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व्यंग्य: लब आजाद हैं फिर मौन क्यों हैं केजरीवाल जी

केजरीवाल की चुप्‍पी साधारण या आम आदमी की चुप्‍पी नहीं है, यह एक समझदार और राजनीतिक चुप्‍पी है

Shivaji Rai

केजरीवाल अपने पूर्व मंत्री कपिल मिश्रा के आरोपों पर चुप क्‍या हुए. न्‍यूज चैनलों ने तो उनकी चुप्‍पी पर चकल्‍लस शुरू कर दिया. सभी अलग-अलग निहितार्थ निकालने लगे.

कोई 'मुंह की टेंपरिंग' हो गई है कहकर मजाक उड़ाने लगा. तो कोई 'बोल की लब आजाद हैं तेरे' कहकर आरोपों पर मुंह खोलने के लिए उकसाने लगा है.


इन्‍हें कौन समझाए कि केजरीवाल की चुप्‍पी साधारण या आम आदमी की चुप्‍पी नहीं है, यह एक समझदार और राजनीतिक चुप्‍पी है. इस चुप्‍पी के मर्म को वही समझेगा, जो देश की सियासत के मर्म को समझता है. इस चुप्‍पी को समझे बिना सियासत के मर्म को समझना मुश्किल है.

चुप्पी का सियासी मर्म 

सियासत में चुप रहना भी एक बयान होता है. जैसे बहुत अधिक बोलने के पीछे एक भयावह किस्‍म की चुप्‍पी रहती है. ठीक उसी तरह केजरीवाल की चुप्‍पी में भी कई बयान छिपे हैं. ऐसा नहीं कि केजरीवाल पहले हैं जिन्‍होंने आरोपों पर चुप्‍पी अपनाई हो.

पहले भी कई राजनेता चुप्‍पी के चप्‍पू से सियासत की नाव खेते रहे हैं. पूर्व पीएम मनमोहन सिंह ने तो इतनी चुप्‍पी दिखाई कि लोग उनको 'मौनमोहन' तक कहने लगे. याद होगा मनमोहन सिंह ने अपनी चुप्‍पी की महिमा में कहा था, कि 'हजारों जवाबों से अच्‍छी है खामोशी मेरी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखे.'

इतना ही नहीं पूर्व पीएम नरसिम्‍हा राव ने तो चुप रहने को एक कला ही बना दिया. नरसिम्‍हा राव कई मौकों पर जब बोलना नहीं चाहते थे तो अक्‍सर अपने दोनों होठों से 'पाउट' वाली मुद्रा बनाकर चुप्‍पी साध लेते थे.

विपक्ष उनकी 'पाउट' वाली मुद्रा को देखकर मुद्दे के प्रति लापरवाह हो जाया करता था और रावसाहब को मुद्दे को निपटाने के लिए पर्याप्‍त मियाद मिल जाती थी.

सियासत में चुप्‍पी और मौन का मतलब संवादहीनता कतई नहीं होता. एक फिल्‍मी गाने में अमिताभ बच्‍चन भी कहते हैं कि 'मैं और मेरी तन्‍हाई अक्‍सर ये बातें करती हैं.'

कब होगा मौन मुखर?

मतलब अपने-आप से बाते करना भी सबसे बड़ा संवाद है. केजरीवाल भी यही कर रहे हैं. केजरीवाल का मौन ऑटोमैटिक सुविधा से लैस है. जब जरूरत होगी मौन मुखर हो उठेगा.

वैसे भी किसी राजनेता का एकदम से चुप्‍पी ओढ़ लेना किसी भी परिस्थिति में आसान नहीं होता. दुरुह चुप्‍पी के पीछे बहुत बड़ा लक्ष्‍य होता है. जो मौन के जरिए ही साधा जा सकता है. ज्ञानीजन भी कहते हैं कि मुखरता चांदी है तो मौन सोना है.

केजरीवाल भी इसी सिद्धांत पर चल रहे हैं. कल तक मुखर होकर चांदी काट रहे थे. आज बदली परिस्थिति में मौन होकर सोना उड़ा रहे हैं. कहा भी जाता है कि वाचालता के दोष के कारण ही तोता पिंजरे में कैद होता है और बगुला चुप्‍पी की वजह से स्‍वतंत्र.

जनता का क्‍या, वह तो चुप रहने वाले को कभी गंभीर कहती है, तो कभी मौनी बाबा. जो कल तक केजरीवाल की जीभ को 56 इंच का बता रहे थे. आज चुप्‍पी तोड़ने के लिए विवश कर रहे हैं.

'मौन भी अभिव्यंजना है' 

वैसे भी किसी मुद्दे पर मुंह नहीं खोलना भी एक फैसला होता है. जो बदले हालात में नेता को समृद्ध करता है. वेदशास्‍त्र से लेकर समाजशास्‍त्र तक सभी ने मौन को सार्थक और सृजनात्‍मक मानते हैं.

फिर न जाने क्‍यों केजरीवाल की चुप्‍पी को लेकर सारे लोग अर्थसंकोची हो रहे हैं. हीरानंद वात्‍सायन अज्ञेय ने भी कहा है कि 'मौन भी अभिव्‍यंजना है', लिहाजा केजरीवाल की चुप्‍पी की आलोचना ठीक नहीं है.

कालिदास की तरह केजरीवाल ने भी 'सौ वक्‍ता एक चुप हरावे' के सिद्धांत को लेकर चुप्‍पी अपनाई है. जो आज नहीं तो कल सारे वाचाल विद्योत्तमा को परास्‍त कर सियासत का नया मार्ग प्रशस्‍त करेगी.