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तेलंगाना: तेलुगुदेशम और कांग्रेस मिलकर केसीआर को देंगे चुनौती

अगर दोनों पार्टियों का मेलजोल 2019 तक जारी रहा तो साथ मिलकर भी चुनाव लड़ सकती हैं

T S Sudhir

राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी दोनों अनोखी होती है और तेलंगाना की राजनीति में तो ऐसा दिखाई दे रहा है कि यहां अपरिचित लोग भी दोस्त बन सकते हैं. दशकों तक एक-दूसरे के साथ जंग लड़ने के बाद अब ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस और तेलुगुदेशम देश के सबसे नए राज्य में एक-दूसरे के साथ दोस्ती की पींगें बढ़ा रही हैं.

अगर दोनों पार्टियों का एक-दूसरे के साथ मेलजोल 2019 तक जारी रहा तो दोनों पार्टियां साथ मिलकर भी चुनाव लड़ सकती हैं.


राजनीति में बड़ा शिफ्ट होगा टीडीपी-कांग्रेस का गठजोड़

कल्पना कीजिए चंद्रबाबू नायडू-राहुल गांधी साथ मिलकर चंद्रशेखर राव और नरेंद्र मोदी को चुनौती दे रहे हैं. तेलुगु राज्यों की राजनीति में यह एक बड़ा शिफ्ट होगा. इसकी वजह यह है कि तेलुगुदेशम की नींव 1982 में अपने एंटी-कांग्रेस रुझान की वजह से पड़ी थी.

सत्ता पर फिर पकड़ बनाने की रेड्डी समुदाय की रणनीति

गुजरे तीन सालों में, जब से तेलंगाना राज्य बना और तेलंगाना राष्ट्र समिति के हाथ इसकी सत्ता आई, तब से रेड्डी समुदाय को लग रहा है कि वह सत्ता के गणित में पीछे छूट गई है. मुख्यमंत्री केसीआर वेलमा समुदाय से आते हैं. अब इस समुदाय का दबदबा बढ़ रहा है. दूसरी ओर, कांग्रेस के शासन के वक्त पूरी तरह से सत्ता अपने हाथ में रखने वाला रेड्डी समुदाय एक बार फिर से अपने प्रभाव को स्थापित करना चाहता है.

लेकिन, मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व इस बात का भरोसा नहीं दिला पा रहा कि अब से दो साल बाद वह केसीआर को हटाने में कामयाब हो जाएगा. हालांकि, दो रेड्डी लीडर्स- पीसीसी चीफ उत्तम कुमार रेड्डी और सीएलपी लीडर जना रेड्डी- तेलंगाना में पार्टी यूनिट को चला रहे हैं. ये दोनों नेता उतने आक्रामक नहीं हैं और इनमें केसीआर की तरह नेतृत्व के गुण भी दिखाई नहीं देते.

रेवंथ रेड्डी ज्यादा पॉपुलर और एग्रेसिव लीडर

इस मोर्चे पर टीडीपी लीडर रेवंथ रेड्डी आगे नजर आते हैं. वह सबसे ज्यादा पॉपुलर और एग्रेसिव नॉन-टीआरएस लीडर हैं. भीड़ के साथ उनका कनेक्ट दिखाई देता है. ऐसा तब है जबकि वोट के बदले पैसा देने के मामले में उनका नाम आया. इस मामले में वह मई 2015 में एमएलसी इलेक्शंस में एक इंडिपेंडेंट एमएलए को टीडीपी उम्मीदवार को वोट देने के लिए रिश्वत देने की कोशिश करते हुए टेप में पकड़े गए.

जयपाल रेड्डी ने दिए गठजोड़ के संकेत

सीनियर कांग्रेस लीडर और पूर्व केंद्रीय मंत्री जयपाल रेड्डी ने सबसे पहले इस गठजोड़ की संभावनाओं का संकेत दिया था. उन्होंने कहा था कि उनकी पार्टी किसी अन्य गैर-बीजेपी पार्टी के साथ मिलकर टीआरएस को टक्कर देने के लिए तैयार है. इससे टीडीपी और लेफ्ट पार्टियों के लिए एक मौका हो सकता है जिनकी सीमित मौजूदगी है. रेवंथ रेड्डी ने भी इसी तरह की राय जाहिर की है कि टीडीपी की राज्य में सत्ताधारी टीआरएस से टक्कर है.

उत्तम रेड्डी ने की नायडू की तारीफ

इस तरह की कयासबाजी गुजरे कुछ वक्त से जारी है. इस महीने की शुरुआत में मिर्च फसल संकट के दौरान उत्तम कुमार रेड्डी ने चंद्रबाबू नायडू की तारीफ की. उनकी यह तारीफ आंध्र प्रदेश में तेलुगुदेशम का विरोध कर रही कांग्रेस को बिलकुल हजम नहीं हुई होगी. केसीआर की आलोचना करते हुए उत्तम रेड्डी ने कहा कि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) हासिल नहीं कर पा रहे मिर्च किसानों को बोनस दे रहे हैं और यह एक अच्छा फैसला है.

कांग्रेस के दूसरे नेता खुश नहीं

इस कदम को तेलंगाना कांग्रेस के कई दूसरे नेताओं ने सपोर्ट नहीं किया है जो कि मानते हैं कि यह इस तरह की राजनीतिक सहमति में एक वैचारिक दिक्कत मौजूद है. इन नेताओं का तर्क है कि आखिर किस तरह से कांग्रेस एक ऐसी पार्टी के साथ करार कर सकती है जिसका केंद्र में बीजेपी के साथ गठबंधन है.

लेकिन, देखने वाली बात यह है कि बीजेपी और टीडीपी का तेलंगाना में कोई गठजोड़ नहीं है. यहां तक कि अगर आप तेलंगाना और आंध्र प्रदेश को एकसाथ देखें तो तस्वीर कुछ हाउसफुल मूवी की तरह की नजर आती है. हालांकि, ये तेलंगाना में एक-दूसरे के साथ झगड़ रही हैं, वहीं आंध्र प्रदेश में टीडीपी और बीजेपी एकसाथ होंगी, जहां कांग्रेस इनकी विरोधी है.

मोदी-केसीआर की निकटता

इस फैसले के पीछे वजह टीआरएस-बीजेपी के तालमेल को लेकर बनी हुई संशय की स्थिति है. अमित शाह केसीआर शासन की आलोचना करते हैं और मुख्यमंत्री का उतनी ही कठोरता से इसका जवाब देना दिखाता है कि दोनों पार्टियां एक-दूसरे से भिड़ी हुई हैं.

हालांकि, इस थ्योरी को मानने वाला कोई नहीं है. जयपाल रेड्डी पूछते हैं, ‘मोदी से दोस्ती और अमित शाह से कुश्ती?’ उनका मानना है कि केसीआर की नरेंद्र मोदी के साथ निकटता के चलते जो सामने दिख रहा है चीजें वैसी नहीं हैं. कई टीआरएस एमपी नई दिल्ली में एनडीए का हिस्सा बनना चाहते हैं.

टीआरएस तब सबसे ज्यादा खुश होगी जब 2019 में बीजेपी बहुमत से कुछ सीटें दूर रह जाए और उसे 272 का आंकड़ा छूने के लिए टीआरएस से मदद लेनी पड़े. कांग्रेस को लगता है कि टीआरएस तेलंगाना में मजबूत बीजेपी के साथ ज्यादा आरामदायक स्थिति में होगी ताकि वह एंटी-टीआरएस वोट काट सके जो कि वैसे कांग्रेस के हाथ लगेंगे.

नफा-नुकसान दोनों

यह साफ नहीं है कि अगर टीडीपी रेड्डी-कांग्रेस रेड्डी भाई-भाई को कांग्रेस हाईकमान या नायडू की ओर से मंजूरी मिलेगी या नहीं. लेकिन, अगर ऐसा होता है तो इसके फायदे और नुकसान दोनों होंगे. कागज पर यह गणित अच्छा दिखाई देता है क्योंकि इससे वोटों को बंटने से बचाया जा सकेगा. लेकिन, नेगेटिव चीज यह है कि टीडीपी की राज्य में एंटी-तेलंगाना इमेज है और टीआरएस इसी हथियार से कांग्रेस पर भी हमला करेगी.

नायडू की एंटी-तेलंगाना इमेज

ऐसा इसलिए है क्योंकि अभी भी नायडू एकजुट आंध्र प्रदेश के बंटवारे को लेकर अपने विरोध को छिपा नहीं पा रहे हैं. इसके अलावा राज्य के बंटवारे के बाद बाइफरकेशन एक्ट के तहत दोनों राज्यों के बीच संपत्तियों का लेनदेन संतोषजनक तरीके से नहीं हो पाया है. अगर टीडीपी-कांग्रेस गठजोड़ होता है तो टीआरएस इस मुद्दे को इन दोनों पार्टयों के खिलाफ भुनाएगी.

पार्टी डूबने का खतरा

नायडू के लिए डर इस बात का है कि अगर वह उचित समय पर कदम नहीं उठाएंगे तो टीडीपी का बचा हुआ हिस्सा या तो टीआरएस या बीजेपी के खाते में चला जाएगा. पिछले तीन साल में पार्टी के 15 में से 12 एमएलए टुकड़ों में टीआरएस में शामिल हो चुके हैं और पार्टी अब तकरीबन वैसी रह गई है जैसी यह संयुक्त आंध्र प्रदेश में हुआ करती थी.

नायडू पर लग सकता है अवसरवादी होने का आरोप

अगर नायडू इस ध्रुवीकरण को इजाजत देते हैं तो उन्हें तेलंगाना में कांग्रेस के साथ मंच साझा करने की मुश्किल झेलनी पड़ेगी. इससे उन पर राजनीतिक अवसरवादी होने का आरोप लगेगा. दोनों ही स्थितियों में उनके लिए यह एक फैसला लेने के लिए दो साल का वक्त आसान फैसला नहीं होगा.

उनके लिए राहत की बात यह है कि उनके पास फैसला लेने के लिए अभी दो साल का वक्त है. मजाक के तौर पर कहा जाए तो यह नायडू के लिए एक तरह की घर वापसी होगी क्योंकि वह अपने ससुर एनटी रामाराव की टीडीपी से जुड़ने से पहले आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के मंत्री थे.