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क्या बिहार में भी उत्तर प्रदेश की तरह संकुचित होकर चुनाव लड़ेगी कांग्रेस?

देखना होगा कि राजनैतिक रूप से सर्वाधिक परिपक्व राज्य बिहार में खोयी हुई साख लौटा पाने की कवायद में कांग्रेस अभी और कितने समझौते करती है

Utpal Pathak

पटना के गांधी मैदान में कांग्रेस की जन आकांक्षा रैली में भले ही राहुल गांधी और अहमद पटेल समेत तीन राज्यों के मुख्यमंत्री शामिल हुए और साथ ही रैली को आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने भी संबोधित किया. लेकिन अनंत सिंह समर्थकों की भीड़ के अलावा प्रदेश कांग्रेस का कोई भी कद्दावर नेता अपने दम पर गांधी मैदान में जनसमूह नहीं जुटा पाया.

गौरतलब है, कि बिहार में पिछले तीस साल से ना तो कांग्रेस की सरकार रही है और ना ही लोकसभा और विधानसभा में कोई खास सफलता मिली है. ऐसे में बिहार की लड़ाई में बने रहने के लिए आरजेडी जैसी पार्टियों से उनकी शर्तों पर समझौता करने के अलावा कांग्रेस के पास कोई और विकल्प नहीं बचा है.


1989 से पहले बिहार में कांग्रेस अकेले ही लड़ती थी और राज्य में सरकार बनाती थी लेकिन 1989 में हुए भागलपुर दंगे के बाद बिहार में कांग्रेस से मुस्लिम समुदाय दूर होता चला गया. दूसरी तरफ मंदिर आंदोलन के साथ सवर्ण हिंदुओं में भी कांग्रेस की नीतियों को लेकर नाराजगी बढ़ने लगी.

मंडल और कमंडल की राजनीति के उस दौर में कांग्रेस दोनों ही मामलों में दिग्भ्रमित होती चली गई और बाद के सालों में बिहार में गठबंधन करने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा. लेकिन गठबंधन से भी कांग्रेस को नुकसान ज्यादा हुआ और फायदा कम मिला है.

झारखंड अलग होने के बाद साल 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बिहार में बड़ा झटका लगा और सिर्फ पांच प्रत्याशी ही चुनाव जीत कर विधानसभा में पहुंच पाए थे. 2010 में एक सीट और कम हो गई और 4 विधायक ही जीत पाने में सक्षम हुए. 2015 में नीतीश कुमार और लालू यादव के साथ गठबंधन के बाद कांग्रेस ने 41 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसमे से सिर्फ 27 विधायक ही जीत पाए.

बिहार में बड़े भाई आरजेडी की निगहबानी के सिवा और कोई विकल्प नहीं 

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भले ही पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद उत्साहित हैं , लेकिन बिहार में महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) की 'बड़े भाई' की भूमिका को स्वीकार करने के सिवा कांग्रेस के पास कोई विकल्प भी नहीं है. पिछले दिनों आरजेडी विधायक और प्रवक्ता भाई वीरेंद्र ने 'बिहार में आरजेडी बड़ी पार्टी है और इस कारण यहां आरजेडी ही बड़े भाई की भूमिका में रहेगी' कहकर पार्टी का मंतव्य भी स्पष्ट कर दिया है.

उसके पहले पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के एक दिन पूर्व ही दिल्ली में विपक्षी दलों की बैठक में आरजेडी नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने इशारों में अपने बड़े जनाधार का हवाला देते हुए क्षेत्रीय दलों को उचित प्रतिनिधित्व देने की बात पर ज़ोर दिया है. ऐसे में बिहार में महागठबंधन की 'ड्राइविंग सीट' पर आरजेडी है और 'बडे भाई' की ज्यादा सीटों पर उम्मीदवारी की दावेदारी तय मानी जा रही है.

अंदरखाने में चल रही सरगर्मियों की मानें तो ऐसी चर्चा है कि आरजेडी खुद 20 सीटों पर चुनाव लड़ने के क्रम में है और कांग्रेस को 10 से 12 सीटें दिए जाने की बात चल रही है. लेकिन कांग्रेस 14 से 16 सीटों पर दावा कर रही है, ऐसे में आरजेडी के खेमे में यह चर्चा भी आम है कि आरजेडी बिहार में महागठबंधन में एक वैकल्पिक योजना बना रही है. जिसमें कांग्रेस को छोड़कर महागठबंधन बनाने का प्लान है.

आरजेडी ने गोपालगंज जैसी कुछ सुरक्षित सीटें आरएलएसपी और गठबंधन की अन्य पार्टियों को नहीं दी है. ऐसे में अगर कांग्रेस 12 से कम सीटों पर चुनाव लड़ने को तैयार नहीं हुई तो आरजेडी यूपी की सीमा से सटी गोपालगंज सीट मायावती की पार्टी बीएसपी को दे सकती है. आरजेडी के शीर्ष नेतृत्व से जुड़े सूत्रों के अनुसार पार्टी ने बिहार में कांग्रेस को 7 से 8 सीटें ही देने का मसौदा तैयार किया है क्योंकि आरजेडी कुछ सीटें वाम दलों और बिएसपी को भी देना चाहताीहै.

असंगठित संगठन और पुरनियों के दम पर लड़ने की कवायद 

कांग्रेस उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में भी वरिष्ठ बनाम युवा के चाकचिक्य में फंसी हुई है , ऐसे में खुद का जनाधार खो चुके अधिकांश वरिष्ठ नेता प्रदेश में बीजेपी के विरुद्ध बन रहे अंडर करेंट को किस तरह इस्तेमाल कर पाएगी इसमें अभी तक संशय है.

बिहार की राजनीती को करीब से देखने समझने वाले राजनीतिक समीक्षक रंजन ऋतुराज कहते हैं 'पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का अनुभव हमारी थाती है लेकिन ऊर्जा और युक्ति का समन्वय स्थापित नहीं हो पा रहा है, आज प्रदेश में कांग्रेस के पास कोई व्यक्तिगत जनाधार वाला नेता नहीं है, ऐसे में किसी भी एक नेता को आगे बढ़ाकर उसे ताकत देनी होगी. सवर्ण मतदाता अब भी जुड़ना चाहते हैं लेकिन लालू के साथ गठबंधन होने की बात सुनकर उनका उत्साह कम हो रहा है. ऐसे में कांग्रेस को एक-एक कदम नाप तौल कर रखना चाहिए.'

कांग्रेस का ब्राह्मण कार्ड 

हालांकि पिछले कुछ दशकों से बिहार में संगठित ब्राम्हण समूह सिर्फ मैथिल ब्राम्हणों के रूप में ही दिखाई देता रहा है और कान्यकुब्ज ब्राम्हणों की बिहार कांग्रेस से दूरी जग जाहिर है. ऐसे में कांग्रेस ने पहले ही मिथिला अंचल के दरभंगा जिले की बधॉत मनीगाछी के मूलनिवासी मदन मोहन झा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है. उनके पिता नागेंद्र झा कांग्रेस के स्वर्णिम दौर में बिहार सरकार में मंत्री रह चुके हैं.

बिहार में करीब 8 फीसदी ब्राह्मण मतदाता हैं जो कभी कांग्रस के परंपरागत वोट बैंक के रूप में देखे जाते थे लेकिन बीते कुछ दशकों में इनमे से अधिकांश बीजेपी और जेडीयू की तरफ जा चुके हैं. NSUI से छात्र राजनीति का ककहरा सीखने के बाद मदन झा बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के महासचिव, उपाध्यक्ष और कोषाध्यक्ष के पद पर रहने के बाद वर्तमान में विधान परिषद् सदस्य हैं.

गौरतलब है कि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले बिहार महागठबंधन का सबसे बड़ा केंद्र बन चुका है. ब्राह्मण कार्ड के जरिए महागठबंधन के मतों को और मजबूत करने के मकसद से मदन मोहन झा के जरिए कांग्रेस ने बिहार के ब्राह्मण मतदाताओं को साधने की रणनीति बनाई है. इसी क्रम में ललित नारायण मिश्रा के पौत्र और दरभंगा की जाले विधानसभा के पूर्व विधायक ऋषि मिश्रा ने भी हाल ही में जेडीयू से इस्तीफा देकर कांग्रेस का दामन थाम लिया है.

फोन पर ऋषि मिश्रा ने अपने इस्तीफे को नैतिक करार देते हुए बताया कि 'मैंने आज तक बीजेपी के साथ काम नहीं किया है, बीजेपी के साथ गठबंधन में घुटन महसूस हो रही थी और ऐसे में मेरा जेडीयू में काम करना बहुत मुश्किल हो गया था. मुझे नीतीश कुमार जी से कोई शिकायत नहीं है लेकिन पिछले चुनाव में मेरे विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं ने बीजेपी के खिलाफ मतदान किया था, अब मुझे अपने मतदाताओं के प्रश्नों का उत्तर देने में असुविधा हो रही है, कांग्रेस में जाना मेरे लिए घर वापसी है.'

ऋषि मिश्रा के पिता विजय कुमार मिश्रा वर्तमान में जेडीयू के विधान पार्षद सदस्य हैं. बिहार की राजनीति के जानकार मानते हैं कि ऋषि मिश्रा की कांग्रेस से नजदीकियों के पीछे लोकसभा चुनाव के टिकट प्राप्त करने की कवायद भी जुड़ी हुई है. ऋषि मिश्रा विधानसभा उपचुनाव में तब विधायक चुने गए थे जब जेडीयू-बीजेपी गठबंधन नहीं था.

उसके फौरन बाद 2015 के विधानसभा चुनाव में जाले विधानसभा सीट पर ऋषि मिश्रा महागठबंधन के उम्मीदवार थे लेकिन उन्हें बीजेपी उम्मीदवार जीवेश मिश्रा से बहुत कम वोटों से हारना पड़ा था. 2015 के चुनाव में इस सीट पर हार जीत का अंतर सबसे कम था. जेडीयू-बीजेप का फिर से गठबंधन हो जाने के बाद ऋषि के लिए राजनीतिक संकट बढ़ने लगा, ऐसे में जाले विधानसभा सीट पर ऋषि मिश्रा की दावेदारी एनडीए में रहते हुए संभव नहीं होने के कारण कांग्रेस में जाने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा था.

अब न सिर्फ वे लोकसभा टिकट के दावेदार हैं बल्कि आगामी विधान सभा चुनावों के लिए भी उनकी दावेदारी पक्की है. शीर्ष कांग्रेस सूत्रों की मानें तो पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता भागवत झा आजाद के पुत्र कीर्ति झा आजाद और कांग्रेस की पूर्व मंत्री माधुरी सिंह के पुत्र उदय सिंह के भी कांग्रेस में लौटने पर बात चल रही है.

ऋषि मिश्रा के कांग्रेस में जाने के बाबत जेडीयू के प्रवक्ता डॉ.अजय आलोक बताते हैं, 'सवर्ण आरक्षण का खुलेआम विरोध करने वाली आरजेडी से गठबंधन करके कांग्रेस अगर ये सोच रही है कि वो ब्राम्हण कार्ड खेल रही है तो ठीक है कांग्रेस बिलकुल बुलंदफहमी में रहे, खुशफहमी में रहे. अब मदन मोहन झा जैसे व्यक्ति जिनका खुद कोई राजनीतिक जनाधार नहीं है, उनको जनता की नब्ज़ का पता ठिकाना नहीं मालूम है. ठीक है, राजनीति में हैं , नागेंद्र झा के पुत्र हैं उनकी राजनीतिक विरासत संभाल रहे हैं लेकिन सिर्फ उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि देखकर उन्हें ब्राम्हणों का सर्वमान्य नेता का दर्जा कैसे दिया जा सकता है ?'

उन्होंने आगे कहा, 'ऋषि मिश्रा को तो खैर राजनैतिक हल्दी जेडीयू ने ही उपचुनाव में लगाई थी, अब ये अलग बात है कि अपनी राजनीतिक असुरक्षा के कारण या टिकट पाने की लालसा में कांग्रेस में चले गए हैं , लेकिन ऋषि मिश्रा और मदन मोहन झा के दम पर पूरे प्रदेश के ब्राम्हणों का ध्रुवीकरण ये लोग कैसे करेंगे ये बड़ा सवाल है. सारे सवर्ण मतदाता मजबूती के साथ एनडीए गठबंधन के साथ खड़े हैं, एक वोट भी नहीं छिटकेगा.'

जिताऊ प्रत्याशियों के नाम पर दबंगों के भरोसे है कांग्रेस?

सीटों की संख्या बढ़ाने की ललक में बिहार में कांग्रेस को अब बाहुबली नेताओं से कोई परहेज नहीं है. जन आकांक्षा रैली में अनंत सिंह की प्रभावशाली मौजूदगी इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है, अनंत सिंह ने अपने समर्थकों की भारी भीड़ जुटा कर कांग्रेस की जन आकांक्षा रैली की लाज रख कर अपना टिकट सुनिश्चित किया है.

लेकिन अनंत के कांग्रेस में आने का असर लालू यादव खेमे पर कैसा पड़ेगा यह भी फिलहाल यक्ष प्रश्न है क्योंकि आरजेडी नेता तेजस्वी यादव पहले ही साफ कर चुके हैं किसी भी सूरत में अनंत सिंह के लिए महागठबंधन की किसी पार्टी में कोई जगह नहीं होगी. अनंत सिंह के अलावा जेल में बंद आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद भी कांग्रेस में शामिल हो चुकी हैं. साथ ही वैशाली के बाहुबली नेता रामा सिंह भी लगातार कांग्रेसी नेताओं के सम्पर्क में हैं.

मधेपुरा सांसद पप्पू यादव पत्नी रंजीत रंजन पहले से कांग्रेस सांसद हैं और पप्पू की भी कांग्रेस चर्चाएं आम हैं. अनंत सिंह की ही तरह पप्पू यादव भी लालू की आंख की किरकिरी हैं. ऐसे में अगर वाकई कांग्रेस ने इनसे नजदीकियां बढ़ाईं तो निश्चित रूप से लालू यादव की नाराज़गी बढ़ेगी.

कांग्रेस के आरजेडी के साथ गठबंधन के बाबत बिहार में सत्तारूढ़ दल जेडीयू के प्रवक्ता डॉ.अजय अलोक ने बताया 'कांग्रेस और आरजेडी दोनों डूबते जहाज की तरह हैं, और ये दोनों जहाज दूसरे को डुबाने लगेंगे, अपने बचने की चाह में एक दूसरे पर सवार होने की कोशिश कर रहे हैं. इनका गठबंधन कोई नया नहीं है 2010 के चुनाव में ये गठबंधन करके लड़े थे और हमने इन्हें बुरी तरह धूल चटाई थी, इनका गठबंधन हमारे लिए कोई चुनौती नहीं है बल्कि ये दोनों अपने परिवार को बचाने के लिए और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के आशय से गठबंधन कर रहे हैं और प्रदेश की जनता इस बात को अच्छे तरीके से जानती है.'

हालिया दौर की राजनीति को देखने के बाद यह तय माना जा रहा है कि कांग्रेस को बिहार में भी उत्तर प्रदेश की तरह एक नपा तुला गठबंधन या समझौता करने में ही लाभ है. देखना होगा कि राजनैतिक रूप से सर्वाधिक परिपक्व राज्य बिहार में खोयी हुई साख लौटा पाने की कवायद में कांग्रेस अभी और कितने समझौते करती है. लेकिन बीजेपी और नरेंद्र मोदी जैसे मजबूत राजनीतिक शत्रु से लड़ने के लिए हथियार चाक चौबंद होने चाहिए और ऐसे में दगे हुए कारतूस जनता के मिजाज़ को अपनी तरफ ला पाने में कितने सक्षम होंगे यह अब भी भविष्य के गर्भ में है.