहित किया है. यहां फिल्म स्क्रिप्ट्स के जरिए आजादी के बाद के भारत की अर्थव्यवस्था का एक संक्षिप्त इतिहास दिया जा रहा है.

चेतावनी : यह लिस्ट किसी भी तरह से परिपूर्ण नहीं है. इसे कई मीडिया रिपोर्ट्स, रिसर्च पेपर्स से हासिल किया गया है. साथ ही दुनिया की सबसे विविधता भरी फिल्म इंडस्ट्री यानी बॉलीवुड में लेखक की दिलचस्पी का भी इसमें योगदान है.

1950 का दशक

1957 में गुरु दत्त ने अपनी फिल्म प्यासा में यह क्लासिक लाइन कही थी- ‘तुम किसकी तलाश में मजनूं बने फिर रहे हो? नौकरी’ इसमें जोरदार तरीके से अमीरों के दंभ के खिलाफ आम लोगों के मूड को जाहिर किया गया था. साथ ही आंशिक तौर पर औद्योगिकीकरण पर फोकस वाले जवाहरलाल नेहरू के आर्थिक मॉडल की आलोचना की गई थी.

दूसरी ओर, सत्यजीत रे की क्लासिक पाथेर पांचाली (1955) नेहरूवियन समाजवादी अर्थव्यवस्था में आगे बढ़ने की एक बेहतरीन कहानी है जिसमें मासूमियत के साथ ग्रामीण गरीबी का जिक्र किया गया है.

बिमल रॉय की बनाई फिल्म दो बीघा जमीन (1953) में उस वक्त के कटु सत्य को दिखाया गया है. जिसमें कर्ज के बोझ तले दबे किसानों के लिए अपनी थोड़ी सी जमीन को बचाना नामुमकिन सा था. यह ऐसी फिल्म थी जिसने रीक्वीजिशन एंड एक्वीजिशन ऑफ इमूवेबल प्रॉपर्टी एक्ट 1952 को ग्रामीण-शहरी पलायन की जटिलताओं के साथ जोड़कर पेश किया था.

महबूब की मदर इंडिया (1957) उस वक्त के आर्थिक हालात को बयान करने वाली जबरदस्त फिल्म है. इसमें किसानों की परेशानियां, उन पर मौजूद कर्ज का बोझ और एक युवा देश के बड़े बांध बनाने जैसे राष्ट्र निर्माण के कदमों का जिक्र है. इस फिल्म को भारत का पहला एकेडमी अवॉर्ड नॉमिनेशन हासिल हुआ था.

बीआर चोपड़ा की नया दौर (1957) में औद्योगीकरण की बड़ी थीम को जाहिर किया गया था. इसमें आर्थिक बदलाव की जटिल और दर्द भरी प्रक्रिया और 1956 के इंडस्ट्रियल पॉलिसी रेजॉल्यूशन के चलते तकनीक आने के नुकसान को बताया गया था.

1960 का दशक

विजय आनंद की काला बाजार (1960) में शहरी भारत के आर्थिक मसलों को उठाया गया था. इनमें पैसा, महंगाई और सरकार की कीमतों को नियंत्रण में रखने की कोशिशें शामिल हैं. यह ऐसे दौर की कहानी है जब देश विदेशी एक्सचेंज नियंत्रण करने, ऊंची महंगाई और बढ़ते फिस्कल डेफिसिट का सामना कर रहा था.

चेतन आनंद की 1964 में आई फिल्म हकीकत एक ब्लॉकबस्टर वॉर मूवी थी. इसमें 1962 में चीन के साथ हुई लड़ाई के तुरंत बाद देश के घावों पर मरहम लगाने और देशभक्ति की भावना जगाने का काम किया गया था.

देवानंद की गाइड (1965) एक कल्ट रोमांटिक मूवी थी. इसमें सूखा पड़ने और अर्थव्यवस्था पर इसके असर को दिखाया गया था.

मनोज कुमार की उपकार (1967) प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के ‘जय जवान, जय किसान’ के नारे और देश के उत्तरी हिस्सों में हरित क्रांति के साये में आई थी. हरित क्रांति के चलते तब देश में खाद्यान्न उत्पादन में कई गुना बढ़ोतरी हुई थी.

ऋषिकेश मुखर्जी की 1969 में आई सत्यकाम संस्थानिक भ्रष्टाचार और सरकार के गिरते मानकों के खिलाफ लोगों की आवाज के तौर पर बनाई गई थी. फिल्म में देश में मौजूद समानांतर काली अर्थव्यवस्था का साहस भरे तरीके से जिक्र किया गया था.

1970 का दशक

ऋषिकेश मुखर्जी की नमक हराम (1973) में मोनोपॉलीज एंड रेस्ट्रिक्टिव ट्रेड प्रैक्टिसेज एक्ट 1969 और कॉन्ट्रैक्ट लेबर (रेगुलेशन एंड अबॉलिशन एक्ट, 1970) के संदर्भ में मजदूरों के हक की आवाज को उठाया गया था.

प्रकाश मेहरा की जंजीर (1973) में एंग्री यंग मैन का किरदार जन्म लेता है. इसमें नकली दवाएं बनाने की बुराई से निपटने वाले हीरो को दिखाया गया है. यह फिल्म इंडियन पेटेंट्स एक्ट, 1970 के बैकड्रॉप पर बनी है.

यश चोपड़ा की दीवार (1975) एक असली मशहूर स्मगलर की जिंदगी पर बनी फिल्म है. यह ऐसे दौर की कहानी है जब गोल्ड स्मगलिंग एक आम चर्चा का विषय थी. साथ ही यह फिल्म ऐसे दौर में आई थी जबकि फॉरेन एक्सचेंज में जोड़तोड़ पर लगाम लगाने के लिए कोफेपोसा 1974 लागू किया गया था.

यश चोपड़ा की काला पत्थर (1974) में भारत के कोयला सेक्टर में तत्काल रिफॉर्म की जरूरत का तर्क दिया गया था. उस वक्त कोयले पर तथाकथित रूप से माफिया का कब्जा था. इस सेक्टर को रेगुलेट करने के लिए लाए गए कोल माइन्स (नेशनलाइजेशन) एक्ट, 1972 पर हिंसक विवादों के जरिए रोड़ अटकाए गए. इससे ही प्रेरित होकर इस फिल्म में एक कड़ा राजनीतिक संदेश दिया गया. हालिया कोलगेट स्कैंडल इस फिल्म की प्रासंगिकता को जाहिर करता है.

1980 का दशक

कुंदन शाह की जाने भी दो यारों (1983) को कई आलोचक राजनेता-ब्यूरोक्रेट-बिल्डर माफिया गठजोड़ पर तंज करने वाली सबसे बेहतर फिल्म मानते हैं. यह ऐसे दौर को दिखाती है जबकि शहरीकरण बेतरतीब तरीके से और तेज रफ्तार से आगे बढ़ रहा था. फिल्म का डायलॉग- ‘द्रौपदी तेरे अकेले की नहीं है, हम सब शेयर होल्डर हैं’ आज क्लासिक बन गया है.

महेश भट्ट की सारांश (1984) नौकरशाही के चक्करों, लालफीताशाही और राजनीतिक असंवेदनशीलता पर चोट करती है.

सिंगीतम श्रीनिवास राव की पुष्पक (1987) ने मूक फिल्मों के स्वरूप को नया आयाम दिया. इसमें बेहतरीन कॉमेडी के साथ सामाजिक व्यंग्य भी था जो कि पढ़े-लिखे बेरोजगार युवाओं और अमीरों-गरीबों के बीच बढ़ती खाई को दिखाता है.

सूरज बड़जात्या की 1989 में आई मैंने प्यार किया जबरदस्त हिट रही. इसके साथ ही लोगों को मसाला मूवीज से हटकर कुछ नया देखने को मिला. इसमें 1991 में शुरू किए गए रिफॉर्म के पहले लोगों के बेहतर जीवन जीने की आकांक्षा और बदलती संस्कृति को दिखाया गया है.

1990 का दशक

सूरज बड़जात्या की हम आपके हैं कौन (1994) हिंदी सिनेमा की तब तक की सबसे बड़ी कमाई वाली फिल्म साबित हुई. करीब 5 करोड़ के बजट में बनी इस फिल्म ने लगभग 120 करोड़ रुपए की कमाई की. थिएटरों के बाहर लगी कतारों ने मल्टीप्लेक्स के आने का रास्ता तय किया. साथ ही करण जौहर और आदित्य चोपड़ा जैसे युवा फिल्म मेकर्स को भी प्रोत्साहित किया.

1993 में आई हम हैं राही प्यार के, में आमिर खान ने एक गारमेंट एक्सपोर्टर का रोल निभाया, जबकि ताल (1999) एनआरआई कारोबारियों से जुड़ी हुई है. यादें (2001) में रितिक रोशन एक डॉटकॉम आंत्रप्रेन्योर की भूमिका निभाते दिखे.

राजीव राय की गुप्त (1997) आर्थिक उदारीकरण के पक्ष और विपक्ष की बहस को आगे बढ़ाती है. राजनेताओं, उद्योगपतियों और मजदूर यूनियन नेताओं जैसे प्रभावशाली लोगों के समूह के बीच ओपन डोर पॉलिसी या मार्कट इकनॉमी पर होने वाली चर्चा फिल्म का केंद्र बिंदु है.

आदित्य चोपड़ा की दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995) एक पहली पीढ़ी के नॉन-रेजिडेंट इंडियंस (एनआरई) को लेकर बनी एक रोमांटिक कॉमेडी है. इसमें बाकी की दुनिया का साथ पकड़ने के लिए तेजी से आगे बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था को दिखाया गया है. ज्यादातर लोगों को शाहरुख खान की यह लाइन याद हैः कोई नहीं सैनोरिटा, बड़े-बड़े देशों में ऐसी छोटी-छोटी बातें होती रहती हैं.

हसीना मान जाएगी (1999) एक रोमांटिक कॉमेडी है जो कि 1999 की नई टेलीकॉम पॉलिसी के ठीक बाद आई. इसका हिट गाना, ‘व्हॉट इज योर मोबाइल नंबर, तेजी से मोबाइल फोनों के इस्तेमाल की शुरुआत को दिखाता है.

2000 का दशक

नई मिलेनियम के पहले दशक में स्वतंत्र भारत के इतिहास की सबसे अच्छी ग्रोथ रही. 2005 से तीन लगातार साल तक इंडिया की जीडीपी 9.5 फीसदी से ज्यादा की रफ्तार से आगे बढ़ी. नेशनल रूरल एंप्लॉयमेंट गारंटी स्कीम (एनआरईजीए) जैसी कल्याणकारी योजनाओं में देश की पब्लिक पॉलिसी मेकिंग दिखाई दी. बॉलीवुड ने भी इस बदलाव को अपनी फिल्मों में दिखाया.

कई मायनों में फरहान अख्तर की दिल चाहता है (2001) इंडियन फिल्म मेकिंग का एक टर्निंग पॉइंट साबित हुई. यह नई पीढ़ी की बढ़ती आकांक्षाओं के बारे में थी. साथ ही शहरी युवाओं के बारे में थी जो कि गुजरे वक्त को तोड़कर आगे बढ़ना चाहते हैं. ये युवाओं को दिखाती है जो पर्सनल से प्रोफेशनल मोर्चे तक हर जगह अपनी मर्जी से फैसले लेते हैं. फिल्म की यह मशहूर लाइन बहुतों को आज भी याद होगीः यही हाल रहा तो मेरे बुढ़ापे तक एकाध चेक तो साइन कर ही लोगे डैड, जिंदगी में चेक साइन करने के अलावा भी बहुत कुछ है.

आशुतोष गोवारीकर की लगान (2001) ने नॉन-इंग्लिश कैटेगरी में ऑस्कर नॉमिनेशन जीता. इसने वर्ल्ड स्टेज पर इंडियन फिल्म मेकिंग को जगह दिलाई.

मधुर भंडारकर की कॉरपोरेट (2006) में कॉरपोरेट दुनिया में मची गला-काट प्रतिस्पर्धा और एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडों के काले सच को दिखाया गया है. भंडारकर की एक और ब्लॉकबस्टर फिल्म फैशन (2008) में ग्लैमर और रैंप वॉक के पीछे की हकीकत को बयां करती है.

राजकुमार हिरानी की 3 इडियट्स (2009) चेतन भगत के नॉवेल 'फाइव पॉइंट समवन' पर आधारित है. यह भारतीय शिक्षा व्यवस्था की सार्थकता पर सवाल खड़े करती है जिसमें युवा रट्टा मारकर पास हो जाते हैं लेकिन उनके अंदर इनोवेशन और मौलिक चिंतन का अभाव रहता है.

2010 के आगे

अनुषा रिजवी की पीपली लाइव (2010) एक कॉमिक सटायर है. इसमें किसानों पर कर्ज का बोझ, राजनेताओं और मीडिया की प्रतिक्रिया दिखाई गई है. मौजूदा वक्त में किसानों की हालत को देखते हुए यह फिल्म और प्रासंगिक हो जाती है.

2011 में आई जिंदगी ना मिलेगी दोबारा, को फिल्म दिल चाहता है की तर्ज पर ही बनाया गया है. इसमें जोया अख्तर ने भारतीय युवाओं की परिपक्वता, जोखिम उठाने के लिए तैयार रहने और ग्लोबल नजरिए को दिखाया है.