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इंसाफ सिर्फ वीवीआईपी मामलों में ही क्यों? पूरे देश की निभर्याएं क्यों महरूम?

देश में ऐसे बहुत से मामले में जो वीवीआईपी न होने के कारण लटके हुए हैं

Mridul Vaibhav

इस देश में निर्भया एक पीड़िता है. देश की सहानुभूति उसके साथ है. जो निर्भया के साथ हुआ, वह किसी भी तरुणी के साथ न हो. वह किसी भी उम्र की किसी भी महिला के साथ न हो.

इस तरह की पोस्ट आपको सोशल मीडिया में खूब दिख जाएंगी, लेकिन एक और प्रश्न है, जो बहुत ही टेढ़ा और बुरा लगने वाला है. कड़वा है. वह यह कि अगर निर्भया के साथ दिल्ली में बलात्कार हो जाए तो उसे इंसाफ मिल सकता है. भले इसके लिए कितनी भी लड़ाई क्यों न लड़नी पड़ी. निर्भया अगर कोई विदेशी युवती हो तो भी उसे इंसाफ मिल सकता है, क्योंकि वह विदेशी है. इस निर्भया के चारों दोषियों को फांसी की सजा हुई है.


आप ध्यान देना, इन्हें फांसी की सजा हुई है. फांसी नहीं हुई है. भारत में रेयरेस्ट ऑफ रेयर केस में ही फांसी होती है. बलात्कार और हत्या के मामले में फांसी की सजा सुनाई जाती तो सुनी जाती है, लेकिन किसी को फांसी हुई हो, ऐसा सुनने या पढ़ने को बहुत कम मिलता है.

फांसी होगी! शक है

प्रतीकात्मक तस्वीर

देश की जेलों में ऐसे कितने ही अपराधी फांसी की सजा के इंतजार में बैठे हैं, लेकिन उन्हें फांसी नहीं हुई है. यह भी मानना चाहिए कि निर्भया के बलात्कारी और हत्यारे भी किसी जेल की किसी कोठरी में सड़ते तो रहेंगे, लेकिन उन्हें फांसी होगी, इसमें शक है.

लेकिन यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि आखिर इस देश के वीवीआईपी हो चुके बलात्कार कांड के दोषियों को ही सजा क्यों होती है? आम बलात्कारी न्याय और पुलिस की किसी अंधेरी और सुनसान गली से कैसे बच जाता है? क्यों मीडिया भी इन पर ध्यान नहीं देता? क्या इस देश के सब नागरिक बराबर नहीं हैं? क्या इस देश की सब युवतियों की इज्जत और प्रतिष्ठा एक जैसी नहीं है?

ऐसा क्यों है कि मार्च 2013 में जब एक स्विस जोड़ा ओरछा से आगरा आता है तो दतिया जिले में विदेशी महिला से एक घृणित अपराध होता है. स्विस सरकार और दूतावास सक्रिय होते हैं और हमारी पुलिस और न्याय व्यवस्था के पंख लग जाते हैं.

सितंबर 2015 में 46 साल की एक अमेरिकन युवती के साथ धर्मशाला के आस-पास ऐसे समय बलात्कार हो जाता है जब वह दलाई लामा से मिलने जाती है. जयपुर में एक जर्मन युवती से बलात्कार होता है और जर्मन दूतावास के सक्रिय होते ही सात दिन के भीतर अपराधी को सजा सुना दी जाती है. लेकिन इसी राज्य में कितनी ही आदिवासी महिलाएं बलात्कार की शिकार होती हैं और उनके प्रभावशाली आरोपियों पर कोई हाथ ही नहीं डालता.

निर्भया कांड के बाद परिभाषा बदली लेकिन सिस्टम वही

निर्भया कांड के बाद भले कानूनी किताबों में बलात्कार की परिभाषा बदल गई हो, लेकिन आज भी वही उत्पीड़क हैं, वही हालात हैं, वही पुलिस है, वही अदालतें हैं और अदालतों में बहस करते वही वकील हैं. इतना ही नहीं, वही मानसिकता है, जो हर जगह तारी है.

निर्भया या कोई वृद्धा, कोई तरुणी, कोई बालिका, अगर वह देर रात को किसी कारण से सड़क पर चली गई, बाजार जाना हो गया या कहीं से लौट रही हो और उसके साथ उसका कोई हम उम्र हो और वह उसके दोस्त की श्रेणी का हो और ऐसे में उसका बलात्कार हो जाए तो 100 में से 50 लोग तो उसे इस बात के लिए कोसेंगे कि वह आखिर ऐसे हालात में अकेली बाहर कर क्या रही थी? बलात्कारी इतनी रात को क्या कर रहा था, यह कोई नहीं पूछेगा. निर्भया के मामले में भी हमारे घरों में यह सवाल तैरता रहा है.

लेकिन मूल प्रश्न ये है कि आखिर क्यों न्याय सिर्फ वीवीआई जगहों, वीवीआईपी लोग और वीवीआईपी मामलों तक ही सीमित होकर रह गया है?

घट रहा है सजा मिलने का प्रतिशत

इस प्रवृत्ति का सबसे ज्यादा नुकसान ये हुआ है कि हमारे देश में ऐसे प्रकरणों में दोषी लगातार छूट रहे हैं और उन्हें सजा का प्रतिशत लगातार घट रहा है.

हम अगर पचास-पचपन साल पीछे झांककर कर देखें और संसद में विभिन्न प्रश्नों के उत्तर में जारी आंकड़ों पर भरोसा करें तो 1963 के आंकड़ों को देखें तो उस समय बलात्कार के मामलों में 46.9 प्रतिशत सजाएं हो रही थीं. इसके बाद 1973 में 44.3, 1983 में 37.7, 2009 में 26.9, 2010 में 26.6, 2011 में 26.4, 2012 में 24.2, और 2013 में 27.1 प्रतिशत रहा है.

ये आंकड़े हमें साफ तौर पर बताते हैं कि हमारे देश में आज भी 55 प्रतिशत से लेकर 73 प्रतशित मामलों में अपराधी सजा से छूट जाते हैं, क्योंकि हमारा न्याय सिर्फ देश की राजधानी के, विदेशी और गिनी-चुनी पीड़िताओं के लिए है. अगर देरी से दिया गया न्याय न्याय नहीं है तो कुछ पीड़ितों को दिया गया इंसाफ भी इंसाफ नहीं है और इस पर इतनी दुदुंभियां बजाने की जरूरत नहीं है.