यूपी में नई सरकार को एक महीने पूरे हो चुके हैं. न्यूज चैनलों पर सरकार के कार्यों की समीक्षा हो रही है.
समीक्षा के साथ ही सूबे में सभी का कर्तव्यबोध जाग उठा है. आम से लेकर खास तक सब बेहतर कर्तव्य निर्वाह का उपदेश दे रहे हैं.
सूबे के मंत्री अपने अधीनस्थों को सामाजिक दायित्व का मंत्र सीखा रहे हैं. तो विधायक फर्जीवाड़ा करने वालों को हिदायत के साथ-साथ उनका फर्ज याद दिला दे रहे हैं.
हर शख्स कर रहा है गर्व
हर कोई 56 इंच के सीने में गर्व की हवा भर रहा है. उत्साहित सत्ताधारी दल के नेता नई आबोहवा में हवा से बातें कर रहे हैं.
मंत्री और विधायक खाकी के अंदाज में उतर आए हैं. भ्रष्टाचार निरोधक व्यवस्था की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेकर खुद छापेमारी कर रहे हैं.
कोई सस्ते गल्ले की दुकानों पर छापा मार रहा है. तो कोई सरकारी अस्पतालों में. कोई सरकारी बसों में छापा मार रहा है. तो कोई दफ्तर-दफ्तर औचक निरीक्षण कर रहा है.
सच में स्वर्ग बन जाएगा यूपी?
सभी लोककल्याण-जनकल्याण की दुहाई दे रहे हैं. पूर्ववर्ती सरकार के घपले-घोटाले की उच्चस्तरीय जांच की बात भी हो रही है.
सरकारी खजाने की ढीली पेंच को कसने का भरोसा दिया जा रहा है. कुछ का तो दावा है कि आगामी लोकसभा चुनाव से पहले सरकार की कर्तव्यनिष्ठा से यूपी स्वर्ग के स्थानीय संस्करण जैसा हो जाएगा.
कैसे-कैसे दिखाए सपने?
खाकी वर्दीधारी लंगोटिया यार की तरह हो जाएंगे. सरकारी बाबू और अफसर अभिभावक के प्रतिरूप हो जाएंगे.
सूबे में 24 घंटे बिजली से न सिर्फ जनमन का अंधेरा मिटेगा. बल्कि लोक प्रचलन से 'बत्ती गुल' जैसे मुहावरे भी खत्म हो जाएंगे.
क्या नेता, क्या जनता सभी इस बदली हवा से खुश हैं. पर कुंडली मारे शासनाधिकारी हैं जिनके कानों पर जूं नहीं रेंग रही है. वो इसे अब भी हवा-हवाई ही मान रहे हैं.
अपने तुजुर्बे का हवाला देते हुए वो दावा कर रहे हैं कि ऐसे फरमानों की कामयाबी की उम्र उतनी ही होती है जितनी आजकल के हिट फिल्मी गानों की होती है.
कौन पार लगाएगा नैया?
फिलहाल लीलाधर हवा को अपने पक्ष में करने के लिए सलाह गुरु बन बैठे हैं. मौजूदा भगवा लहर में अपने सहकर्मियों को कागजी नाव उतारने की सलाह दे रहे हैं.
विज्ञापनी गुणगान का सुझाव दे रहे हैं. कल तक घोड़े को विकास के तांगे के पीछे जोत रखे थे. विकास की योजनाओं को फाइलों में दबा रखे थे.
आज लंबी-लंबी सांस लेकर पूरी ऊर्जा से राजस्व की बर्बादी के प्रति लोगों को सचेत कर रहे हैं. कल तक बैताल की तरह जनता की पीठ पर सवार थे.
सही में सेवक बन गए प्रधान?
आज जनता के चरण में पड़कर प्रधान सेवक की भूमिका निभा रहे हैं. वैसे भी सेवक चाहे जैसे हों, युग चाहे कोई हों, सर्वमान्य तथ्य है कि सेवक के बिना काम नहीं चल सकता.
इसलिये 'करहिं सदा सेवक सो प्रीती' सर्वत्र समचरित्रार्थ, शाश्वत सत्य और सदैव अनुकरणीय है.
इस हेतु युगों-युगों 'सेवकाई' अक्षुण्ण बना रहेगा. इसी को सोचकर लीलाधर भी बदले-बदले नजर आ रहे हैं. आचार-व्यवहार तो बदल गया है. लेकिन कार्यशैली कबीर के झीनर चादर की तरह ज्यों की त्यों ही है.
काम भी हो रहा है या सिर्फ बातें हो रही हैं?
तमाम स्वच्छता कार्यक्रमों के बावजूद मन की चादर आज भी उतनी ही सफेद है जितना गंगा स्वच्छता अभियान के बाद गंगा.
सरकारी फरमान तो नोटिस बोर्ड पर चस्पा है. पर न घोड़ी रूक रही है. न दूल्हा उतर रहा है.
लिहाजा क्रिकेट खिलाड़ी की तरह योजनाओं की रकम को लपकने के लिए गोता मार रहे हैं. भोली जनता है जो नोटिस बोर्ड पर चस्पा फरमान को ही भ्रष्टाचार से मुक्ति मान रही है.
सब सीख देने में जुटे
सरकारी कामकाज की अपनी विशेषता होती है. बगैर विशेषता के सरकारी कामकाज नहीं होते और न छापेमारी होती है.
छापा और सत्ताधारियों का औचक निरीक्षण सत्ता के राजनैतिक साधकों की निष्ठा को दर्शाता है.
साथ ही इस बात को भी सिद्ध करता है कि अमुक व्यक्ति ने राजनैतिक छत्रछाया की लक्ष्मण रेखा पार करने का दुस्साहस किया है.
एक तरह से यह सरकारी कर्मचारी को सीख भी देता है कि वह किस अंदाज से रहे, किस कार्यशैली को अपनाए.
जिससे सत्ता के फेरबदल से भी उसके रुतबे में फेरबदल ना हो. हवा कैसी भी बहे, उसकी हवा खराब ना हो. सांप भी जिंदा रहे और लाठी भी सलामत रहे.
बगैर तालमेल कैसा प्रशिक्षण?
बड़े बुजुर्ग भी कह गए हैं कि प्रशिक्षण का पसीना ही युद्ध में खून बचाता है...फिर उस प्रशिक्षण का क्या फायदा जो नई सरकार से तालमेल स्थापित ना कर पाए.
नए आलाकमान के साथ सामंजस्यता ना बैठा पाए. तालमेल बनाने में बहाया गया पसीना ही छापेमारी युद्ध में खुद को हलाल होने से बचाता है.
फिर इन बदली हवाओं का क्या, कुछ दिनों की ही तो बात है. नयापन का रंग उतरते ही सरकार को भी एहसास हो जाएगा कि शासन सत्ता में पवित्रता ठीक नहीं.
हरिशंकर परसाई भी कह गए हैं कि पवित्रता कायर चीज है. जो सबसे डरती रहती है. सबसे अपनी रक्षा के लिए सचेत रहती है.
वह इत्र की शीशी जैसी है जो गंदी नाली के किनारे दुकान पर रखी होती है. जो गंदगी के डर से शीशी में बंद है.
फिर बहते पानी में हाथ धोने को भी शास्त्र सम्मत पवित्रता माना गया है. 'रमता जोगी बहता पानी' आदिकाल से शाश्वत है.
जनता तो भोली है जनता का क्या?
योगी का धर्म उसके कर्तव्यबोध में रमने में है और बाल-बच्चेदार विधायक, मंत्री और सरकारी कर्मचारी का धर्म बहते पानी में हाथ धोने में है.
सो छापेमारी का दायित्व पुलिस प्रशासन पर छोड़िए. त्री-विधायक बने हैं तो स्वागत-सम्मान कराइए.
तोहफा-थैली की सनातन परंपरा का मान बढ़ाइए. भोली जनता का क्या है उसे तो अंधेरे और भूलने की आदत है. किसी ने कहा भी तो है...
''अगर तूने दिल में एक शमां जला दी होती
तो ये आवाम आज अंधेरों की आदी नहीं होती''