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जन्मदिन विशेष: शरतचंद्र की लेखनी का एक छोटा सा हिस्सा भर है देवदास

'देवदास' तो शरत बाबू के परिचय का एक छोटा सा हिस्सा मात्र है. हां, ये सच है कि इस छोटे से हिस्से को ही बड़ा फलक मिला

Shivendra Kumar Singh

29 अगस्त 2000. करीब 18 साल बीत गए. इसी रोज एक रिकॉर्डिंग के सिलसिले में पहली बार वरिष्ठ लेखक विष्णु प्रभाकर जी से मेरी मुलाकात हुई थी. उनके विशाल रचना संसार के अहम पड़ावों पर चर्चा करते करते बात 'आवारा मसीहा' पर आकर लंबी चली. आवारा मसीहा शरतचंद्र चटोपाध्याय के जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज था. शरत बाबू का नाम मेरे लिए नया नहीं था. लेकिन विष्णु जी ने जोर देकर कहा कि 'आवारा मसीहा' तो पढ़ना ही पढ़ना, उनका खुद का लिखा साहित्य भी पढ़ना.

वो तारीख मुझे इसलिए याद है क्योंकि उन्होंने अपने दस्तखत के साथ मुझे 'आवारा मसीहा' की एक प्रति भेंट की थी. फिल्मी परदे पर शरत बाबू की रचनाओं को देखने का मौका मिल चुका था. अब लिखे शब्दों को समझने की बारी थी. जिसके शरतचंद्र चटोपाध्याय 'मास्टर' थे. उनकी रचनाएं आज भी हिंदी पाठकों के बीच खासी लोकप्रिय हैं.


देवदास उनके परिचय का हिस्सा मात्र है

'देवदास' तो शरत बाबू के परिचय का एक छोटा सा हिस्सा मात्र है. हां, ये सच है कि इस छोटे से हिस्से को ही बड़ा फलक मिला. करोड़ों हिंदी भाषी लोग शरत बाबू को बिमल रॉय की देवदास की वजह से जानते हैं. उसके बाद एक पीढ़ी संजय लीला भंसाली के देवदास में शरत बाबू की लेखनी की झलक पाती है. ये 'देवदास' का रचनाकर्म ही था कि उसे करीब डेढ़ दर्जन भाषाओं में बनाया गया था. फिल्मी परदे से अलग भी उनकी रचनाओं में उनके पात्रों की 'शार्पनेस' और सहजता ही आपको बांध लेती है. किताब के पन्ने पलटते पलटते ही फिल्म सी चलने लगती है. कई मर्तबा तो ऐसा लगता है कि उपन्यास नहीं बल्कि 'स्क्रीनप्ले' ही पढ़ रहे हैं.

इस बात को सौ से भी ज्यादा साल का वक्त बीत चुका है. शरतचंद्र चटोपाध्याय अपना एक उपन्यास लिख रहे थे. उपन्यास लगभग पूरा हो चुका था. ना जाने कैसे एक रोज शरद की लिखी कुछ किताबें और उस उपन्यास की पांडुलिपि जल कर राख हो गई. ये समझना तो बहुत ही आसान है कि वो दौर 'हार्डडिस्क' या 'पेनड्राइव' में 'बैकअप' लेने का नहीं था. अगर किताब प्रकाशित होनी थी तो उसका सिर्फ और सिर्फ एक रास्ता था कि वो पांच सौ पन्ने फिर से लिखे जाएं.

चुनौती सिर्फ पांच सौ पन्नों को दोबारा लिखने की नहीं थी. चुनौती इस बात की भी थी कि उसे स्मृतियों के आधार पर लिखना था. उपन्यास के जल चुके पहले 'ड्राफ्ट' में किस पात्र को कहां पर क्या कहलवाया था और उसे किस तरह 'प्रोजेक्ट' किया गया था, ये सबकुछ याद करके लिखना था. शरत बाबू ने हार नहीं मानी. उन्होंने इस मुश्किल काम को किया. करीब पांच सौ की संख्या तक पहुंचने के बाद वो वापस पहले पेज से अपनी रचना को लिखने बैठे. उन्होंने इस मुश्किल काम को अंजाम दिया.

चरित्रहीन से मिली पहचान

इस तरह 1917 में उनका ऐतिहासिक उपन्यास पाठकों के हाथ में आया. जिसका शीर्षक था- चरित्रहीन. बाद में शरत बाबू के विस्तृत रचनाक्रम में जिन रचनाओं को बेजोड़ लोकप्रियता मिली उसमें चरित्रहीन भी शामिल थी. बाकि रचनाओं में निश्चित तौर पर देवदास और परिणिता का नाम हम सभी ने सुन रखा है.

शरतचंद्र चटोपाध्याय या शरतचंद्र चटर्जी का जन्म 15 सितंबर 1876 को पश्चिम बंगाल में हुआ था. पिता मोतीलाल चटोपाध्याय ज्यादा कुछ खास करते नहीं थे. लिहाजा परिवार पर आर्थिक संकट छाया रहता था. घर में पांच भाई बहन भी थे. शरत बाबू बीस बरस के भी नहीं थे जब उनकी मां का साया उनपर से उठ गया. परिवार की जिम्मेदारी उठाने वाली चली गई, तो अलग अलग लोगों ने मिलकर परिवार को संभाला. जैसे-तैसे और जितना संभव हो सका पढ़-लिखकर शरद बाबू ने अपनी कलम पर भरोसा किया. उन्होंने लिखना शुरू किया.

अपनी पहली ही लघुकहानी के लिए उन्हें पुरस्कार मिला. इसके बाद उन्होंने तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लेखन कर्म जारी रखा. 1920 के आते आते वो लेखन का बहुत प्रतिष्ठित नाम हो चुके थे. परिणिता, देवदास, चरित्रहीन, गृहदाह, पाथेर दाबी सहित करीब दो दर्जन उपन्यास और करीब इतनी ही कहानियां पाठकों के बीच उन्हें एक पहचान दिला चुकी थीं. शरद बाबू के लिखे कुछ नाटक और निबंध भी चर्चा में रहे. अपने उपन्यास चरित्रहीन के बारे में शरत बाबू खुद लिखते हैं- मैं नीतिशास्त्र का विद्यार्थी हूं. नीतिशास्त्र समझता हूं. कुछ भी हो... राय देना, लेकिन राय देते समय मेरे गंभीर उद्देश्य को याद रखना. मैं जो उलटा-सीधा कलम की नोंक पर आया वह नहीं लिखता. आरंभ से ही उद्देश्य को लेकर चलता हूं. वह घटना-चक्र में बदला नहीं जाता.

रवींद्रनाथ टैगोर से भी थे प्रभावित

ये शरत बाबू की लेखनी का ही असर था कि उनकी रचनाओं ने बांग्ला समाज से बाहर निकलकर अन्य भाषाओं के पाठकों के दिलों में भी जगह बनाई. पंडित रवींद्रनाथ टैगोर से बेहद प्रभावित शरत बाबू की रचनाओं के पात्र लोगों के जीवन का हिस्सा बन गए. उनके रचनाकर्म में एक बड़ा स्पष्ट अनुशासन देखने को मिलता है. बावजूद इसके उन्हें अपने दौर में आलोचना का शिकार होना पड़ा था.

शरत बाबू का मानना था कि श्लीलता-अश्लीलता में एक सूक्ष्म रेखा है. एक इंच भी पांव उधर गया तो सब लिखा पढ़ा बेकार है. उन्होंने अपने पात्रों को अपने समाज में जाकर ढूंढा. घर बैठे रचनाओं के पात्र तलाशने की भूल उन्होंने कभी नहीं की. इसीलिए शरद बाबू के पात्र जीवंत हैं. इन खूबियों के बाद भी ये अलग बात है कि खुद शरत बाबू कई बार कहा करते थे कि मैं तो पेट भरने के लिए साहित्यकार बना. शरत बाबू के रचनाकर्म पर संक्षेप में बात करना असंभव है.

विष्णु प्रभाकर को भी उनके जीवन चरित्र को समेटने में 400 पेज लग गए. ये नियति ही थी कि शरत बाबू ने अपना जीवन जल्दी ही समेट लिया. पचास पार करके करते वो अस्वस्थ रहने लगे थे. ज्यादातर समय उनका गांव में ही बीतता था. 1930 के दशक में पत्नी ने जब काफी दबाव डाला तो शरत बाबू ने कलकत्ता में अश्विनी दत्त रोड पर अपना मकान बनवाया था. मृत्यु से कुछ साल पहले वो थोड़े-थोड़े दिनों के लिए इस घर में रहा करते थे. आखिरकार 15 जनवरी 1938 को उन्होंने अंतिम सांस ली.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)