view all

बीएमसी चुनाव: मुंबई पर किसका चलेगा राज!

शिवसेना के बराबर सीटें जीतने के बावजूद मुंबई पर राज करने का सपना पूरा नहीं कर पाएगी बीजेपी

Rakshit Sonawane

बीजेपी और शिवसेना बीएमसी चुनाव में जीती गई सीटों के मामले में करीब ही हैं.

इसका मतलब यह हुआ कि बीजेपी ने उतनी सीटें जीत लीं जितनी उसने कभी नहीं जीती थीं, लेकिन वो अब भी इस शहर पर राज करने की अपनी महत्वाकांक्षा पूरी नहीं कर पाएगी.


यह न तो देवेंद्र फड़णवीस और बीजेपी के लिए अच्छी खबर है और न ही उद्धव ठाकरे और शिवसेना के लिए.

बहुमत नहीं मिलने से मुश्किल

दोनों ही दलों को ऐसे दलों की मदद लेनी होगी जो विचारधारा के स्तर पर मीलों दूर हैं. ऐसा गठबंधन बनाना और टिके रखना मुश्किल होगा और छवि को भी नुकसान पहुंचेगा.

दोनों में से कोई भी पार्टी न तो कांग्रेस से समर्थन ले सकती है और न ही उसके लिए इस समर्थन के पक्ष में सफाई देना आसान होगा.

समर्थन देने पर कांग्रेस के लिए भी मुंह दिखाना मुश्किल हो जाएगा. राज ठाकरे की एमएनएस को शिवसेना ने ठुकरा दिया था और शायद अब बीजेपी उसे लुभाने की कोशिश करे.

इस सबके बावजूद बीजेपी पुणे और नागपुर नगर निगम जीतने वाली है और छह नगर निगम में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर सकती है.

गले की हड्डी बनेंगे मुंबई और पुणे

हालांकि पार्टी के गले की हड्डी बनेंगे मुंबई और पुणे के नगरीय निकाय. ‘अगर राजनीति में सब संभव है’ वाला सिद्धांत काम करे तो शिवसेना से गठजोड़ के लिए देवेंद्र फड़णवीस को अपनी सरकार में मौजूद इस मुश्किल साझेदार से निपटने के लिए काफी राजनीतिक कसरतों की जरूरत होगी.

2014 के विधानसभा चुनाव में 63 सीटें जीतने के बाद उद्धव ठाकरे और उनकी पार्टी को बीजेपी से नगरीय निकाय चुनावों में कड़ी चुनौती मिली.

दोनों ओर से चुनाव में जमकर शब्दों के तीर चले और उद्धव ठाकरे अब कैबिनेट में अपनी पार्टी का रुख कड़ा कर सकते हैं.

क्योंकि और जगहों के मुकाबले फड़णवीस ने शिवसेना के अपारदर्शी तौर-तरीकों से छुटकारा दिलाने और प्रशासन में पारदर्शिता लाने के लिए समर्थन मांगा. अपारदर्शिता से सिर्फ भ्रष्टाचार बढ़ता है.

मुंबई को पहचान की राजनीति पसंद है

इस चुनाव की यही सुर्खी है या सबसे अहम नतीजा है, हालांकि जो बात राजनीतिक विश्लेषकों को दिखनी चाहिए वो यह है कि मुंबई को प्रशासन नहीं पहचान की राजानीति पसंद है. खराब प्रशासन-सड़क का हर गड्ढा इसकी गवाही देता है-मायने नहीं रखता.

चुनाव के पहले के कुछ महीनों में भाजपा बीएमसी में सेना की साझेदार थी, इससे यह अपनी साझेदार की तीखी आलोचक बन गई. ठीक उसी तरह जैसे शिवसेना सरकार में भाजपा की आलोचना करती रही है.

बात किसी पार्टी को निशाने पर लेने की नहीं है लेकिन शिवसेना पिछले बीस सालों से मुंबई और ठाणे में राज कर रही है.

इस शहर का पतन और इसे संभाल पाने में नाकामी से यही पता चलता है कि पार्टी ने इस शहर को सोने के अंडे देने वाली मुर्गी जैसा समझा.

कैसे चलेगी राजनीति

मुंबई में हार का मतलब होता है आगे की राजनीति के लिए पैसे की कमी. यह मायने नहीं रखता कि 3,700 करोड़ के सालाना बजट में विकास के लिए रखा गया आधा पैसा खर्च नहीं होता. यही इस शहर की त्रासदी है. ठाणे का हाल अलग नहीं है.

1990 के दशक में बीएमसी पर कांग्रेस का कब्जा था लेकिन 1995 में भाजपा-शिवसेना गठबंधन के मिलकर सरकार बनाने के बाद इन पार्टियों की किस्मत बदलनी शुरू हुई.

1997 में शिवसेना के 103 नगरसेवक थे, जो इसका सबसे अच्छा प्रदर्शन था, और इसकी साझेदार भाजपा के 26 नगरसेवक थे.

इसके बाद शिवसेना का लुढ़कना शुरु हुआ. इसे साल 2002 में 97 सीटें मिलीं, 2007 में 82 सीटें और साल 2012 में 75 ही सीटें मिली थीं. हालांकि भाजपा की मदद से इसके पास मेयर का ताज बना रहा.

खुद घिरे फड़णवीस

जब फड़णवीस ने सब कुछ दांव पर लगा दिया और नरेंद्र मोदी की ही तरह मतदाताओं से कहा कि बीजेपी को दिया हर “वोट मुझे मिलेगा”, तब उन्हें शायद अंदाजा नहीं था कि वो खुद घिर रहे हैं.

अगर सेना को मुंबई और ठाणे में अपने मेयर बनाने के लिए समर्थन की जरूरत होगी तो क्या वो बीजेपी के पास जाएगी?

क्या शिवसेना की कथित जहरीली सांप्रदायिकता से नफरत करने वाले कांग्रेस और एनसीपी जैसे दूसरे दल आगे आएंगे?

सिर्फ मुंबई और ठाणे पर ही ध्यान लगाना छलावा होगा क्योंकि भाजपा को बाकी इलाकों में जो फायदा पहुंचा है वो गजब का है.

नासिक, जहां इसने एमएनएस को शिकस्त दी, पुणे और पिंपरी-चिंचवाड़ जहां इसने एनसीपी और कांग्रेस को मात दी है के नतीजे इसके लिए शानदार रहे हैं. पुणे, पिंपरी-चिंचवाड़ पवार खानदान के गढ़ समझे जाते हैं.

अभी जिला परिषद और पंचायत समिति चुनावों की तो बात भी नहीं हो रही जो शहरी उम्मीदों और जरूरतों से पूरी तरह अलग हैं.

मुंबई और ठाणे जैसे शहर अगर बेढंग और बेसिरपैर के प्रशासन को तरजीह दे रहे हैं ये ध्यान देने वाली बात है लेकिन ये मानना बेवकूफी होगी कि बीजेपी जीतने पर प्रशासन की पूरी तरह नई मिसाल पेश कर देती.

स्थानीय नेता, जो तलवार की धार पर चलते हैं, उन तमाम सुधारों का विरोध करते हैं जिनसे उनका बिकाऊपन खत्म हो जाता है.