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चंद्रशेखर रावण की रिहाई से क्या दलितों की नाराजगी दूर कर पाएंगे योगी?

सहारनपुर हिंसा पर सीएम योगी ने कहा था कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा, लेकिन अब राजनीति की मजबूरी ये है कि चंद्रशेखर को तय समय से पहले ही रिहा किया जा रहा है

Kinshuk Praval

यूपी सरकार ने भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर रावण को रिहा कर दिया. चंद्रशेखर रावण पर रासुका लगा हुआ था. चंद्रशेखर को सहारनपुर जातीय हिंसा के मामले में गिरफ्तार किया गया था. हिमाचल प्रदेश से चंद्रशेखर की गिरफ्तारी हुई थी. लेकिन गिरफ्तारी से पहले तक सहारनपुर हिंसा में इतना सियासी उबाल आ चुका था कि योगी सरकार के शुरुआती सौ दिनों पर सहारनपुर हिंसा भारी पड़ चुकी थी.

सहारनपुर हिंसा पर सीएम योगी ने कहा था कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा. लेकिन अब राजनीति की मजबूरी ये है कि चंद्रशेखर को तय समय से पहले ही रिहा किया जा रहा है. रावण की रिहाई पर यूपी सरकार ने बयान जारी किया है कि चंद्रशेखर रावण की मां की अपील की वजह से ये फैसला लिया गया है.


क्या चंद्रशेखर रावण की रिहाई के पीछे सरकार के ऊपर दलित राजनीति को लेकर बढ़ता दबाव है? सवाल उठता है कि क्या दलितों के मामले में वाकई बीजेपी विरोधी दलों के बिछाए जाल में फंस गई है? इसी दबाव के चलते रावण की रिहाई का फैसला आनन-फानन में लिया गया या फिर सोचा समझा राजनीतिक फैसला है?

चंद्रशेखर को सहारनपुर हिंसा के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट से जमानत मिल गई थी. लेकिन यूपी सरकार ने रासुका लगा कर जेल में बंद रखने का दूसरा इंतजाम कर दिया था. अब बाहर आने के बाद चंद्रशेखर ने बीजेपी पर जोरदार हमला किया है. चंद्रशेखर ने कहा है कि वो अपने लोगों से कहेंगे कि साल 2019 में बीजेपी को सत्ता से उखाड़ फेंकना है.

चंद्रशेखर का ये एलान यूपी में बीजेपी के लिये वैसे ही सिरदर्द बन सकता है जैसे गुजरात विधानसभा चुनाव में अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी बने थे. साल 2019 की सियासी महाभारत को देखते हुए दलितों के मोर्चे पर कई युवा चेहरे बीजेपी के  खिलाफ मोर्चा खोलने का काम कर रहे हैं. अब यूपी में चंद्रशेखर रावण दलितों की आवाज बन कर बीजेपी विरोध की मशाल जला कर माहौल बदल सकते हैं.

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दरअसल, चंद्रशेखर को हाईकोर्ट से जमानत मिलने के बाद यूपी सरकार का रासुका लगाना ऊंची जाति वालों को खुश करने की कवायद थी. लेकिन चंद्रशेखर के जेल में रहने से दलितों के बीच योगी सरकार को लेकर गलत संदेश गया और छवि पर नकारात्मक असर पड़ा. ये भी कहा जाता है कि कैराना और नूरपुर के उपचुनावों में मिली हार के पीछे दरअसल भीम आर्मी की दखल बड़ी वजह थी.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भीम आर्मी का प्रभाव धीरे धीरे बढ़ रहा है और इन उपचुनावों में दलित-मुस्लिम गठजोड़ ने बीजेपी को हराने का काम किया था. जहां एक तरफ एसपी-बीएसपी गठबंधन ने यूपी की राजनीति में नया समीकरण गढ़ा तो दूसरी तरफ भीम आर्मी जैसे नए मोर्चे खुल जाने से बीजेपी की यूपी में सोशल इंजीनियरिंग पर असर पड़ने की आशंका गहराने लगी.

क्या बीजेपी को दलितों की नाराजगी का डर सता रहा है?

अब जबकि छह महीने बाद लोकसभा चुनाव हैं. ऐसे में दलितों के मुद्दे पर न तो केंद्र और न ही यूपी सरकार कोई रिस्क उठाना चाहती है. बीजेपी ने देखा है कि किस तरह सुप्रीम कोर्ट के एससी-एसटी एक्ट पर फैसले के बाद सियासी हालात बदले और देश भर में भारत-बंद का असर हुआ. यही वजह है कि केंद्र सरकार ने आनन-फानन में ही संसद में एससी-एसटी एक्ट पर अध्यादेश ला कर भूल-चूक सुधार की कोशिश की. तभी योगी सरकार भी नहीं चाहेगी कि दलितों के प्रतिनिधित्व के नाम पर कोई चेहरा जेल में बंद हो कर बगावत को बुलंद करे. यही वजह है कि बदली हुई परिस्थितियों का तकाजा देकर यूपी सरकार ने चंद्रशेखर को रिहा करने का फैसला लिया ताकि दलितों की नाराजगी कुछ हद तक दूर की जा सके.

लेकिन एक बड़ा सवाल ये भी जरूर उठता है कि आखिर सहारनपुर हिंसा के पीछे का सच क्या था? सहारनपुर और भीमा-कोरेगांव की हिंसा में कहीं न कहीं कुछ न कुछ हालात जरूर एक से लगते हैं. अचानक ही इतने बड़े स्तर पर हिंसा हो जाना कई सवाल खड़े करता है.

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दरअसल 5 मई 2017 को सहारनपुर से करीब 25 किमी दूर शिमलाना में महाराणा प्रताप जयंती की शोभा यात्रा के दौरान हुए हिंसक विवाद में दलितों के 25 मकान फूंक दिये गए थे. इस घटना से गुस्साए दलित युवाओं के संगठन भीम आर्मी ने 9 मई को सहारनपुर के गांधी पार्क में विरोध प्रदर्शन किया. लेकिन स्थानीय प्रशासन ने इसकी इजाजत नहीं दी. जिसके बाद पुलिस के विरोध प्रदर्शन रोकने से हिंसा भड़की और फिर भीम आर्मी ने कई इलाकों में आगजनी और वाहनों में तोड़फोड़ की.

सहारनपुर के जातीय संघर्ष की गूंज दिल्ली तक पहुंची. 21 मई को जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन रखा गया, जिसमें चंद्रशेखर रावण भी शामिल हुए. वहीं बीएसपी सुप्रीमो मायावती पीड़ित दलित परिवारों से मिलने शब्बीरपुर गांव पहुंच गईं. मायावती की सभा से लौटते वक्त दलितों पर ठाकुरों के हमले में एक युवक की मौत से हिंसा दोबारा भड़क गई. मायावती समेत दूसरे दलों ने योगी सरकार को दलित विरोधी बताया और सहारनपुर की घटना को दलितों पर अत्याचार का उदाहरण बताया.

यहां तक कि योगी सरकार पर आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई न करने के और हिंसा के शिकार दलितों को मुआवजा न दिये जाने के आरोप भी लगे. वहीं इलाके से दलित युवकों को झूठे मामलों में फंसाने के आरोप लगे. यहां तक कि तीन गांवों के तकरीबन 150 से ज्यादा दलित परिवारों के बौद्ध धर्म अपनाने की भी खबर आई. सहारनपुर हिंसा की वजह से धीरे-धीरे यूपी में योगी सरकार पर सवर्णों के साथ खड़े होने के आरोप लगते रहे.

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सवाल उठता है कि तकरीबन तीन साल पहले गठित हुई भीम आर्मी जिसका हिंसा का कोई ट्रैक-रिकॉर्ड नहीं रहा वो अकेले इतनी बड़ी हिंसा की जिम्मेदार कैसे हो सकती है? 9 मई को दलितों के विरोध प्रदर्शन को उकसाने के पीछे क्या सिर्फ चंद्रशेखर रावण की हाथ था या फिर इसमें दूसरे तत्व शामिल थे?

सवाल उठता है कि जातीय संघर्ष की चिंगारी सुलगाने वाले क्या वाकई स्थानीय लोग थे या फिर सोची समझी साजिश के जरिये इन घटनाओं का इस्तेमाल किया गया? दरअसल, एक सोची समझी गई साजिश के जरिये हिंसा कराकर बीजेपी शासित राज्यों में सरकारों को दलित विरोधी साबित करने की कोशिश की गई है. सहारनपुर की हिंसा भी उसी साजिश का हिस्सा थी तो भीमा-कोरेगांव का मामला भी आरोपों के घेरे में है.