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यूपी में रामगोविंद चौधरी को नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने के पीछे का गणित क्या है ?

क्यों नहीं मिल पाई शिवपाल और आज़म जैसे कद्दावर नेताओं कुर्सी

Amitesh

विधानसभा चुनाव में सुपड़ा साफ होने के बाद अखिलेश यादव के सामने सबसे बड़ी मुश्किल है कि कुनबे की कलह को दबाकर पार्टी पर कब्जा कैसे बरकरार रखा जाए. चुनाव में समाजवादी पार्टी को अबतक की सबसे बड़ी हार मिली, पार्टी बमुश्किल नेता प्रतिपक्ष का पद हासिल कर सकी.

पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव खुद विधानसभा के सदस्य नहीं है, लिहाजा एक ऐसे नेता की तलाश थी जो पार्टी के भीतर सबको साथ लेकर चल भी सके और पार्टी के खोए जनाधार को वापस पटरी पर लाने में कुछ मदद भी कर सके.


ऐसा कर पाना भी आसान नहीं था, क्योंकि अखिलेश यादव के साथ-साथ पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने विधायक दल की अलग बैठक बुला दी थी. कयास लगाए जा रहे थे कि एक बार फिर से महाभारत देखने को मिल सकती है. लेकिन, विधायक दल की बैठक में अखिलेश यादव ने पूर्व मंत्री रामगोविंद चौधरी को नेता चुनकर मुलायम सिंह यादव को भी साधने की कोशिश कर ली.

मुलायम के करीबी हैं चौधरी

(फोटो: पीटीआई)

रामगोविंद चौधरी अखिलेश के साथ-साथ मुलायम सिंह के भी करीबी रहे हैं. पिछली अखिलेश सरकार में चौधरी बेसिक शिक्षा मंत्री के साथ-साथ समाज कल्याण का भी काम संभाल चुके हैं. 70 साल के चौधरी बलिया जिले की बांसडीह विधानसभा से आठ बार विधायक रहे हैं.

ऐसे में अखिलेश ने रामगोविंद चौधरी को कमान देकर योगी की काट के तौर पर विधानसभा के भीतर खड़ा कर दिया है. रामगोविंद चौधरी योगी की तरह ही पूर्वांचल से आते हैं.

लेकिन, अखिलेश के फैसले को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं कि आखिर अखिलेश ने चाचा शिवपाल यादव और आजम खां जैसे कद्दावर लोगों को दरकिनार कर चौधरी के जिम्मे योगी से लड़ने की कमान क्यों सौंप दी.

दरअसल, रामगोविंद चौधरी को नेता प्रतिपक्ष बनाकर अखिलेश ने अपने कोर यादव वोटर को भी एक संदेश देने की कोशिश की है. क्योंकि, चुनाव के वक्त कई जगहों पर यादव मतदाता भी एसपी से छिटक गए थे. एक बार फिर से अपने कोर वोटर को पार्टी के साथ जोड़ने की कोशिश हो रही है.

चौधरी इतने वरिष्ठ हैं कि इन्हें आगे कर अखिलेश यादव ने विधायक बने चाचा शिवपाल यादव को भी एक बार फिर से पीछे धकेल दिया है.

ध्रुवीकरण के डर से नहीं बनाया आज़म को

लेकिन, आज़म खां जैसे पार्टी के कद्दावर नेता को दरकिनार करने के पीछे भी अखिलेश यादव की सोची समझी रणनीति है. दरअसल, 2007 में मायावती सरकार के वक्त भी नेता प्रतिपक्ष के रूप में आज़म खां को ही जिम्मेदारी सौंपी गई थी, जिसका फायदा भी हुआ और 2012 में यादव के साथ मुस्लिम गठजोड़ के दम पर एसपी सत्ता में जोरदार तरीके से वापसी करने में कामयाब रही.

इस बार भी चुनाव से पहले एसपी के भीतर की महाभारत खत्म कर सुलह की आखिरी कोशिश भी आजम खां ने की. लेकिन, अब उनके जैसे बड़े नेता को भी इस बार अखिलेश यादव ने तरजीह नहीं दी है.

शायद अखिलेश को इस बात का डर सता रहा है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सामने आज़म खां को नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने के बाद ध्रुवीकरण होने का खतरा फिर पैदा होगा. ऐसे में फायदा एक बार फिर से योगी की बीजेपी उठा ले जाएगी.

फिलहाल समाजवादी पार्टी के भीतर घमासान नहीं दिख रहा है, लेकिन, अंदर की चिंगारी कब सामने आ जाए ये कह पाना मुश्किल है. ऐसी सूरत में सरकार से निपटने के साथ-साथ पार्टी के भीतर सबको साथ लेकर चलने की बड़ी जिम्मेदारी नेता प्रतिपक्ष रामगोविंद चौधरी पर होगी.