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आखिर क्यों गोविंद के लिए मायावती देवी से कम नहीं हैं ?

गोविंद कहते हैं, 'आज जब हम खटिया पर बैठे हैं तो सिर्फ मायावती, कांशीराम और अंबेडकर की वजह से'.

Badri Narayan

इलाहाबाद से सटे प्रतापपुर विधानसभा क्षेत्र का ग्रामसभा बरेठी. 12 पट्टियों का गांव जहां अलग अलग जातियों की अपनी जमीन और सोच है. अधिकतर जातियां दलित समाज से ही जुड़ी हैं.

तकरीबन छह हजार वोटों वाली इस ग्रामसभा की तस्वीर भी दूसरे गांवों से अलग नहीं. चुनाव के मौसम में यहां भी राजनीतिक बहस गांव के चौराहों पर या फिर दुकान पर देखी जा सकती है. विकास की धारा से दूर इस गांव की पगडंडियां भी शहर की चकाचौंध का पता पूछ कर खेतों की मेड़ों के पास जा कर गुम हो जाती हैं.


ये गांव राजनीतिक रूप से दलों के लिये अहमियत सिर्फ इतनी रखता है कि यहां दलित ज्यादा बसते हैं.

चुनाव प्रचार में लगे 83 साल के गोविंद

उन्हीं दलितों की बस्ती में एक 83 साल के बुजुर्ग को किसी पार्टी के लिये चुनावी प्रचार करते देखना अजीब लगा. बरेठी टोली में कंधे में बस्ता उठाकर लोगों के नाम पते पूछने वाले इस बुजुर्ग का नाम गोविंद प्रसाद है.

उम्र के इस मुहाने में भी गजब का जीवट और काम करने की क्षमता. ये गांव में बहुजन समाजवादी पार्टी की कार्यकर्ता के रूप में नुमाइंदगी करते हैं. गोविंद प्रसाद ने बीएसपी के चुनाव प्रचार का जिम्मा लिया है. यहां की भाषा में इन्होंने बीएसपी का बस्ता लिया है. उस बस्ते में वोटर की सारी पर्चियां होती हैं. नामों का निरीक्षण करना होता है. मतदान के दिन वोटरों को सारी जानकारियां देते हैं. इन सबके पीछे किसी आर्थिक लाभ की लालसा नहीं है.

ये लगन उस दौर की पैदा की हुई है जब खुद कांशीराम बीएसपी के प्रचार के लिये गुपचुप तरीके से पोस्टर लगाया करते थे. खुद गोविंद सिंह भी उसी दौर से बीएसपी से जुड़े हैं. आज भी उनका प्रचार का तरीका वहीं पुराना है. युवाओं सी लगन में उम्र का असर नहीं पड़ा.

हालांकि गांव में छुटभैये नेता भी हैं. जो पार्टी के प्रचार का काम देखते हैं. कुल चार घरों में मोटरसाइकिलें हैं जिनसे बीएसपी के लिये युवा प्रचार करते हैं. 40 प्रतिशत घरों में टीवी है जिसके जरिये लोग मायावती के भाषण के बारे में जान लेते हैं. कुछ परिवारों में बेटे-बेटी मोबाइल के मैसेज पढ़कर सुना देता है.

तभी अल सुबह जब अखबार में मायावती के खिलाफ कुछ छपा होता है तो लोगों की बातचीत का मुद्दा मीडिया होता है. लोग खुल कर ये बहस करते हैं कि मायावती के बयान को किस अखबार ने गलत तरीके से छापा.

गोविंद प्रसाद बोलते हैं कि ‘बहनजी जो बोलती हैं तो उसका उल्टा अखबार में छापा जा रहा है. हम उसे बस्तियों में सबको बता देते हैं. चाय की दुकान पर हम अखबार पढ़ते हैं.’

आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ेपन के बावजूद यहां राजनीतिक बौद्धिकता का पैमाना विकसित शहरों की मानसिकता से निचला नहीं है. सभी की सोच अपने अपने हिसाब से परिपक्व है. ये जानते हैं कि किस सरकार में इनके लिये संवेदना नहीं है.

खैर. गोविंद प्रसाद को देखकर समझा जा सकता है कि बरेठी टोली में बीएसपी को लेकर कई दशक से जली अलख अब कितनी बड़ी हो चुकी होगी. जमीन स्तर पर यहां मायावती के लिये प्रचार में उत्साह दिखाई पड़ता है.

गोविंद प्रसाद ने कांशीराम को भी देखा है तो मायावती को सिर्फ एक बार करीब से देखने की इच्छा इन्हें कई किमी दूर पैदल तक ले जाने का हौसला देती है.

इनसे जब वजह पूछी कि आखिर मायावती और बीएसपी के लिये इस उम्र में इतने समर्पण की वजह क्या है ?

तो जवाब सीधा और सरल था जिसमें राजनीतिक लाग-लपेट नहीं थी.

‘आज जब हम खटिया पर बैठे हैं तो सिर्फ मायावती, कांशीराम और अंबेडकर की वजह से .’

यानी ये जो समाजिक न्याय के आंदोलन ने आत्मसम्मान की एक जगह दी उसकी वजह सिर्फ और सिर्फ मायावती और कांशीराम हैं.

गोविंद प्रसाद की कृतज्ञता मायावती के लिये सिर्फ शब्दों से नहीं झलकती. मायावती उनकी नजर में दलितों के लिये देवी से कम नहीं है. यही वजह है कि वो माया की लखनऊ रैली में उन्हें देखने के लिये पैदल चले गए.

वो मायावती के काफी करीब तक गए . हालांकि उनकी बात नहीं हो सकी. लेकिन मायावती को पास से देखना ही उनको भावपूर्ण करने के लिये काफी थी.

‘बहनजी उद्धारक है. पहले कांशीराम जी थे....और अब मायावती हैं.’

दलित बस्तियों में मायावती को लेकर समर्पण का सिर्फ बाहरी आवरण ही नहीं है. लोगों का मानना है कि मायावती के राज में उन्हें पुलिसिया ज्यादती का शिकार नहीं होना पड़ता है. दलित बस्तियों में किसी भी वजह से कारण या अकारण पुलिसिया जूतों की धमक और खाकी की ठसक नहीं महसूस होती है. बहू-बेटियां खुद को सुरक्षित समझती हैं. ऐसे में लोगों को समाजिक न्याय के साथ यही समाजिक सुरक्षा मिल जाती है जो उनके लिये सरकार की किसी योजना से ज्यादा जरूरी है.

ब्राम्हणों और जाटवों के लिए अलग बस्तियां

गोविंद प्रसाद बरेठी में एक दिलचस्प रिश्ते की बात करते हैं. उनका मानना और कहना है कि भले ही यहां  चमरौती और बमरौती दो अलग अलग बस्तियां हैं.

लेकिन बस्तियों में ‘रौती’ नाम की समानता यहां जाटवों और ब्राम्हणों को एक बिरादरी में मानती है. गोविंद प्रसाद के मुताबिक यहां  दोनों के बीच कोई भेदभाव नहीं और आपसी बातचीत होती रहती है. .

ये रंग बेहद अलहदा है जिस पर राजनीति की नजर नहीं लग सकी अबतक .

लेकिन ये लोग राजनीति के हर रंग से वाकिफ हैं. इनको पार्टियों के चुनावी मुद्दे और बयान तक की हर पल की खबर है.

अब यहां ये भी सुगबुगाहट है कि बीजेपी आरक्षण विरोधी है. इन लोगों को बीएसपी ये समझाने में कामयाब हो गई है कि बीजेपी सत्ता में आएगी तो आरक्षण को खत्म कर देगी. हालांकि इनकी एक शिकायत ये भी है कि आरक्षण का फायदा इनकी जातियों में केवल वही तबका उठाता है जो ताकतवर है. यानी धन बल में आगे रहने वाले लोग ही जातिगत आरक्षण का फायदा उठाकर अपने कुनबे को तरक्की दिला रहा है. लेकिन इसके बावजूद इनका मानना है कि आरक्षण से ही इनका भला हो सकता है इसलिये उसे बंद नहीं होना चाहिये.