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संविधान और सर्वोच्च संस्थाओं की हिफाजत का जिम्मा किसका है?

न्यायपालिका, संविधान और संस्थाओं को लेकर की गई सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं की टिप्पणियां गंभीर सवाल खड़ी करती हैं.

Rakesh Kayasth

बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने केरल के कन्नूर में एक बड़ा बयान दिया है. शाह का कहना है कि अदालतों को ऐसे फैसले देने चाहिए जो व्यवहारिक हों और उन्हें अमल में लाया जा सके. यह संभवत: पहला मौका है जब किसी सत्तारूढ़ पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने न्यायपालिका को इस तरह की घुट्टी पिलाई है.

कहते हैं कि कानून अंधा होता है. यानी अदालतों का काम संविधान की धाराओं, दंड प्रक्रियाओं के अनुरूप और साक्ष्यों के आधार पर निर्णय देना होता है. न्याय के मामले में व्यवहारिकता का आग्रह अपने आप में बहुत विचित्र है. इस बयान को थोड़ा और विस्तार से समझते हैं.


अमित शाह ने यह बात सबरीमला मंदिर से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिप्पणी करते हुए कही. सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगी पाबंदी हटा दी थी. ऐसा भारत के संविधान में वर्णित समता के अधिकार को ध्यान में रखते हुए किया गया था. केरल के कट्टर हिंदू संगठन इस फैसले का विरोध कर रहे हैं और बीजेपी पूरी तरह से इन संगठनों के साथ खड़ी है. ऐसा तब है जबकि संघ प्रमुख मोहन भागवत संविधान की सर्वोच्चता का महिमामंडन कर चुके हैं और महिला सशक्तिकरण प्रधानमंत्री मोदी के प्रिय कार्यक्रमों में से एक है.

सवाल यह है कि व्यवहारिक फैसला क्या होता है? क्या अब अदालतें तथ्यों के बदले इस देश के राजनेताओं की राय के आधार पर फैसले करेंगी? दुनिया की कोई भी अदालत ऐसा फैसला नहीं दे सकती जो सभी पक्षों को मान्य हो. किसी लोकतांत्रिक देश की अदालत और धार्मिक-जातीय पंचायत के बीच बुनियादी अंतर यही होता है. क्या अमित शाह देश की अदालतों को पंचायत में बदलना चाहते हैं, जहां साक्ष्यों के आधार पर नहीं बल्कि सुलह-सफाई से फैसले हो सकें?

बतौर राजनेता अमित शाह सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमति रख सकते हैं. यह उनका संविधान सम्मत अधिकार है. अदालत की अवमानना किए बिना वे निर्णय की आलोचना भी कर सकते हैं. इतना नहीं अगर शाह चाहते तो वे जनता से अपील भी कर सकते थे कि अदालत ने भले ही फैसला कानून की रौशनी में दिया हो लेकिन संस्कृति का सम्मान करते हुए महिलाओं को सबरीमला मंदिर में नहीं जाना चाहिए.

लेकिन अदालतों को व्यवहारिक नज़रिया अपना की सलाह देने वाले बीजेपी अध्यक्ष ने खुद यह व्यवहारिक रास्ता नहीं अपनाया बल्कि वे ऐसे आंदोलनकारियों के साथ जा खड़े हुए, जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले की धज्जियां उड़ाने पर आमादा हैं.

तीन तलाक फैसले का स्वागत लेकिन सबरीमला पर नाराज़गी

सबरीमला से पहले सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक मामले में भी एक ऐसा ही फैसला दिया था. मुस्लिम कट्टरपंथियों को यह फैसला पसंद नहीं आया था लेकिन बीजेपी सरकार ने इस फैसला का स्वागत किया और इसे महिला समानता को लेकर मोदी सरकार की नीतियों की जीत बताया. ऐसा ही स्टैंड बीजेपी ने हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश को लेकर भी लिया. फिर सबरीमला पर ही अलग नज़रिया क्यों?

जवाब यह है कि बीजेपी के राजनीतिक हित और सत्तारूढ़ पार्टी होने की उसकी नैतिक जिम्मेदारी एक-दूसरे से लगातार टकरा रहे हैं. नैतिक जिम्मेदारी यह है कि बीजेपी सरकार और उसके तमाम नेता सांवैधानिक संस्थाओं का सम्मान करें. अगर रूलिंग पार्टी ऐसा करेगी तभी देश मे संस्थाओं के सम्मान के प्रति महौल बन पाएगा. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और सरसंघचालक भागवत के कुछ बयानों को छोड़ दें तो ऐसा होता नहीं दिख रहा है.

केंद्रीय मंत्री अनंत हेगड़े खुलेआम कह चुके हैं कि हम संविधान को बदलने के लिए सत्ता में आए हैं. राम जन्मभूमि मामले में चल रही अदालती कार्रवाई पर टिप्पणी करते हुए बीजेपी नेता विनय कटियार ने खुलेआम कहा कि अदालत कांग्रेस के दबाव में काम कर रही है. ऐसे ही बयान समय-समय पर कई और बीजेपी नेताओं की तरफ से आते रहे हैं.

हाल के बरसों में देश की न्यायपालिका पर विवादों के बादल इस तरह मंडराए हैं, जिसकी कल्पना किसी ने पहले नहीं की थी. अगर सुप्रीम कोर्ट पर राजनेता खुलेआम पक्षपात का इल्जाम लगाएंगे या उसे व्यवहारिक होने की सीख दी जाएगी तो फिर न्यायतंत्र में देश की आम जनता किस तरह यकीन रख पाएगी?

क्या सरकार को संस्थाओं से ज्यादा ताकतवर होना चाहिए?

मोदी सरकार में नंबर टू की हैसियत रखने वाले अरुण जेटली ने भी दो दिन पहले अमित शाह जैसा ही बयान दिया था. जेटली ने कहा था कि देश सभी संस्थाओं से उपर है और संस्थाओं को बचाने के नाम पर चुनी हुई सरकार की ताकत को कमज़ोर नहीं किया जाना चाहिए.

'देश सभी संस्थाओं से उपर है' -यह बात सुनने में अच्छी लग सकती है. लेकिन क्या जेटली दुनिया का कोई ऐसा देश बता सकते हैं जो बिना संस्थाओं के चलता हो? जेटली एक बेहद कामयाब वकील रहे हैं. सिस्टम को अच्छी तरह समझते हैं. विपक्ष के वरिष्ठ नेता के रूप में लोकपाल आंदोलन के समय संसद में दिए गए उनके भाषण लोगों को अब तक याद हैं, जहां उन्होंने बार-बार सिस्टम को मजबूत करने की वकालत की थी.

जेटली का बयान रिजर्व बैंक से जुड़े विवाद के संबंध में था. लेकिन इसे सीबीआई और दूसरी बाकी संस्थाओं की स्वायत्ता से भी जोड़कर देखा गया. रिजर्व बैंक के डेप्युटी गवर्नर ने यह कहा था कि राजनीतिक हस्तक्षेप से बैंक कमज़ोर होगा और देश को इसका नुकसान उठाना पड़ेगा. ऐसी ख़बरें भी थीं कि आरबीआई गर्वनर उर्जित पटेल और सरकार के बीच कई मुद्धों पर गहरे मतभेद हैं. कांग्रेस पार्टी लगातार यह इल्जाम लगा रही है कि बीजेपी देश की सभी सांवैधानिक संस्थाओं को नष्ट करने पर आमादा है. ऐसे में अरुण जेटली के बयान के क्या मायने हैं?

यह बात बहुत साफ है कि कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था संस्थाओं की स्वायत्ता के बिना नहीं चल सकती है. यह भी सच है कि चुनी हुई सरकार और संस्थाओं में टकराव भी होते रहते हैं. लेकिन ये बातें बहुत स्वभाविक हैं क्योंकि संसदीय लोकतंत्र चेक एंड बैलेंस पर आधारित होता है. यानी ताकत सिर्फ कार्यपालिका के हाथों में नहीं होती है.

टकराव को अस्वभाविक नहीं माना जाना चाहिए. लेकिन अगर ऐसा लगने लगे कि सरकार देश की किसी भी स्वायत्त संस्था से खुश नहीं है तो फिर कई बड़े सवाल खड़े होते हैं. चुनी हुई सरकार की सर्वोच्चता की जो बात अरुण जेटली ने कही है, वह भी अपनी जगह ठीक है. लेकिन सर्वोच्चता का यह मतलब नहीं है कि सरकार सभी संस्थाओं को आदेश दे और संस्थाएं उन्हें मानने के लिए मजबूर हों.

सर्वोच्च संसद है, सरकार नहीं

कोई भी निर्वाचित सरकार जनभावना और आकांक्षाओं का प्रतिनिधत्व करती है. लेकिन यह सरकार संसद के प्रति जवाबदेह होती है. यानी देश की असली सत्ता संसद के पास होती है. अगर सरकार को लगता है कि न्यायालय जनभावनाओं को नहीं समझ रही है या उसका कोई फैसला जनहित में नहीं है, तो वह संसद के ज़रिए उसे बदलवा सकती है.

एसटी-एसी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. कोर्ट ने इस एक्ट में बदलाव किए, जिसे लेकर एसटी-एसी समुदाय के लोगों ने देशभर में प्रदर्शन किए. सरकार ने आनन-फानन में संविधान संशोधन करके पुराने एक्ट को बहाल कर दिया. अगर किसी और मामले में भी सरकार ऐसा महसूस करे तो कानून बनाने का रास्ता हमेशा खुला है.

लेकिन अदालतों को फैसला देते वक्त 'व्यवहारिक रुख' अपनाने की सीख तर्कसंगत नहीं है. इससे न्यायालिका की सर्वोच्चता और विश्वसनीयता दोनों को चोट पहुंचती है. सुप्रीम कोर्ट संविधान का रक्षक है. अगर वही विश्वसनीय नहीं रह जाएगा तो फिर देश में क्या बचेगा?