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शंकर सिंह वाघेला: पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त

शंकर सिंह वाघेला ने इस बात से सिरे से इनकार कर दिया है कि वो 77 साल में राजनीति से संन्यास ले रहे हैं

FP Staff

शंकर सिंह वाघेला ने इस बात से सिरे से इनकार कर दिया है कि वो 77 साल में राजनीति से संन्यास ले रहे हैं. यह कुछ और नहीं बल्कि वाघेला के नए तेवर हैं. यानी वाघेला यह समझते है कि अभी भी उन में राजनीतिक लड़ाई लड़ने की जान है. आखिर हो भी क्यों न, वाघेला जमीन से जुड़े नेता हैं. एक बड़ा समर्थक समुदाय और मंझे हुए नेता होने के चलते वाघेला को राजनीतिक समझ है. साथ ही लंबी पारी खेलने की ललक है.

इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उन्होंने पार्टी की राजनीति से अपने आपको दूर करते हुए, कांग्रेस से इस्तीफा देने का ऐलान किया. लेकिन, सक्रिय राजनीति में वे बने रहना चाहते हैं. मसलन कोई रणनीति है, जिसे आजमाया जाना अभी भी बाकी है.


क्या है वाघेला के पास ऑप्शन

राष्ट्रपति के चुनाव में क्रॉस वोटिंग का आरोप झेल रहे वाघेला और उनके समर्थक 8 अगस्त को होने वाले राज्य सभा चुनाव पर नजर दौड़ा रहे हैं. एक रणनीति यह है कि वाघेला को छोड़कर बाकी विधायक निलंबन के फैसले तक इंतजार करेंगे. ऐसा नहीं होता तो क्या राज्यसभा में भी क्रॉस वोटिंग की जा सकती है?

क्रॉस वोटिंग होने की संभावना के चलते सोनिया गांधी के प्रमुख राजनीतिक सचिव अहमद पटेल चुनाव लड़ना नहीं चाहेंगे. चूंकि उन्हें जीतने के लिए 47 वोट चाहिए, कांग्रेस के पास सहयोगी पार्टी के साथ 60 विधायक हैं. उसमें अगर 12 या 13 वोट क्रॉस होते हैं, तो खतरा बना रहता है.

कांग्रेस भी क्रॉस वोटिंग करने वालों को 6 साल तक चुनाव नहीं लड़ने देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए दबाव बना रही है.

ऐसी स्थिति में क्या वाघेला खुद राज्यसभा चुनाव में उतर सकते हैं. सूत्रों के मुताबिक बीजेपी बाहरी समर्थन दे सकती है. लेकिन वाघेला को जीतने के लिए कांग्रेस से वोट जुटाना पड़ेगा, जो फिलहाल बेहद मुश्किल लग रहा है.

ऐसे में एक ऑप्शन रहता है कि वाघेला एनसीपी से हाथ मिलाएं. कांग्रेस छोड़ने के अगले दिन वाघेला ने दिल्ली में एनसीपी नेता प्रफुल पटेल से मुलाकात की थी. सूत्र बता रहे हैं कि वाघेला गुजरात एनसीपी की बागडोर संभाल सकते हैं. फिलहाल पाटीदारों की बीजेपी से नाराजगी के बाद पटेल वोट पर एनसीपी की नजर है. कुछ पाटीदार नेता भी टिकट लेने के इच्छुक हैं.

लेकिन एक पेंच यह है कि अबतक एनसीपी कांग्रेस के साथ रहकर चुनाव लड़ी है. ऐसे में वाघेला एक ही शर्त पर एनसीपी से हाथ मिला सकते हैं कि वे कांग्रेस से दूर रहें. अगर यह नहीं होता है, तो वाघेला तीसरा मोर्चा खोल सकते हैं, जिसमें एनसीपी बाहर से मदद करे.

हार्दिक को साथ लाने की हो सकती है कवायद

वाघेला की कोशिश यह भी होगी कि पाटीदार नेता हार्दिक पटेल और दलित नेता अल्पेश को साथ लेकर पुराने शक्तिदल में प्राण फूंकी जाए. तो वो कांग्रेस-बीजेपी को तगड़ी टक्कर दे सकते हैं.

बता दें कि एक समय वाघेला के पास शक्तिदल के नाम पर साढ़े चार लाख युवा थे. जिसका वे शक्ति प्रदर्शन भी एक बार कर चुके हैं.

हालांकि जोड़ और तोड़ के बीच एक बात अबतक देखी गई है कि तीसरा मोर्चा कभी गुजरात की राजनीति में सफल नहीं रहा है. खुद वाघेला ने बीजेपी से नाता तोड़कर राष्ट्रीय जनता पार्टी (राजपा) बनाई थी. खजुराहो कांड के बाद कांग्रेस के समर्थन से वाघेला अपनी सरकार दो साल ही चला पाए थे.

फिर बीजेपी की सत्ता वापसी के बाद राजपा का कांग्रेस में विलय करना पड़ा था. बिल्कुल उसी तरह बीजेपी से नाराज होकर केशुभाई पटेल ने जीपीपी (गुजरात परिवर्तन पार्टी) बनाई थी. महज दो सीटें जीतने के बाद जीपीपी का भी विलय बीजेपी में करना पड़ा.

कुल मिलाकर तीसरा मोर्चा महज वोट कटुआ पार्टी बनकर रही है. तीसरा मोर्चा ओर उसका खामियाजा हमेशा कांग्रेस को ही भुगतना पड़ा है. बीजेपी को ही ज्यादा फायदा हुआ है.

वाघेला एक बात तो साफ कर चुके हैं कि वो बीजेपी का दामन नहीं थामेंगे नहीं कांग्रेस में जाएंगे. ऐसे में तीसरा विकल्प यह रहता है कि वाघेला बीजेपी के समर्थन से कोई संवैधानिक ओहदा ग्रहण करें. ऐन वक्त पर उनके समर्थक विधायक चुनाव से बीजेपी में शामिल हो.

इससे पहले भी 2007 और 2012 में बीजेपी ने कांग्रेस के मजबूत विधायकों को बीजेपी में शामिल कराकर लड़ाया और जिताकर अपनी सीटें बढ़ाई हैं.

ऐसे में सबसे ज्यादा फायदा आखिरी विकल्प में है. लेकिन वाघेला राजनीति के मंजे हुए नेता हैं. शह और मात के खेल में चाल वहीं चलेंगे, जहां खतरा कम और फायदा ज्यादा हो.

(न्यूज़ 18 के लिए जनक दवे की रिपोर्ट )