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कमजोर वक्त में पार्टियों की सबसे कठिन लड़ाई महिला नेताओं ने लड़ी

देश के राजनीतिक इतिहास में ऐसा कई बार हुआ कि कठिनतम लड़ाइयां महिला राजनेताओं ने लड़ी हैं

Swati Arjun

22 जून की शाम जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ने घोषणा की कि वो राष्ट्रपति चुनावों में एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का समर्थन करेंगे तभी से हर किसी को लगा कि विपक्ष ये लड़ाई बिना लड़े ही हार गया है.

और ऐसा सोचने के पीछे की वजहें भी काफी तार्किक हैं. बीजेपी ने जिस तरह से अपने बड़े-बड़े नेताओं को नजरअंदाज करके कोविंद को इस पद के लिए चुना था  उसकी काट निकालना आसान नहीं था.


शाम होते-होते हर अखबार और चैनल पर ये लिखा और प्रसारित किया जाने लगा कि सोनिया गांधी, लालू और येचुरी सरीखे नेता अपनी जिद में आकर, मजाक के पात्र बनने वाले हैं. कई जानकारों ने तो यहां तक सुझाया कि उन्हें नीतीश की तरह ही एनडीए के कैंडिडेट का समर्थन कर देना चाहिए क्योंकि नंबरों में उन्हें मात देना आसान नहीं है.

लेकिन, रात के आठ बजते-बजते टीवी पर एक ब्रेकिंग आनी शुरू हुई जिसमें कहा गया कि विपक्ष ने राष्ट्रपति पद के लिए अपना उम्मीदवार तय कर लिया और ये नाम है मीरा कुमार का. यहां ये बताना जरूरी हो जाता है कि मीरा कुमार इसके लिए पहली पसंद नहीं थीं. उनसे पहले लेफ्ट और जेडीयू ने गांधी जी के पोते गोपाल कृष्ण गांधी के नाम पर सहमति दे दी थी. उनके अलावा महाराष्ट्र कांग्रेस के नेता सुशील कुमार शिंदे, भालचंद्र मुंगेकर और प्रकाश आंबेडकर के नाम की भी चर्चा हुई थी.

रामनाथ कोविंद के सामने सिर्फ मीरा टिक सकती हैं

लेकिन अंत में ये तय किया गया कि एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को अगर कोई बराबरी की टक्कर दे सकता है तो वो मीरा कुमार ही हैं. शायद, वो उनसे बीस ही साबित हों.

लेकिन नंबर कोविंद के साथ हैं. अब तक के आंकड़ों के मुताबिक कोविंद के पास तकरीबन 62 फीसदी वोट हैं जबकि मीरा कुमार के पास सिर्फ 34 फीसद. राष्ट्रपति चुने जाने के लिए किसी भी उम्मीदवार के पास 50 फीसद मत होना जरूरी है, जो मीरा कुमार के पास शायद किसी चमत्कार के बाद भी होना नामुमकिन है.

लेकिन, सवाल ये उठता है कि आखिर कांग्रेस, लेफ्ट और आरजेडी जैसे प्रमुख राजनीतिक दल क्यों मीरा कुमार को एक हारी हुई लड़ाई में मैदान में उतारना चाहते हैं? और मीरा कुमार क्यों इस लड़ाई मे शामिल हुई हैं?

मीरा कुमार एक काफी हद तक सफल जीवन जीती रही हैं. उनके पिता बाबू जगजीवन राम देश के बड़े दलित नेता थे. राजनीति में आने से पहले वे इंडियन फॉरेन सर्विस की अधिकारी रही हैं. दलित होने के बावजूद उन्होंने ये परीक्षा एक सामान्य वर्ग के कैंडिडेट के तौर पर पास की थी और टॉप टेन में जगह बनाई थी.

उनके पिता बाबू जगजीवन राम ने अपने बेटे सुरेश राम को नजरअंदाज कर मीरा को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपी जिसे उन्होंने बखूबी निभाया. वो चार बार सांसद और एक बार लोकसभा स्पीकर रह चुकी हैं. उनके कामकाज पर आजतक कोई भी उंगली नहीं उठा सका है.

पर, राष्ट्रपति की रेस में उनका हारना तय है और ये पहली बार नहीं हुआ है. भारतीय राजनीति का इतिहास गवाह है कि जब-जब किसी बड़े राजनीतिक दल को अपनी आन की लड़ाई लड़नी होती है तब-तब उसने किसी महिला कैंडिडेट का ही सहारा लिया है.

विजय लक्ष्मी पंडित किया इंदिरा के खिलाफ प्रचार

इस कड़ी मे जो पहला नाम सामने आता है वो है विजयलक्ष्मी पंडित का. विजयलक्ष्मी पंडित, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बहन थीं. वो आजादी से पहले भारत की प्रशासनिक सेवा मे जाने वालीं पहली भारतीय महिला थीं. आजादी के बाद वो सोवियत यूनियन, अमेरिका, स्पेन, आयरलैंड, यूके समेत कई देशों में भारत की राजदूत रहीं. लेकिन, बाद के दिनों में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो विजयलक्ष्मी पंडित और इंदिरा के रिश्ते में खटास आ गई. इमरजेंसी के बाद वो पूरी तरह से इंदिरा विरोधी हो गई थीं.

जब दोनों के बीच रिश्ते बिल्कुल खराब हो गए तो उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया और देहरादून में जाकर रहने लगीं. लेकिन, 1977 में जब देश में इंदिरा विरोधी लहर जोरों पर थी, तब उन्होंने दोबारा सक्रिय राजनीति में वापसी की और जनता दल के लिए जोर-शोर से प्रचार किया. इंदिरा गांधी के विरोध में.

जैसा कि सभी जानते हैं, जनता दल ने उन चुनावों में जबरदस्त प्रदर्शन करते हुए इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी को अगले तीन सालों तक के लिए सत्ता से बाहर कर दिया था. विजयलक्ष्मी पंडित चाहती थीं कि वो राष्ट्रपति चुनी जाएं लेकिन ये संभव नहीं हो पाया. हालांकि, बाद में उन्हें संयुक्त राष्ट्र में भारत का प्रतिनिधि नियुक्त किया गया.

लगभग 17 साल पहले, सोनिया गांधी पहली बार कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष बनाई गईं थी. उनका पहला लोकसभा चुनाव था. इन चुनावों में वे दो सीटों से खड़ीं थीं- पहली अमेठी जो उनके दिवंगत पति राजीव गांधी की सीट थी और दूसरी बेल्लारी. कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी का मजबूत गढ़.

बेल्लारी में सोनिया के सामने सुषमा ने लड़ा था चुनाव

सोनिया के विरोध में बीजेपी ने अपनी सबसे मजबूत सिपहसलार को मैदान में उतारा. सुषमा स्वराज जो तब दिल्ली की मुख्यमंत्री थीं उन्होंने दिल्ली की गद्दी छोड़ सोनिया के खिलाफ लड़ाई लड़ने में जान लगा दी. उन्होंने न सिर्फ एक महीने में धारा-प्रवाह कन्नड़ बोलना सीख लिया बल्कि सोनिया गांधी को कड़ी टक्कर भी दी. उन्होंने ही पहली बार सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा भी उठाया जो आजतक गाहे-बगाहे अपना सिर उठा ही लेता है.

हालांकि, इस चुनाव में जीत सोनिया गांधी हुई लेकिन सुषमा स्वराज ने अपने आपको न सिर्फ एक फाइटर, बल्कि जबरदस्त वक्ता और भीड़ खींचने में सफल नेता के तौर पर स्थापित किया. तब से लेकर आजतक वे पार्टी में अपनी मजबूत जगह बनाए रखने में सफल रही हैं और पार्टी भी उनकी अहमियत को खूब समझती है.

अब रुख करते हैं 2014 आम चुनावों की तरफ. देशभर में मोदी-लहर जोरों पर थी. बीजेपी का खास ध्यान यूपी पर था जहां की सत्ता लगभग 14 सालों से उनसे दूर थी. तब पीएम उम्मीदवार रहे नरेंद्र मोदी खुद बनारस सीट से चुनाव मैदान में थे, इस सीट का महत्व न सिर्फ राजनीतिक बल्कि धार्मिक भी था. लेकिन, उतनी ही महत्वपूर्ण सीट थी अमेठी. जो गांधी परिवार की पारिवारिक सीट रही थी. जहां अक्सर दूसरी पार्टियां या तो अपने उम्मीदवार उतारती नहीं है या महज खानापूर्ति करती हैं. लेकिन बीजेपी ने अपनी तेज-तर्रार नेता स्मृति ईरानी को मैदान में उतारा.

स्मृति पहले भी कांग्रेस के कपिल सिब्बल के साथ दिल्ली विधानसभा चुनाव में मुकाबला कर चुकी थीं जहां जीत सिब्बल की हुई थी. लेकिन 2004 और 2014 की ईरानी में काफी फर्क आ चुका था, उन्होंने न सिर्फ राहुल गांधी के खिलाफ धुआंधार प्रचार किया बल्कि बेहतर वक्त मानी जाने वाली प्रियंका गांधी को कई मौकों पर दो टूक जवाब भी दिया. इस चुनाव में राहुल गांधी की जीत जरूर हुई लेकिन काफी कम वोट के अंतर से. इस लड़ाई का महत्व सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि, चुनाव हारने के बाद भी स्मृति को भारी भरकम मानव संसाधन विकास मंत्रालय का जिम्मा सौंपा गया. पार्टी के भीतर और सरकार दोनों ही जगहों पर स्मृति का कद काफी बड़ा हुआ है.

इस क्रम में जो सबसे हालिया नाम याद आता है वो है किरण बेदी का. किरण बेदी ने अपनी राजनीतिक करियर की शुरुआत आम आदमी पार्टी के साथ की, लेकिन 2014 में आप की पहली सरकार गिरने के साथ ही उनके और केजरीवाल के संबंध खराब हो गए. 2014 के चुनावों में उन्होंने खुलकर नरेंद्र मोदी का समर्थन किया और 2015 में बीजेपी में शामिल हो गईं.

केजरीवाल के खिलाफ मैदान में उतरी थीं किरण बेदी

2015 के आम चुनावों में जब केंद्र में सत्तासीन बीजेपी को केजरीवाल के खिलाफ खड़ा होने वाला कोई दमदार उम्मीदवार नहीं मिला तो पार्टी ने, केजरीवाल की सहयोगी रहीं किरण बेदी को उनके खिलाफ मैदान में उतार दिया. बीजेपी ने खुलकर कहा कि- अगर वो चुनाव जीतते हैं तो किरण बेदी ही दिल्ली की मुख्यमंत्री होंगी. बीजेपी का ये फैसला, किरण बेदी के लंबे पुलिस करियर और दिल्ली में किए गए उनके काम के कारण लिया गया था.

लेकिन, विधानसभा चुनाव में किरण बेदी अपनी सीट तक बचा नहीं पाईं. हालांकि, इसके आठ महीने बाद उन्हें इस लड़ाई में बीजेपी का प्रतिनिधित्व करने और केजरीवाल का सामने करने के बदले में पुडुचेरी का राज्यपाल बना दिया गया.

साल 2017 - और हमारे सामने खड़ी हैं मीरा कुमार. एक ऐसे चुनाव में 17 पार्टियों की संयुक्त उम्मीदवार के तौर पर जिन्हें- सत्ता और समर्थन दोनों हासिल है. ऐसे में ये तो लगभग तय है कि- मीरा कुमार आंकड़ों की लड़ाई हार जाए लेकिन, मीरा कुमार होने का महत्व क्या होता है ये सभी को दिखा दे.