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यूपी की सियासत में बहुरेंगे इलाहाबाद के दिन!

यूपी के शैक्षिक गढ़ कहे जाने वाले इस जिले ने देश को शीर्ष स्तर के नेता दिए हैं

Anant Mittal

देश को पूरे आधा दर्जन प्रधानमंत्री, चार चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया, केंद्र और राज्य सरकार को अनेक मंत्री और कम से कम आधा दर्जन मुख्यमंत्री और राज्यपाल देने वाला इलाहाबाद अब सत्ता के हाशिये पर खड़ा है.

पांच साल पहले अपनी 12 सीटों में से पूरे नौ विधायक सपा को और 2014 में अपनी दोनों लोकसभा सीट बीजपी को जिता देने के बावजूद इलाहाबाद की झोली में एक भी मंत्रीपद नहीं आ पाया. हालांकि 2012 में अखिलेश और सपा की जीत की आंधी पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही उठी थी.


अखिलेश यादव सरकार में इलाहाबाद की इस उपेक्षा को राजनीतिक पंडित सपा की राजनीति में ब्राह्मणों के हाशिये पर रहने का प्रतीक भी मान रहे हैं. शायद इसी गलती की भरपाई के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के साथ 21 फरवरी को शहर में लंबा जुलूस निकाला.

अमित शाह के जुलूस में भी आई भीड़

यह बात दीगर है कि जिले में सपा-कांग्रेस की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह ने भी तभी जवाबी जुलूस निकाल कर बखूबी भीड़ जुटाई. गौरतलब है कि पूरे प्रदेश में विधानसभा की सबसे ज्यादा 12 सीट इलाहाबाद जिले में ही हैं जिन पर 23 फरवरी को मतदान होना है.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने देश को अनेक प्रखर राजनेता, कानूनविद, कलाकार आदि देकर लोकतंत्र की जड़ें मजबूत की हैं. आजादी की लड़ाई की गरम और नरम दोनों ही धाराओं की यह पौराणिक नगरी गवाह रही है.

स्वतंत्रता संग्राम के नायक और महात्मा गांधी के शिष्य जवाहर लाल नेहरू और उनके पिता मोतीलाल नेहरू की कार्यस्थली रहे आनंद भवन के साथ ही साथ इलाहाबाद में ही ऐतिहासिक अल्फ्रेड पार्क भी है. इसी अल्फ्रेड पार्क में मशहूर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने चारों ओर से अंग्रेजों की पुलिस से घिर जाने पर अपनी कनपटी पर पिस्तौल का घोड़ा दबाकर शहादत दी थी.

इलाहाबाद ने ही आजादी के बाद देश को जवाहरलाल नेहरू के रूप में पहला प्रधानमंत्री दिया. उनके बाद गुलजारीलाल नंदा, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर भी इलाहाबाद की ही देन माने जाते हैं.

इलाहाबाद ने देश में राजनीतिक बदलाव का सूत्रधार बनकर अपनी सियासी समझ की बार-बार धाक जमाई है. साल 1984 में शिक्षा और धर्म के इस तीर्थ ने हेमवतीनंदन बहुगुणा जैसे दिग्गज को हरा कर अपने अंगने में पले मशहूर अभिनेता अमिताभ बच्चन को भारी बहुमत से जिताया था.

इसके बावजूद इलाहाबाद ने तीन ही साल बाद 1987 में हुए उपचुनाव में कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री और तब जनमोर्चा के संयोजक विश्वनाथ प्रताप सिंह को चुन कर देश में भावी राजनीतिक परिवर्तन की बानगी दिखा दी थी.

इसी तरह इलाहाबाद ने 2014 के आम चुनाव में दोनों लोकसभा सीटें भाजपा को सौंपकर देश में हुए निर्णायक राजनीतिक परिवर्तन में भारी योगदान किया. हालांकि उससे दो ही साल पहले इस ऐतिहासिक जिले ने प्रदेश में राजनीतिक स्थिरता की खातिर अपनी 12 में से तीन-चैथाई यानी पूरी नौ सीट सपा को जिताई थीं.

इसके बावजूद इलाहाबादियों को यह कसक लगातार साल रही है कि वाराणसी से बीजेपी उम्मीदवार नरेंद्र मोदी जीते तो देश के प्रधानमंत्री बन गए मगर त्रिवेणी तट पर बसी अमृत कुंभ नगरी प्रयागराज तो भाजपाइयों को जिताने के बावजूद ठनठन रह गई.

इस पौराणिक नगरी की विशेषताओं में यहां की ब्राह्मण बहुल आबादी भी शामिल है. इसीलिए इस क्षेत्र ने अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर बीजेपी को खूब जिताया. इलाहाबाद जिले में ब्राह्मणों की आबादी करीब चार लाख है. इसके बावजूद प्रदेश में सत्ता के तीनों दावेदारों भाजपा, बसपा और कांग्रेस-सपा गठजोड़ ने अपना सारा जोर पिछड़ों पर लगा रखा है.

भाजपा के तो चुनावी विज्ञापनों में भी ब्राह्मणों की नुमाइंदगी सिर्फ कलराज मिश्र की शक्ल के रूप में है. वह भी नरेंद्र मोदी और अमित शाह की बड़ी तस्वीरों के नीचे राजनाथ सिंह, उमा भारती और केशव प्रसाद मौर्य के साथ लघु रूप में!

अटल बिहारी वाजपेयी को इतिहास के पन्नों में समेटने की भाजपा की रणनीति से ब्राह्मण कतई खुश नहीं बताए जा रहे और इसका जवाब वे मतदान के जरिए भी दे सकते हैं. यह बात दीगर है कि अमित शाह ने पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी का दौरा करवा कर ब्राह्मणों को साधने की भरसक कोशिश की.

इसके बावजूद ब्राह्मणों के साथ ही साथ अल्पसंख्यकों का रुझान भी अखिलेश-राहुल गठजोड़ से प्रभावित होने की सुगबुगाहट है. मतदान में स्थानीय मतदाताओं के लिए नोटबंदी भी निर्णायक मुद्दा साबित हो सकता है.

2012 में बीजेपी को एक भी सीट नहीं आई थी

हालांकि 2012 के मुकाबले देखें तो भाजपा का इलाहाबाद में दांव पर कुछ भी नहीं है, क्योंकि तब उसे बारह में से एक भी सीट मतदाताओं ने नहीं दी थी. फिर भी 2014 में मिले 40 फीसद से अधिक वोटों और दोनों लोकसभा सीटों से तुलना करें तो भाजपा का इन 12 सीटों पर जीत के लिए पूरा जोर लगाना स्वाभाविक है. इनमें उसने अपने राजनीतिक साथी अपना दल को भी हिस्सेदार बना रखा है जिसका फायदा तो उसे जरूर मिलेगा मगर सीमित.

ब्राह्मण राजनीति के सिरमौरों में प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे गोबिंद वल्लभ पंत, नारायण दत्त तिवारी, हेमवतीनंदन बहुगुणा शामिल हैं. इनके अलावा राजेंद्र कुमारी वाजपेयी भी यहां की ब्राह्मण प्रभुत्व वाली राजनीति का केंद्र व प्रदेश में मंत्री के रूप में प्रमुख चेहरा रही हैं.

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे मदनलाल खुराना, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक और पत्रकार पं. मदनमोहन मालवीय भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय की देन हैं. केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी, अर्जुन सिंह, शांतिभूषण, मुख्तार अब्बास नकवी, हिंदी के प्रवर्तक आचार्य पुरुषोत्तम दास टंडन, राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा, उपराष्ट्रपति गोपालस्वरूप पाठक, देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस कैलाशनाथ वांचू, जस्टिस जे एस वर्मा, जस्टिस वी एन खरे, जस्टिस रंगनाथ मिश्र, प्रखर समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र, सांसद और राजीव गांधी के पिता फिरोज गांधी, साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता रुडयार्ड किपलिंग आदि भी इलाहाबाद की ही देन रहे हैं.

इतने समृद्ध इतिहास की विरासत थामे इस पौराणिक नगरी का पिछड़ों-दलितों और अल्पसंख्यकों पर निर्भर आज की राजनीति में पिछड़ जाना कोई अनहोनी नहीं है. अब देखना यही है कि सपा-कांग्रेस गठजोड़ यदि सत्ता पा जाता है तो क्या इलाहाबाद को फिर से सियासत में तवज्जो देगा!

रात को स्वराज भवन में ठहर कर सुबह अखिलेश के साथ जुलूस निकालने वाले राहुल गांधी ने इलाहाबाद से अपने पारिवारिक और कांग्रेस के ऐतिहासिक रिश्ते के भावनात्मक दोहन की भरपूर कोशिश की है. अब मतदाताओं को इंतजार रहेगा कि इसके बदले वे चुनाव नतीजे आने पर राजनीति के सिरमौर रहे इलाहाबाद को फिर सत्ता के सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर पाएंगे या नहीं!