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मेरे लिए आजादी बहुत कुछ लेकर आई और बहुत कुछ ले गई

70 साल बाद भी मेरी इच्छा है कि मैं सियालकोट में अपना पुराना घर देख सकूं

Baldev singh Narula

आजाद हिंदुस्तान ने पहली सांस ली थी, तो मेरी उम्र करीब नौ साल थी. मेरा जन्म दिसंबर, 1938 में हुआ था. वो अविभाजित भारत था. अब पश्चिमी पाकिस्तान में सियालकोट से करीब 32 किलोमीटर दूर मेरा जन्म हुआ था. आजादी 15 अगस्त को मिली थी. लेकिन हलचल काफी पहले शुरू हो गई थी. हमारे लिए ये हलचल ज्यादा ही थी, क्योंकि हमें अपना गांव छोड़कर हिंदुस्तान आना था.

एक अगस्त का दिन था, जब हमें बस से जम्मू लाया गया था. हमारे रिश्तेदार साथ थे. बड़ा मुश्किल समय था, क्योंकि हम जमींदार परिवार से ताल्लुक रखते थे. मेरे पिता खेती करवाते थे. हमारे खेतों में काम करने वाले सभी लोग मुस्लिम थे. हमें उससे कोई पर्क नहीं पड़ता था.


हमारे ज्यादातर रिश्तेदार सियालकोट के आसपास थे. मेरे दो मामा थे. एक की सियालकोट में मोटर पार्ट्स की दुकान थी. दूसरे की बस चलती थी. मेरी मां की बहनें यानी मौसी स्कूल में बढ़ती थीं. ये सब बताने का उद्देश्य यही है कि सब कुछ सेटल था. मैं स्कूल में पढ़ता था. मेरी क्लास में दो मुस्लिम और दो सिख छात्र भी थे.

अब वापस उस दिन की ओर चलते हैं, जब हमें अपने घर से निकलना पड़ा था. स्कूल की छुट्टियां थीं. हम मामा की बस से ही जम्मू आए थे. करीब दो महीने जम्मू में रहे. वहां से मिलिट्री ट्रक से हमें पठानकोट लाया गया. फिर रेलवे की मालगाड़ी के बंद डिब्बे में अमृतसर पहुंचाया गया. मेरी मां, तीन बहनें और भाई अमृतसर रह गए. मैं और मुझे पालने वाली मां (मौसी) मेरठ आ गए.

मेरठ में कांग्रेस पार्टी की तरफ से विधवा आश्रम था. यहीं पर मैं और मां रहते थे. एक साल तक मेरी पढ़ाई वहीं हुईं. उसके बाद हम लोग दिल्ली आए. यहां हमें बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा. न नौकरी थी, न रहने को घर था. दरअसल, हम समझ नहीं पा रहे थे कि जिंदगी की मुश्किलों से जूझें या आजादी की खुशियां मनाएं. ये कहा जा सकता है कि जो लोग पाकिस्तान से भारत आए, उनके लिए देश की आजादी का जश्न मनाना संभव नहीं था.

आज भी मुझे सियालकोट याद आता है. करीब 80 साल बीतने वाले हैं. उसके बावजूद हमेशा इच्छा होती है कि अपना वो घर फिर देख सकूं. वो मशीन मुहल्ला, वो नया मुहल्ला, वो होटल, कणकमंडी, ट्रंक बाजार, महाराज सलवान का किला, पूर्ण भक्त का कुआं.. वो सब दोबारा देख सकूं. मेरे लिए आजादी की सुबह बहुत कुछ लेकर आई थी. लेकिन बहुत कुछ लेकर भी गई.

(लेखक दिल्ली के किंग्जवे कैंप इलाके में रहते हैं. यह इलाका पाकिस्तान से आए विस्थापितों के लिए जाना जाता है)