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जब मोरारजी ने मर्यादा खोकर पीएम की कुर्सी पर बने रहने से इनकार कर दिया था

मोरारजी देसाई भारत के इकलौते ऐसे राजनेता थे जिन्हें 'भारत रत्न' और ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ सम्मान मिला

Surendra Kishore

‘कई लोग कहते हैं कि मैं थोड़ा सा समझौता कर लूं. समाधान कर लूं. यानी कीमत चुका दूं. तो वह तो रिश्वत ही है. किस तरह करता मैं ऐसा समझौता?’ पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने ये बातें 1979 में एक पत्रकार से कही थीं.

मोरारजी देसाई मार्च, 1977 में देश के प्रधानमंत्री बने थे. जनता पार्टी में फूट के कारण 1979 में उन्हें पद छोड़ना पड़ा. वो चाहते तो कुछ समझौते कर के पद पर बने रह सकते थे. उन्होंने पद छोड़ना कबूल किया पर अपने सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं किया.


पद के पीछे भागती आज की राजनीति को देख कर मोरारजी देसाई याद आते हैं. उन्हें याद करना आज जितना मौजूं है, उतना पहले कभी नहीं था.

इस प्रसंग में हुई बातचीत में पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने तब कहा था कि ‘कुछ लोगों ने मुझसे कहा कि पैसा बांट दो. उन लोगों ने भी पैसा काफी बांटा है. मैंने कहा कि ऐसा बोलना है तो फिर मेरे पास मत आना. यह तरीका नहीं है. इस तरीके से हमें क्या मतलब?’

मोरारजी के अनुसार, ‘अकालियों ने कहा कि हमारी पांच मांगें हैं. वह दे दो. मैंने कहा कि 'आज नहीं कह सकता. इसके बाद चर्चा करो तो जो हो सकता है. वह जरूर करेंगे. पर आज मैं नहीं कह सकता कि होगा.' यह सुनकर वह सब मुझसे नाराज हो गए और हमारे साथी भी कहने लगे कि उनका समाधान नहीं किया. इसलिए मैं निकल रहा हूं. इसलिए जब ऐसी अपेक्षा हो तो जो करे, वह करें, मैं तो नहीं कर सकता.

अगर मैं नहीं चाहता तो क्या कोई मुझे उस पद से हटा सकता था?

याद रहे कि इस पृष्ठभूमि में मोरारजी देसाई ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. उन्होंने सौदेबाजी कर के लेन-देन के आधार पर सांसदों का समर्थन हासिल कर के सरकार चलाना मंजूर नहीं किया. जब पत्रकार ने उनसे यह पूछा कि क्या राजनीति में मर्यादा नहीं होती? इस पर मोरारजी ने प्रश्न पूछा, ‘अगर मैं नहीं चाहता तो क्या कोई मुझे उस पद से हटा सकता था?’

किस तरह मोरारजी देसाई से सौदेबाजी करने की कोशिश हुई थी, उसके बारे में तब बिहार के ही एक सांसद ने इन पंक्तियों के लेखक को बताया था. उस सांसद के अनुसार उत्तर प्रदेश से लोकसभा के कांग्रेस के एक सदस्य मोरारजी देसाई से मिलना चाहते थे. तब तक मोरारजी ने इस्तीफा नहीं दिया था. कांग्रेसी सांसद पूर्व राजघराने से आते थे और उनका राजनीति पर दबदबा भी था. मोरारजी देसाई के इस्तीफे से एक दिन पहले की बात है.

उस सांसद का दावा था कि उनके साथ कांग्रेस और कुछ दूसरे दलों के लगभग 30 से 40 सांसद हैं. उनमें अधिकतर आदिवासी और दलित हैं. वो सभी सांसद मोरारजी देसाई की सरकार को गिरने से बचाना चाहते हैं, पर वो चाहते थे कि उन सांसदों को इसकी कीमत मिलनी चाहिए.

इसपर मोरारजी देसाई ने उस सांसद को टका सा जवाब दे दिया था. मोरारजी जब प्रधानमंत्री पद से हटे थे तब उनके साथ फिर भी लोकसभा के 219 सदस्य थे. बाद में तो इस देश में 200 से कम सांसदों वाले दलों ने भी तरह-तरह के समझौते कर के बारी-बारी से अपनी सरकारें बनाई और चलाईं. पर वो कैसी सरकारें थीं, ये सब जानते हैं.

इन सूचनाओं के अलावा आम लोगों की भी यही धारणा रही है कि मोराजी देसाई ने 1979 में अपनी गद्दी बचाने के लिए समझौता नहीं किया.

मोरारजी देसाई ने अपनी प्रधानमंत्री की कुर्सी बचाने के लिए अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया (फोटो : पीटीआई)

इकलौते राजनेता थे जिन्हें 'भारत रत्न' और ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ मिला

मोरारजी देसाई इस देश के संभवतः एकमात्र राजनेता थे जिन्हें 'भारत रत्न' और ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ दोनों मिले. हालांकि ‘निशान ए पाकिस्तान’ मिलने के पीछे कुछ विवाद भी सामने आए थे. पर उस विवाद के पीछे भी मोरारजी का कोई स्वार्थ नहीं था, बल्कि उनकी मिलावट विहीन गांधीवादी सोच थी.

राजनीति में आने से पहले मोरारजी देसाई सरकारी नौकरी में थे. डिप्टी कलक्टर के पद पर थे. गोधरा में जब तैनात थे तो वहां साप्रदायिक दंगा हो गया. दंगे की रिपोर्ट को लेकर मोरारजी का उनके अंग्रेज कलेक्टर से विवाद हो गया.

कलेक्टर ने मोरारजी पर आरोप लगाया कि वह बहुसंख्यक समुदाय के साथ पक्षपात कर रहे हैं. जबकि बाद में अदालत ने उस मामले में कहा कि मोरारजी पर कलक्टर का यह आरोप गलत था. अंग्रेज अफसरों के साथ मोरारजी का विवाद बढ़ा और देसाई ने आखिर में 19 मई, 1930 को सरकारी सेवा से इस्तीफा दे दिया.

इस प्रकरण में मोरारजी ने अपनी जीवनी में जो कुछ लिखा है, उससे एक बार फिर यह स्पष्ट हुआ कि किस तरह अंग्रेज शासक ‘बांटो और राज करो’ की नीति पर चलते थे. मोरारजी के अनुसार, ‘अंग्रेजी शासन का तरीका सांप्रदायिक पक्षपात का ही रहता था. कभी एक कौम को तो कभी दूसरे को उकसाना और उसका पक्ष लेना ही उनका नियम था. महात्मा गांधी ने जबसे इस देश में असहयोग और सत्याग्रह का युग आरंभ किया, तभी से बहुत से अंग्रेज अफसर खासकर कांग्रेस के खिलाफ मुसलमानों को उकसाने और उनका पक्ष लेने लगे थे.’

सांप्रदायिक मामलों में मोरारजी देसाई का रुख हमेशा संतुलित रहा

याद रहे कि सांप्रदायिक मामलों में मोरारजी देसाई का रुख हमेशा ही संतुलित रहा. तब भी जब वह सरकारी सेवा में थे और बाद में भी जब मंत्री, मुख्यमंत्री, उप-प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्री बने.

मोरारजी का जन्म 29 फरवरी, 1896 को गुजरात के वलसाड जिले के भदेली में एक अनाविल ब्राह्मण परिवार में हुआ था. जीवन भर अपने सिद्धांत पर अड़े रहने वाले इस नेता का 10 अप्रैल, 1995 को निधन हो गया.

प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद मोरारजी देसाई मुंबई के एक फ्लैट में रहते थे. लेकिन वह फ्लैट भी उनका अपना नहीं था. आज तो अनेक छोटे-बड़े नेताओं के पास जहां-तहां बड़े और विशाल बंगले हैं. फॉर्म हाउस हैं. वहां वो सुबह में आसानी से टहल सकते हैं. पर मोरारजी भाई अपने अपार्टमेंट की सीढ़ियों पर कई बार ऊपर-नीचे कर के हर सुबह टहलने का अपना रूटीन पूरा करते थे.