सीएम बनने के बाद योगी आदित्यनाथ पहली बार गोरखपुर पहुंचे हैं.. उत्साह और अभिनंदन चरम पर है. सीएम योगी ने भी अपने भाषण में सभी को भरोसा दिया और दिल जीतने की कोशिश की. कैलाश-मानसरोवर जाने वाले श्रद्धालुओं को तो एक लाख रुपए के अनुदान की घोषणा भी की. लेकिन नागरिक अभिनंदन और रोड शो के पीछे उड़ती गुबार के बीच उन हजारों बच्चों की चीखें भी सुनाई दे रही हैं, जो पूरे इलाके में इंसेफलाइटिस से असमय मौत मुंह में जा चुके हैं.
सीएम योगी ने अपने भाषण में संकल्प पत्र की बातें तो दोहराईं- विकास की नई इबारत लिखने के वादों पर प्रतिबद्धता तो जताई लेकिन बच्चों के लिए काल बन चुकी महामारी इंसेफलाइटिस का जिक्र तक नहीं किया.
इंसेफलाइटिस का मुद्दा संसद में उठाया
ऐसा नहीं कि सीएम योगी इससे अनजान हैं. बतौर सांसद योगी आदित्यनाथ ने ही कई बार इस मुद्दे को संसद में उठाया था. इलाके के लोगों के साथ लखनऊ विधानसभा के सामने मार्च किया था. सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए धरना-प्रदर्शन दिया. पर आज जब वे खुद सूबे के मुख्यमंत्री हैं तो उनके भाषण में इंसेफलाइटिस का जिक्र नहीं हो तो आश्चर्य होना तो लाजिमी है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जुलाई 2016 में एम्स की स्थापना करने गोरखपुर आए थे. उन्होंने वहां पर घोषणा की थी कि, 'एक भी बच्चे को इंसेफलाटिस से मरने नहीं दिया जाएगा.' एक साल होने को हैं लेकिन अभी तक कोई ठोस प्रयास नहीं हुआ. पूर्ववर्ती सरकार का ध्यान आकर्षित कराने के लिए लोगों ने हर संभव कोशिश की. 2009 से लेकर 2011 तक इलाके के लोग अपने खून से खत लिखकर सत्ताधारियों को भेजते रहे लेकिन मुद्दे पर सरकारें टालमटोल ही करती रहीं.
काफी हीला-हवाली के बाद 2012 में केंद्र सरकार ने इस पर राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाया लेकिन प्रोग्राम का पूरा खाका और उन्मूलन के सारे कदम सरकार के कागजी दस्तावेजों तक ही सीमित रह गए. बच्चों की मौत का सिलसिला निर्वाध जारी रहा.
आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं
हैरत की बात तो यह है कि इंसेफलाइटिस से कितनी मौतें हुई हैं, इसका सरकार की ओर से कोई अधिकारिक आंकड़ा आज तक उपलब्ध नहीं है. सूबे और केंद्र की सरकारें मसले पर सिर्फ ढोल बजाती रहीं कि मामले पर सरकार गंभीर हैं, लेकिन गंभीरता को व्यावहारिक धरातल आज तक नहीं मिला.
इंसेफलाइटिस की भयावहता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पूर्वांचल के 12 जिलों में यह बीमारी हर साल 4 से 5 हजार लोगों को अपना शिकार बनाती है. सरकारों की उदासीनता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1977 में गोरखपुर में इंसेफलाइटिस का पहला मामला सामने आया था. जिसके बाद साल दर साल इसका प्रभाव क्षेत्र बढ़ता ही रहा और सरकारी प्रयास ढाक के तीन पात साबित होते रहे.
मृत्युदर के आंकड़ों पर अगर नजर दौड़ाएं तो इस बीमारी का मृत्युदर 35 फीसदी है. तुलनात्मक रूप से देखें तो डेंगू की मृत्युदर 2 से 3 फीसदी है. मृत्युदर में अपंगता का आंकड़ा जोड़ लें तो लगभग 43 फीसदी मरीज इससे प्रभावित होते हैं.
जेईएस का वायरस खोजा नहीं जा सका
यह बीमारी दो तरह की होती है- एक जापानी इंसेफलाइटिस या जापानी बुखार, जो मच्छरों से फैलता है. जबकि, दूसरा जलजनित इंसेफलाइटिस (जेईएस) जो गंदे पानी से फैलता है. जापानी बुखार का तो टीका इजाद होने से इस पर काफी हद तक काबू पा लिया गया है लेकिन जेईएस का वायरस अभी नहीं खोजा जा सका है.
हर साल जुलाई से इस बीमारी का कालचक्र शुरू हो जाता है. इस बीमारी से मरीज की मौत नहीं भी हुई तो मानसिक और शारीरिक अपंगता का खतरा बना रहता है.
फिलहाल गोरखपुर में सभी योगी आदित्यनाथ के स्वागत में व्यस्त हैं और मासूम बचपन कदम दर कदम बढ़ रही मौत से भयभीत है.
यहां रहने वाले बच्चे जुलाई से मौत के चौराहे पर अपनी बारी का इंतजार करेंगे. मासूम सवाल कर रहे हैं बूचड़खाने बंद कराकर गोवंश की हत्या तो रुक गई योगी जी, पर हम बच्चों के अच्छे दिन कब आएंगे. जब हम ही नहीं रहेंगे तो युवा भारत का क्या होगा. मेक इन इंडिया का सपना कैसे पूरा होगा.