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आखिर प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश का ही प्रभार क्यों सौंपा गया है?

प्रियंका कांग्रेस के लिए ही जगह बनाने का काम नहीं करेंगी, उनकी कोशिश महागठबंधन को भी अच्छी खासी मदद कर सकती है, क्योंकि कांग्रेस आखिरकार काटेगी बीजेपी के ही वोट

Raj Shekhar

प्रियंका गांधी की राजनीति में आधिकारिक एंट्री के साथ ही राजनितिक हलकों में यह चर्चा गर्म हो गई है कि क्या प्रियंका गांधी लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक हैं? ऐसा इसलिए भी है क्योंकि प्रियंका को पूर्वी उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी दी गई.

पूर्वी उत्तर प्रदेश वही इलाका है जहां के गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ आते हैं, जहां की वाराणसी सीट से प्रधानमंत्री मोदी सांसद हैं. जहां की 30 संसदीय सीटों में सिर्फ एक आजमगढ़ ही 2014 में बीजेपी के पास नहीं थी, उसे मुलायम सिंह यादव ने जीता था. दूसरी मिर्जापुर बीजेपी की ही सहयोगी अपना दल के पास थी. बाकि सभी 28 सीटें BJP के खाते में गयीं थीं.


लेकिन वो मोदी लहर का मामला था, इस बीच फूलपुर और गोरखपुर बीजेपी के हाथ से निकल चुके हैं. इससे पहले 2009 के चुनाव पर नजर डालें, उस समय मोदी पीएम उम्मीदवार नहीं थे, और इसी इलाके में कांग्रेस ने सात सीटें हासिल कीं थी जबकि BJP के खाते में सिर्फ चार सीटें गईं.

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2009 का चुनाव एक ऐसा चुनाव था जिसमें कांग्रेस को 21 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. हालांकि प्रियंका ने अमेठी-रायबरेली की सीटों पर ही फोकस किया, लेकिन इस कामयाबी का श्रेय उन्हें भी मिला, इसकी एक वजह चुनाव अभियान के दौरान टीवी पर बार-बार नजर आया प्रियंका का चेहरा और उनके कुछ बयान भी थे. इन्हीं बयानों में तबके सीएम नरेंद्र मोदी को दिया उनका जवाब भी था.

मोदी ने एक सभा में ललकारते हुए कहा, 'ये 124 साल की बुढिया कांग्रेस.' जब मीडिया ये सवाल प्रियंका के पास लेकर पहुंचा तो प्रियंका ने छूटते ही पूछा, 'क्या मैं आपको बुढ़िया दिखती हूं.' बताने की जरूरत नहीं कि प्रियंका में एक स्पार्क है जिसे जनता भी समझती है, और कांग्रेस का कार्यकर्ता भी. यही वजह है कि उन्हें बार-बार मैदान में उतारने की मांग होती रही, लेकिन कांग्रेस इससे लगातार बचती रही.

लेकिन इस बार सवाल ये था कि अब नहीं तो कब?

इस वक्त प्रियंका को मैदान में उतारने से कांग्रेस की रणनीति भी साफ होने लगी है. कांग्रेस 17वीं लोकसभा का चुनाव जीतने से ज्यादा बीजेपी को हराने के लिए लड़ रही है. ये बात सिर्फ दो बयानों से साफ हो जाती है. पहला बयान अखिलेश यादव का, जिसमें उन्होने साफ कहा, 'राहुल के लिए अपार सम्मान है मगर चुनावी अंकगणित ठीक रखने के लिए कांग्रेस को गठबंधन से दूर रखा है.'

दूसरा बयान प्रियंका को महासचिव बनाए जाने का ऐलान होते ही राहुल गांधी का, जिसमें एक सवाल के जवाब में उन्होने कहा, 'हमारी अखिलेश जी और मायावती जी से कोई दुश्मनी नहीं, प्यार है. अगर आगे वो बात करना चाहेंगे हम करेंगे.' जबकि मीडिया का सवाल था कि क्या प्रियंका को महागठबंधन को टक्कर देने के लिए लाया गया.

अब आइए पूर्वी उत्तर प्रदेश की ‘डेमोग्राफी’ पर एक नजर डालें. जैसे-जैसे आप लखनऊ से आगे बढ़ते जाते हैं सवर्ण, खासतौर पर ब्राह्मण आबादी सघन होती जाती है (यूपी में 12 फीसदी के करीब ब्राह्मण हैं). फैजाबाद से सटे अंबेडकरनगर, सुल्तानपुर, बस्ती संत कबीर नगर से लेकर गोरखपुर, देवरिया और वाराणसी तक.

जनता में असंतोष मिटा कर फिर से कनेक्ट होने की तैयारी में कांग्रेस

इस आबादी का कांग्रेस से पुराना कनेक्शन रहा है जो फिलहाल बीजेपी के साथ है. लेकिन 2014 से लेकर अब तक उनका बीजेपी से ये जुड़ाव कुछ वजहों से कमजोर हुआ है. जिनमें एससी-एसटी बिल से लेकर अवसरों की कमी तक सब शामिल है. कांग्रेस दरअसल इसी असंतोष को भुनाने और अपने कनेक्शन को पुनर्जीवित करने की कोशिश में है.

कांग्रेस के रणनीतिकारों को पता है कि ये कनेक्शन किसी मामूली किरदार के सहारे नहीं जिंदा किया जा सकता. चाहे वो जीतेन प्रसाद के बेटे जितिन प्रसाद हों, कमला पति त्रिपाठी के पड़पोते ललितेश पति त्रिपाठी हों या फिर बनारस वाले राजेश मिश्रा (तीनो ब्राह्मण). लिहाजा प्रियंका गांधी में दिखने वाली इंदिरा गांधी की छवि को दांव पर लगाया गया है.

प्रियंका कांग्रेस के लिए ही जगह बनाने का काम नहीं करेंगी, उनकी कोशिश महागठबंधन को भी अच्छी खासी मदद कर सकती है, क्योंकि कांग्रेस आखिरकार काटेगी बीजेपी के ही वोट. याद रखिए मायावती का अखिलेश के साथ प्रेस कांफ्रेंस में दिया गया बयान, 'कांग्रेस के वोट हमें ट्रांसफर नहीं होते.'

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बहरहाल राहुल गांधी ने तो ऐलान कर दिया है कि अब वो फ्रंट फुट पर खेलेंगे. लेकिन सवाल उससे बड़ा एक और है, प्रियंका गांधी को कांग्रेस परिवार की बंद मुठ्ठी कहा जाता था जो मां और भाई के चुनाव क्षेत्र तक ही सीमित थीं. इस चुनाव में उन्हें उतार कर कांग्रेस ये बंद मुठ्ठी खोल देगी, ऐसे में अगर प्रियंका के सहारे पार्टी को अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो चुनाव बाद की उन बहसों का जवाब कौन देगा जिनमें ये बात जोर-शोर से उठेगी कि- प्रियंका का जादू नहीं चला!