साहित्य में एक कहावत कई बार इस्तेमाल होती है कि 'मानो वक्त वहीं पर ठहर गया'. 21 अक्टूबर, 1947 इतिहास की वही तारीख है जहां भारत और पाकिस्तान के बीच वक्त वहीं पर ठहर गया. मसला था कश्मीर. कश्मीर पर पाकिस्तान का कबायली हमला इसी दिन शुरू हुआ था. इस हमले की परिणिति 27 अक्टूबर को हुई. उस दिन या कहें रात को महाराजा हरि सिंह को नींद से उठाकर विलयपत्र पर दस्तखत करवाए गए.
उस दिन के बाद से आज तक कश्मीर और समस्या एक दूसरे के पर्यायवाची बने हुए हैं. जिसके चलते दोनों देशों को बीते 70 साल में शायद मानव सभ्यता के इतिहास का सबसे बड़ा नुकसान देखना पड़ा हो.
जिन्ना की ईद
हैदराबाद, भोपाल, त्रावणकोर, जूनागढ़, जोधपुर: जैसी रियासतें सन 47 में डिस्प्यूटेड टेरीटरी थीं और पाकिस्तान में मिलना चाहती थीं. इन सारी रियासतों को समझाकर, बेबस बनाकर या धमकाकर भारत में मिला लिया गया. कश्मीर के महाराजा हरि सिंह जो उससे पहले अपनी अय्याशियों और कुछ गलतियों के चलते कई लोगों की नापसंदी झेल रहे थे. आजाद रहना चाहते थे.
हिंदू शासक और मुस्लिम बाहुल्य जनता वाले कश्मीर पर जिन्ना की नजर थी. उस साल ईद 25 अक्टूबर को थी और जिन्ना कह चुके थे कि ईद कश्मीर में मनाएंगे. 21 अक्टूबर को पाकिस्तान ने मुजफ्फराबाद की तरफ से हमला शुरू किया. कबायलियों के इस हमले को पाकिस्तान सेना रसद और हथियार मुहैया करा रही थी.
उलझन वाले महाराजा
अंग्रेजों और सिखों की 1840 की लड़ाई के समय जम्मू और कश्मीर का ज्यादातर हिस्सा डोगरा राजा गुलाब सिंह की रियासत में आता था. महाराजा रणजीत सिंह की मौत के बाद सिख साम्राज्य कमजोर हो चुका था और इसका फायदा उठाते हुए गुलाब सिंह अंग्रेजों के पक्ष में हो गए.
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अमृतसर की संधि का फायदा उठाते हए गुलाब सिंह ने मात्र 75 लाख रुपए में वर्तमान जम्मू-कश्मीर को एक स्वतंत्र देश के तौर पर अलग कर लिया. गुलाब सिंह के बाद के राजाओं में शासन को लेकर न खास योग्यता थी न उत्साह. वो खुद को ब्रिटिश को प्रति निष्ठा रखने वाला आजाद देश मानते थे. इसीलिए 1947 में कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह भी भारत और पाकिस्तान में किसी के साथ नहीं जाना चाहते थे. मगर माउंटबेटन ने उन्हें साफ कर दिया था कि किसी भी प्रिंसली स्टेट के पास आजाद देश बनाने की सुविधा नहीं होगी.
हरि सिंह के पास शासन की योग्यता नहीं थी. अपना ज्यादातर समय बॉम्बे के रेसकोर्स में गुजारने वाले हरि सिंह पाकिस्तानी हमले से घबरा गए. इस हमले के वक्त कश्मीरी सेना के ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को कश्मीर बचाने का श्रेय जाता है.
महाराजा अभी भी ढीले पड़े हुए थे और कबायली श्रीनगर पहुंचने वाले थे. ब्रिगेडियर सिंह ने उरी से बारामूला और श्रीनगर को जोड़ने वाले पुल को ही तोड़ दिया. जिसके चलते हमलावर करीब दो दिन तक आगे नही बढ़ पाए. लेकिन हमलावरों से मुठभेड़ में ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह शहीद हो गये.
24 अक्टूबर, 1947 तक सेनाएं श्रीनगर के बाहरी इलाकों में पहुंच गईं. श्रीनगर का इकलौता पावर स्टेशन जला दिया गया. शहर अंधेरे में डूब गया. हरि सिंह 85 कारों और 8 ट्रकों के काफिले के साथ जम्मू निकल गए.
विलय के बदले मदद
उस समय कश्मीर की सत्ता के खिलाफ बगावता का झंडा शेख अब्दुल्ला उठाए हुए थे. अब्दुल्ला और हरि सिंह के बेटे कर्ण सिंह दोनों ही जवाहरलाल नेहरू के प्रशंसकों में थे. जबकि हरि सिंह को नेहरू फूटी आंख नहीं सुहाते थे. महाराजा ने आखिरी समय तक विलय से बचने की कोशिश की. भारत ने हमलावरों से बचाने के लिए एक ही शर्त रखी, भारतीय गणराज्य में मिलना. कश्मीर के नजरिए से देखें तो ये एक आजाद रियासत के मजबूरी में एक बड़े देश में मिलने की बात थी. आजाद कश्मीर की बात करने वाले लोग आज भी यही तर्क देते हैं.
26 अक्टूबर को जब उनके सामने कोई चारा नहीं रहा तो सफर थके हारे और सहमे हुए महाराजा ने विलयपत्र पर दस्तखत करने की बात मान ली. उन्होंने अपने दीवान से कहा था कि अगर सुबह भारतीय वायुसेना के हवाईजहाजों की आवाज न सुनाई दे तो उन्हें गोली मार दें.
दो पन्नों में करोड़ों की किस्मत
भारत और कश्मीर का विलयपत्र मात्र दो पन्नों का था. आज ये असली पत्र कहां रखा हुआ है किसी को नहीं पता. मगर इस पर दस्तखत करवाते समय की गई जल्दबाजी साफ दिखती है. इसकी जो तस्वीरें उपलब्ध हैं उसपर अगस्त की प्रिंट की हुई तारीख को काट कर अक्टूबर किया गया है. इस पत्र में यह भी लिखा है कि तात्कालिक परिस्थितियों को देखते हुए विलय किया जा रहा है.
तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने घोषणा की 'कश्मीर में ज्यों ही कानून व्यवस्था ठीक हो जाती है और उसकी सरजमीन से हमलावरों को खदेड़ दिया जाता है, भारत में राज्य के विलय का मुद्दा जनता के हवाले से निपटाया जाएगा.'
उस समय की परिस्थितियों की बात करें तो यही आदर्श फैसला था. महाराजा की अपनी छवि काफी खराब थी. ऐसे में भारत के साथ उनके मिलने के फैसले को जनता का साथ नहीं मिलता. आजाद मुल्क बनाया नहीं जा सकता था.
सीजफायर तक भारत के पास 65 फीसदी कश्मीर का हिस्सा था जिसे दुनिया आज भारत प्रशासित कश्मीर कहती है. पाकिस्तान के हिस्से में जो 35 फीसदी है उसे हम पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) कहते हैं.
जवाहरलाल नेहरू ने अपनी राजनीति में व्यवहारिकता की जगह आदर्श को चुना. उन्होंने यूएन से रिफरेंडम की बात को स्वीकार कर लिया. मगर वो रिफरेंडम कभी हो नहीं पाया, शायद होगा भी नहीं. धारा 370 के जरिए कश्मीर को विशेष दर्जा देकर स्वतंत्र सत्ता और भारत गणराज्य के बीच की स्थिति दी गई. कश्मीर इस तरह की स्वतंत्रता पाने वाला इकलौता राज्य नहीं है.
नागालैंड को कई मायनों में कश्मीर से ज्यादा आजादी मिली हुई है. मगर कश्मीर पर हमारा रुख इसलिए बदला जाता है क्योंकि वो अपने नागरिकों को अपने साथ मिलाने से ज्यादा पड़ोसी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नीचे करने का मौका देता है.
ठीक ऐसा ही कश्मीरियों के साथ भी है. उमर अब्दुल्ला कहते हैं कि जिस दिन 370 खत्म होगी. कश्मीर भारत का हिस्सा भी नहीं रहेगा. मगर तीन न्यूक्लियर शक्तियों के बीच ये छोटी सी जगह कैसे टिक पाएगी कोई नहीं जानता. आज के समय में कश्मीर में जो पीढ़ी जवान हो रही है उसने 90 के दशक से चली आ रही उथल-पुथल को ही देखा है. कश्मीर कभी जन्नत था उसने कभी नहीं देखा है. ऊपर से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के चलते आजाद कश्मीर की लड़ाई निजाम-ए-मुस्तफा लाने की कोशिश में बदलती जा रही है. पिछले साल ईद पर मारे गए हिजबुल कमांडर बुरहान वानी के जनाजे के वक्त उसकी मां ने कहा भी था कि बेटा धर्म की राह पर शहीद हुआ है.
कुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि कश्मीर एक ऐसा मुद्दा बन चुका है जिसमें हर कोई 1947 में निकले उस सांप के लिए लाठी पीट रहा है. इस काम की प्रासंगिकता कुछ भी नहीं है मगर जब तक बाकी तीनों पक्ष एक साथ एकमत नहीं होंगे, कुछ नहीं सुधरेगा.