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राहुल के बार-बार छुट्टी पर जाने के पीछे क्या राज है?

हो सकता है कि राहुल उससे कहीं ज्यादा स्मार्ट हों जितना हम उन्हें समझते हैं

Bikram Vohra

राहुल गांधी लंदन में छुट्टी मनाते रहें तो भी देश तो मजे में चलता ही रहेगा. वैसे भी इतनी भागदौड़ करने वाले, देश को खतरे से बचाने वाले आदमी को भी तो आराम की जरूरत होती ही है. इतनी इधर-उधर में थकान हो जाती है.

बात यह है कि राहुल गांधी ने यह करीब-करीब यह भविष्यवाणी कर दी थी कि कि मोदी के पीएम रहते तो देश का 'बंटाधार' ही होना है और यह बीजेपी नाम का मानव निर्मित संकट साल के आखिर में देश को बर्बाद कर देगा. तो फिर राहुल गांधी हमारा हाथ पकड़ने (शालीनता से), ढांढस बधाने और हमें सुरक्षित करने के लिए हमारे आसपास क्यों नहीं है.


वैसे भी जब अहम राज्यों में चुनाव का बुखार चढ़ रहा हो और नोटबंदी ने 50 दिन का आंकड़ा पार कर लिया हो तो हर कोई सोचेगा कि उन्हें उन्हें यहां होना चाहिए और विपक्ष का नेतृत्व कर नए मोर्चे खोलने चाहिए और मोदी के किले पर हमले बोलने चाहिए, अपने तीखे तेवर वाली टिप्पणियों के साथ.

राहुल फिर गायब

बहरहाल यह पहला मौका नहीं है जब उन्होंने ऐसा किया है. पिछले साल संसद सत्र के दौरान वह छह हफ्तों के लिए गायब हो गए थे. 2013 में भी उनकी खूब खिंचाई हुई थी जब देश उत्तराखंड में आई भारी बाढ़ की त्रासदी झेल रहा थे लेकिन वह 'कही और' थे. लेकिन आखिर वह जाते कहां हैं?

यह बात कोई नहीं जानता. उनके समर्थकों को पिछले साल भी बड़ी शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी और उनका जमकर मजाक उड़ा था.

इस साल आप इनमें से जो चाहे पसंद कर सकते हैं. वह लंदन में हैं. कोलंबिया गए हैं. वह अपना दौरा बीच में ही छोड़ कर बेंगलुरू चले गए हैं ताकि महिलाओं के साथ हुई छेड़छाड़ पर गुस्सा जाहिर कर सकें.

वह वापस आ गए हैं. कल आ रहे हैं. अगले हफ्ते आ रहे हैं. रानी से मिलने गए हैं. दिल्ली में ही हैं लेकिन एकांत में है क्योंकि अपने अगले कदम की रणनीति बना रहे हैं.

सोची समझी रणनीति

इससे पहले कि हम उन्हें खोज निकालें, इस बात पर गौर करना भी जरूरी है कि हो सकता है कि गायब होने की ये योजनाएं बड़ी चतुराई से रची गई हों. क्योंकि जब भी वह गायब होते हैं तो उन्हें मिलने वाली कवरेज दोगुनी हो जाती है.

वह टीवी पर ज्यादा दिखने लगते हैं. अखबार में ज्यादा छपते हैं और सबका ध्यान उनकी तरफ होता है. पिछले साल फरवरी-मार्च के पास जब वह अपने दक्षिणपूर्व एशिया भ्रमण पर थे तो हर कोई उन्हें लेकर परेशान था. उनके बारे में ज्यादा कहा सुना गया और लिखा गया. उन्हें लेकर होने वाली चर्चा में 100 फीसदी का उछाल आया.

याद कीजिए सितंबर में अमेरिका में हुई चार्ली रोज कांफ्रेंस को लेकर क्या बवाल हुआ था. बीजेपी ने इसे लेकर कितना हंगामा किया था क्योंकि राहुल गांधी भी तभी अमेरिका में थे जब मोदी वहां गए. उन्हें खूब बुरा भला कहा गया है.

उनकी ये यात्राएं एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा हो सकती हैं जिसका मकसद शायद लोगों के बीच उनकी छवि बेहतर बनाना और उन्हें लेकर दिलचस्पी पैदा करना हो. कहते हैं दूरी कभी कभी मोहब्बत को बढ़ा देती है.

 राहुल की इतनी चिंता क्यों

हर कोई उनकी बात करने लगता है, आलोचकों को उनकी यात्राओं को लेकर रखे जाने वाला रहस्य खलता है और सब राहुल गांधी को लेकर अटकलें लगाने लगते हैं. इस तरह राहुल गांधी पहले पन्ने पर आ जाते हैं.

यह छोटी की तरकीब उनका काम बना देती है. वरना तो वह कहां ऐसा कर पाते हैं. सच तो यह है कि हम भी इस तरकीब में फंस जाते हैं. सरकार कहती है कि वह अपने काम में नकारा हैं. उनकी पार्टी उन्हें एक बड़े नेता के तौर पर पेश करने का मौका नहीं गंवाती जो बेहद गोपनीय मिशन पर है.

उत्तर प्रदेश के जौनपुर में कांग्रेस की रैली के दौरान पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी (पीटीआई)

मीडिया में उन्हें तरह तरह के नामों से नवाजा जाता है, खिल्ली उड़ाई जाती है. लेकिन फिर भी उनका ऐसे इंतजार होता है जैसे सीजर रोम में लौट रहा हो.

तो क्या वह सीजर है या फिर सिर्फ एक ऐसी पार्टी के उपाध्यक्ष जिसके पास दस फीसदी प्रतिनिधित्व भी नहीं है?

एक ऐसे आदमी के पीछे इतने पागल होने की जरूरत क्या है जो सिर्फ रायता फैलाना जानता है और फिर उसे साफ करने का काम दूसरे लोगों को सौंप देता है? सच कहें तो केंद्र में एआईएडीएमके की मौजूदगी कहीं ज्यादा है!

लेकिन गांधी नाम का अपना ही जलवा है. जब वह गायब होते हैं तो उसके बाद उन्हें नया जीवन मिल जाता है. वैसे यह बात तो बीजेपी पर भी लागू होती है. बदनाम हुए तो क्या नाम ना होगा. हो सकता है कि राहुल उससे कहीं ज्यादा स्मार्ट हों जितना हम उन्हें समझते हैं.