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मोदीजी को भी गौरक्षकों से डरना चाहिए क्योंकि...

गौरक्षकों के उत्पात से जुड़ी हाल की घटनाओं के सामने आने से दुनिया भर में भारत की छवि पर असर पड़ा है

Roshan Mishra

बहुत वक्त नहीं हुआ जब गाय का नाम लोग श्रद्धा से लेते थे. लेकिन अब कुछ लोग डर से लेते हैं, कुछ इस उम्मीद से कि सामने वाले डरें और कुछ तो खैर डर की वजह से नाम ही नहीं लेते.

इस डर की शरुआत थोड़ी सिस्टमैटिक रही है. पहले गाय की तस्करी करने वाले डरे, फिर घर में किसी भी तरह का मीट लाने या पकाने वाले, कुछ लोग इससे डरने लगे कि कहीं उनका हुलिया, पहनावा ये इशारा न करता हो कि वो बीफ, यानी गौमांस खाते होंगे. हल्ला ज्यादा हुआ तो गौरक्षकों से सहमत होने वाले भी डर गए.


गाय से डरने वालों में ताजा नाम सेंसर बोर्ड के चीफ पहलाज निहलानी का जुड़ गया है. देश के कई बड़े विवादित मुद्दों से अधिक विवादित हो चुके निहलानी को इतना डर लगा कि उन्होंने नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की फिल्म में गाय शब्द को ही बीप कर दिया.

डर, आखिर क्यों?

आखिर ऐसा क्या हुआ कि बात गौ तस्करी, गौहत्या, गौरक्षा से होते हुए गाय शब्द को ही म्यूट (बीप) करने तक आ गई? इसका जवाब हाल की कई घटनाओं में साफ-साफ मिल जाएगा. जगह-जगह हिंसक गौरक्षक इस प्रकार एक्टिव हो गए हैं कि सवाल गौरक्षा की बजाय ‘गौरक्षकों’ से रक्षा का हो गया है. आप इन गौरक्षकों को पशु प्रेमी समझने की भूल मत करिएगा.

दरअसल गाय की धार्मिक मान्यताओं के चलते यह सारा मामला इनकी ‘भावनाओं’ से जुड़ा है. इशारा साफ है कि अगर धार्मिक मामलों को लेकर भावनाएं ‘आहत’ हो गई तो फैसला भी जनता का होगा और सजा भी जनता ही सुनाएगी, वो भी ऑन द स्पॉट.

गौरक्षक सारी जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं या नहीं, ये सवाल तो फिलहाल बेमानी हो रहा है. जो हाथ में लाठी लेकर गाय के नाम पर किसी को भी पीट दे वो गौरक्षक हो गया. जनता ने इस कैटेगरी को कितना अपनाया है ये अभी स्पष्ट नहीं है.

वेबसाइट इंडिया स्पेंड ने देश में बढ़ते गौहिंसा की घटनाओं की कवरेज का अध्ययन किया और पाया कि साल 2017 में लगभग 20 गौहिंसा के मामले हुए हैं. यह अध्ययन जून महीने में किया गया है. बीते कुछ दिनों में अखबार की सुर्खियां बता रही हैं कि इस लिस्ट में कुछ घटनाएं और जुड़ चुकी हैं.

इस अध्ययन ने कुछ चिंताजनक बातें सामने रखी हैं :

वर्ष 2010 से 2017 के बीच हुए गौहिंसा के मामलों में 50 फीसदी से ज्यादा पीड़ित मुस्लिम समुदाय से हैं. इंडिया स्पेंड के मुताबिक, इनमें से 91 फीसदी मामले मई 2014 के बाद हुए हैं. इस अध्ययन में पाया गाया कि इन घटनाओं में 52 फीसदी मामलों के पीछे की वजह बीफ की अफवाह थी.

इन मामलों में हो रहे तर्क-वितर्क हैरान करने वाले हैं. बहुत से लोग जानते हुए भी कि जो हुआ, गलत हुआ इस बात पर जोर देते हैं कि वजह क्या थी, गलती किसकी थी. किसी की जान लेना क्या सही हो सकता है? किसी भी सभ्य समाज में लोग कुछ गलत लगने या होने की सूरत में अदालत या पुलिस की कार्रवाई का धैर्य रखते हैं. गाय के नाम पर हम खुद जज बन रहे हैं.

कुछ राजनेताओं ने मामले को अधिक हवा न देने की अपील की. एक तर्क यह भी आया कि 125 करोड़ की आबादी है, छिटपुट घटनाएं हो जाती हैं. अक्सर ये तर्क देते हुए दलील होती है कि इन मामलों के ज्यादा उठाने से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि खराब होती है. जैसे बात न करने पर यह विवाद खत्म हो जाएंगे और विश्व में भारत की इमेज बिल्डिंग एक्सरसाइज़ बेदाग चलेगी.

विदेशी अखबारों में कुछ सुर्खियां ये भी.. दुर्भाग्य से यह घटनाएं विश्व के मीडिया संस्थानों और एजेंसियों से छिपी नहीं हैं:

फरवरी 2015 में न्यूयॉर्क टॉइम्स में ‘मोदीज डेंजरस साइलेंस’ नाम से लिखे गए संपादकीय में इस तरह की घटनाओं पर प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सवाल उठाए गए. ये घटनाओं की कवरेज में सिर्फ एक हेडलाइन है.

जून, 2017 में बीबीसी ने सवाल पूछा कि क्या हिंदुस्तान भीड़तंत्र की ओर जा रहा है? सीएनएन, इंडिपेंडेन्ट, द गार्डियन सभी ने जुनैद मामले और बेलगाम गौरक्षकों पर खुलकर लिखा है.

अप्रैल 2017 में Human Right Watch ने भी गौरक्षा के नाम पर गौरक्षकों की गुंडागर्दी पर चिंता जताई है. इस एजेंसी ने इस मामले में पुलिस और प्रशासन के भेदभावपूर्ण रवैये पर भी सवाल उठाए हैं.

विश्व की प्रतिष्ठित एजेंसी प्यू (PEW) की ओर से दुनिया के 198 देशों में किए गए एक सर्वे के मुताबिक भारत धार्मिक असहिष्णुता को लेकर नीचे से चौथे पायदान पर है, यानि चौथा सबसे बुरा देश. इस लिस्ट में हम ईराक, नाइजीरिया और सीरिया से भी पीछे हैं. यहां तक कि 10वीं रैंक के साथ पाकिस्तान भी भारत से बेहतर हालत में है.

गौर करने वाली बात यह है कि सामाजिक विद्वेष को लेकर भारत का स्कोर 2014-2015 के बीच और खराब हुआ है. 2014 में जहां भारत का स्कोर 10 में 7.9 था, वहीं 2015 में यह बढ़कर 8.7 हो गया.

सवाल सरकारों की भूमिका को लेकर भी उठे हैं. प्यू (PEW) की रिपोर्ट बताती है कि धार्मिक मामलों में सरकार की रोकटोक बढ़ी है. यहां सरकारी रोकटोक से मतलब सरकार द्वारा बनाए गए कानून, नीतियों और धार्मिक मामलों को लेकर लगाए गए प्रतिबंध और निर्देशों से है. इस पैरामीटर पर भी भारत का स्कोर गड़बड़ हुआ है. जहां वर्ष 2014 में हमारा स्कोर 10 में 4.5 था वहीं 2015 में यह बढ़कर 5.1 हो गया. इसकी वजह? गौहिंसा से जुड़ी घटनाएं.

कुछ और सवाल

इसमें कोई दो राय नहीं कि धार्मिक मामलों को लेकर हो रही घटनाएं भारत की छवि विश्व में खराब कर रही हैं. हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीदरलैंड्स यात्रा से पहले एक डच मानवाधिकार हिमायती संस्था ने भारत में अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों के हनन का मुद्दा उठाया था.

मई 2016 में एक अमेरिकी रिपोर्ट ने भी धार्मिक आजादी को लेकर भारत के पीछे जाने के मुद्दे को उठाया था.

तारीफ के परे

वर्ल्ड मीडिया और सर्वे से उठ रहे सवालों पर ध्यान देने की जरूरत है. इन रिपोर्ट्स को यह कहकर नकारा नहीं जा सकता कि यह जानबूझकर भारत की छवि को खराब करने की कोशिश है, क्योंकि जब ऐसे ही किसी सर्वे में भारत की चमकती हुई तस्वीर पेश की जाती है, तो हमारे राजनेता खुद की पीठ थपथपाते हुए दिखते हैं.

बिगड़ते हालातों की ज़िम्मेदारी भी किसी को लेनी होगी. वर्ना इस तरह की घटनाओं से होने वाले डैमेज के लिए, मोदी जी के इमेज बिल्डिंग टूर भी नाकाफी साबित होंगे.